आखिरी कहानी

सीता राम शर्मा ” चेतन “

भारत की आँखें खुली है । मन बेचैन है । घबराहट सीने में नहीं मस्तिष्क में है । बेचैनी दूर करने की पहली कोशिश लंबी सांस के साथ । फिर लगातार कई बार । पर बेचैनी बढ़ती जा रही है । हथेलियाँ माथे को सहलाती है । शरीर को अनावश्यक हिला डूलाकर दूर करने की कोशिश भी नाकाम ! तभी उसके मस्तिष्क के भीतर से कोई कोई चीख़ता है – ” कैसे ! आखिर कैसे अपने ही देश के लोगों को यह समझाऊँ कि बहुत हो चुकी अब ये नासमझी । छोड़ो । दूसरों के लिए नहीं, अपने लिए, अपने परिवार के लिए, अपनी संतानों के वर्तमान और भविष्य के लिए ही सही, समझो कि तुम्हें क्या करना चाहिए । तुममें से कुछ तो स्वार्थ के लिए भटके हुए हैं । सच ये भी कि तुम्हारी संख्या बहुत कम है । अधिकांश तो बेवजह ही मूर्ख बने हुए हैं । अपने, अपने समाज के, अपने देश के ही अप्रत्यक्ष दुश्मन । आश्चर्य ! देश की पाखंडी जय-जयकार करते हुए !

अपनी हथेलियों की उंगलियों से अब वह अपने ही बाल नोचने लगा है । बीच-बीच में मुट्ठी बांध अपने माथे को ठोकता है । यह दर्द अजीब सा है । वर्षों की सोच से उपजा हुआ । दबा कुचला हुआ । आगे कुछ सोच समझ पाता इससे पहले करवट बदलती उसकी पत्नी की कोमल हथेली सीने पर आ पड़ती है । पहली बार उत्तेजना मुक्त, बेहद सख़्त और चुभती सी महसूस होती हुई । वह उसके निर्दोष चेहरे को थोड़े क्रोध से घूरता है । फिर उसकी हथेली बिस्तर पर सरके पड़े उसके आँचल पर रख उसके शरीर की हर आवाज़ को अनसुना करते हुए पाँव जमीन पर । जो खुद ही सीढ़ियों के सहारे छत पर पहुँच टहलने लगते हैं । टहलते हुए जुबान कहने लगती है – उफ्फ ! क्या करूँ ? क्या कर सकता हूँ ? कैसे कर सकता हूँ ? करने को कुछ असंभव नहीं । पर है तो असंभव ही । सदियाँ बीत गई इस घोर अज्ञानता में ! पापी ज्ञानी मूर्खता में । क्या पढ़े-लिखे और क्या अज्ञानी अनपढ़, सब के सब एक ही क़तार में । कोई थोड़ा आगे तो कोई पीछे । खुद ही अपने हाथों लूटते हुए – – उफ्फ ! आखिर कैसे संभव है इतनी मूर्खता ! सब कुछ देखते समझते हुए भी गलत लोगों के पीछे ! देशद्रोहियों के साथ ! इतनी भीड़ ! इतने लोग ! सब अशिक्षित भी नहीं । दलित, शोषित, पीड़ित ही नहीं, शिक्षित, समृद्ध और विकसित दिखते लोग भी !

झुंझलाहट में पैर जमीन पर पटकता है । धत्त – – – धत्त तेरी की – – ! आगे के कुछ शब्द लिखना उचित नहीं । बेचैनी और बढ़ जाती है । इतनी कि रोने लगता है । छत की जमीन पर माथा पकड़ बैठ जाता है । तभी, कोई फिर चीख़ता है भीतर से – ” मन करता है, कुछ को तो मार ही डालूँ । शायद इससे कुछ तो बदलेगा । – – – पर क्या ये उचित होगा ? क्या इसका कोई बड़ा असर होगा ? बदलाव आएगा ? नहीं । – – – कुछ खुश होंगे, कुछ नाराज़ । कुछ शाबाशी देंगे और कुछ गालियाँ । पर सब क्षणिक होगा । इनकी भटकी चेतना फिर भी सही मार्ग पर नहीं आने वाली । – – तो क्या करूँ ? – – – क्या ? आख़िर क्या ?

सूखी हथेलियों को बेतहाशा बहते आँसुओं से बार-बार गीली करता फफक उठता है । रोता रहता है बहुत देर तक । जब तक आँसू थक नहीं जाते । थककर रूक नहीं जाते । लंबी साँस लेता फिर उठता है । चेहरा आसमान से सटाने की कोशिश करता गर्दन तानता है उपर की तरफ । आँखे बंद किए कुछ कदम आगे बढ़ता है – – – कि तभी सर्द हवा के एक झोंके के अहसास से उसके कदम ठिठक जाते हैं । फिर खड़ा रहता है बहुत देर तक । खुद को सुन्न करते हुए । शांत करने की कोशिश करते हुए – – –

बेचैनी का वेग शांत होने के दौरान भी आत्मा झुंझलाहट में बुदबुदाती है – ” इतने घोटालों का इतिहास ! इतने भ्रष्टाचार के दाग ! इतनी अदूरदर्शिता ! इतनी षड्यंत्रकारी राजनीति ! राष्ट्रद्रोह की हद तक ! पर फिर भी करोड़ों लोग इनके साथ ! इनके पीछे ! आख़िर क्यों ? कैसे ? कब तक ? इलाज क्या ? – – – – सबसे पहले तो यह सोचना समझना ज़रूरी, कि इस बीमारी का मूल कारण क्या है ? बहुत शांति से सोचने की ज़रूरत है ! ”

खुद से बात करते, खुद को समझाते हुए उसके कदम तेज होते हैं । बेचैनी थोड़ी कम होती हुई – – – सवेरा होता हुआ – – – आसपास से आती कुछ आवाज़ें, पंछियों की चहचहाहट एकाग्रता भंग करती है । कदम सीढ़ियों से नीचे उतरते चले जाते हैं । मस्तिष्क में विचार आता है – ‘ फिलहाल तो अपनी इस मनोदशा की, वर्षों की बेचैनी की एक कहानी लिखता हूँ । ‘ चटाक – – ! उफ्फ ! उसके भीतर छिपा आदमी उसकी बात सुन एक जोरदार थप्पड़ मारता हुआ चीख़ता है – ” कब तक ? आख़िर कब तक अपनी सारी अव्यवस्थाओं और उनके जिम्मेवार अपराधियों के कुकृत्य सहते हुए सिर्फ और सिर्फ कुछ शब्द लिख और फिर उन्हें छपवा कर अपने हिस्से की जिम्मेवारी पूर्ण करने का अपराध करते रहोगे तुम ? याद रख, दुनिया की सबसे अकर्मण्य और पापी बिरादरी तुम्हारी है, जो सत्य की खोज तो करती है, समस्याओं की जड़ तक जाकर उसके कारण और निराकरण को भलीभांति जानती समझती तो है, पर असत्य, अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का अपना दायित्व कभी नहीं निभाती । यदि सचमुच इस तमाम अव्यवस्था को तुम मिटाना चाहते हो । सचमुच देश के लिए कुछ बेहतर करना चाहते हो । तो यह कहानी तब तक के लिए तुम्हारी आख़िरी कहानी होनी चाहिए, जब तक इस कहानी की सार्थकता के लिए इसे अंजाम तक ना पहुंचा दो । हर देशवासी को उसके राष्ट्रधर्म और राष्ट्रीय कर्तव्य के लिए जागृत और कर्तव्यपरायण ना बना दो । फिर उसके बाद चाहे करते रहना आजीवन शब्दों से खेल । ठिठोली । मजाक । या फिर प्यार । क्योंकि फिर सचमुच प्यार करने के ही काबिल होंगे सब । तुम भी ! ”

बिजली सी कौंधती अपनी अन्तर्मन की बातें सुनता वह अपने कमरे में आ पहुँचता है । जाग चुकी पत्नी बिस्तर से उठती हुई एकटक उसका चेहरा निहारती सामने आ उसके निढाल पड़े शरीर को सीने में समेटते हुए आहिस्ता से कहती है – ” राष्ट्र ! चिंतन ! बदलाव की कहानी! – – – मत सोचा करो इतना ! ” बोलते हुए दोनों गालों पर दो प्यार भरे चुंबन रख देती है ! आदतन आपरूपी वो भी ! दो की जगह तीन । एक उसके ओठों पर भी । वो बाहर निकलती हुई कहती है – ” जानती हूँ, अभी लिखोगे ही ! लिखो । मैं फ्रेश होकर आई, चाय की प्याली के साथ । ”

वो इठलाती जा चुकी है । वह खोया सा बैठ जाता है अपनी कुर्सी पर ! मेज पर रखे पन्ने उठाता है – – पलटता है – – – शुरुआत करता इससे पहले वह वापस पास आती हुई बोलती है – ” हाँ, एक ज़रूरी बात ! कल शाम जब मैं अकेली बैठी अनायास ही टेलीविज़न पर पहली बार एक न्यूज चैनल में होती बहस सुनने लगी थी, तुम्हारी उस चिंता को गहराई से समझ पाई, कि देश और हमारे सुरक्षित भविष्य के लिए सचमुच आज की सबसे बड़ी ज़रूरत एक कठोर देशद्रोह कानून और जनसंख्या नीति की है । ज़रूरत हमारी शिक्षा प्रणाली में व्यापक सुधार की है । सचमुच बेहद ज़रूरी है कि देश के लोग देश में रहने का तरीका सीखें । अपने राष्ट्रीय कर्तव्यों को ना सिर्फ जानें, बल्कि जियें भी – – और इसके लिए ज़रूरत पड़ने पर यदि ये उनकी बाध्यता हो तो वो भी बिल्कुल सही है । – – – साॅरी, तुम्हारी इस चिंता पर बार-बार तुम्हारा मजाक उड़ाने के लिए । ” बोलती हुई वह अपने हाथों से अपने कान पकड़ती वापस चली जाती है । उसकी बात सुन अनायास ही एक गंभीर मुस्कान थिरक उठती है उसके सख्त हुए चेहरे पर । उसके जाते ही पन्ने पर शीर्षक स्वतः उतर आता है – आखिरी कहानी।