मन की अमावस में आत्ममंथन का दिया जलाएं

Light the lamp of introspection in the new moon of the mind

मुनीष भाटिया

आज समाज में चहुँ ओर हिंसा, अराजकता व झूठ का बोलबाला है I युद्ध और आतंकवाद के वातावरण में इंसानियत को तार तार किया जा रहा है I हिंसा और नफरत भरे माहौल के कारण ही आज ऐसा वातावरण बन रहा है कि इंसानियत और हैवानियत की दूरियां कम होती जा रही हैं I यह सच है कि जब समाज में हिंसा, नफरत, और अराजकता का बोलबाला होता है, तो इसका असर हर व्यक्ति पर पड़ता है। हमारे मन में जमा नकारात्मकता और दूसरों पर दोषारोपण की प्रवृत्ति समाज में नैतिकता के स्तर को गिरा रही है।कहते हैं कि “आत्मनिरीक्षण ही आत्म-सुधार का पहला कदम है।” यदि हम अपने दोषों और कमजोरियों को पहचान कर उनमें सुधार लाने की कोशिश करें, तो इससे समाज में सकारात्मक बदलाव आ सकता है। मन में व्याप्त अमावस का ही परिणाम है कि हम दूसरे के दोषों की चर्चा तो खूब करते हैं किन्तु अपनी गलतियों पर पर्दा डाल लेते हैं। दूसरों के दोष तो हमें नजर आ जाते हैं किन्तु स्वयं का बड़े से बड़ा अपराध का भी हम आत्मनिरीक्षण करने की कोशिश तक नहीं करते। आज के गिरते मानवीय जीवन चरित्र को देखते हुए यह धारणा प्रबल हो चली है कि ‘दोस पराए देखि करि चला हसंत-हसंत’ अर्थात् यह मनुष्‍य का स्‍वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देखकर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत I दूसरों के दोषों को देखने के बजाय यदि हर व्यक्ति अपने मन की “अमावस” को दूर कर, उसे सच्चाई और मानवता के उजाले में बदलने का प्रयास करे, तो यह न केवल समाज के लिए बल्कि स्वयं के लिए भी अत्यंत लाभकारी होगा।हमें अपने मन को अशांति और द्वेष से मुक्त करने की दिशा में निरंतर प्रयास करना चाहिए। इसी सोच के साथ नैतिकता और इंसानियत की ओर एक कदम बढ़ाकर हम एक सुंदर समाज का निर्माण कर सकते हैं।

दूसरों के प्रति अपने दुर्व्यवहार व अपने दोषों अनुसार सामाजिक मूल्यों के संदर्भ में कबीर द्वारा कही गई वाणी अपने याद न आवई जाको आदि न अंत’ यह एक विडंबना ही कही जाएगी कि आत्म निरीक्षण व आत्म विश्लेषण कर अपनी गलतियों को सुधारने की बजाए हम अपने विवेक दर्पण में वही सब कुछ देखना चाहते हैं जैसा हमारा मन करता है। कबूतर की तरह आँख मूंदे रहने की भावना ने समाज को किंकर्तव्यविमूढ़ बना दिया है। राजनैतिक रूप से बदले की भावना इतनी प्रबल हो चली है कि नैतिकता के सभी आयाम को चुनौतियां दी जा रही हैं I अपने मन की अमावस में आत्ममंथन का दिया जलाने का रत्ती भर बी प्रयास नहीं करते I निज की स्वस्थ आलोचना कर व अपने गुण दोषों को हम देखना भी नहीं चाहते। यही कारण है कि सामाजिक अपराधों में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। परिवार, उसकी प्रथम इकाई होने के कारण, महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यदि परिवार के भीतर ही अपराध, हिंसा, और महिलाओं के प्रति शोषण जैसी घटनाएं होती हैं, तो समाज पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। घरेलू हिंसा, महिला एवं बाल यौन उत्पीड़न जैसी घटनाएं न केवल पीड़ित के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए एक गहरा आघात होती हैं। यह स्थिति हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम सही दिशा में जा रहे हैं और हमारे समाज के मूल्य कहाँ खोते जा रहे हैं।

समाज की प्रथम इकाई अर्थात परिवारों में जहाँ घरेलू अपराध होते हैं व महिलाओं का शोषण होता है। जब परिवार में सम्मान, सुरक्षा और सहानुभूति का अभाव हो, तो समाज का ढाँचा कमजोर पड़ने लगता है। महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा, शिक्षा और मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देना आवश्यक है, क्योंकि एक मजबूत परिवार ही एक स्वस्थ और नैतिक समाज की नींव रखता है। परिवार में बच्चों को समानता, करुणा, और महिलाओं के प्रति सम्मान दिखाने से ही समाज में सकारात्मक बदलाव लाया जा सकता है। अतः यह समय है कि हम अपने मूल्यों पर पुनर्विचार करें और यह सुनिश्चित करें कि परिवारों में एक ऐसा वातावरण हो जहाँ सभी सदस्यों, विशेषकर महिलाओं और बच्चों, को समान अधिकार और सुरक्षा प्राप्त हो।

आज के समय में, शीर्ष नेताओं और जनप्रतिनिधियों में आत्मनिरीक्षण की कमी और प्रतिशोध की भावना का बढ़ना गंभीर चिंता का विषय है। समाज में जो अपराध और अनैतिकताएं बढ़ रही हैं, वे कहीं न कहीं उन व्यक्तियों के नैतिक पतन को दर्शाती हैं जो समाज का मार्गदर्शन करने की जिम्मेदारी निभाते हैं। यदि शीर्ष पर बैठे लोग ही नैतिकता के उच्च मानदंडों का पालन नहीं करेंगे, तो यह समाज पर नकारात्मक प्रभाव डालेगा, और फिर आम जनमानस में भी अनुशासन और संवेदनशीलता का अभाव उत्पन्न होने लगेगा। जब व्यक्ति अपने भीतर झांककर अपनी कमजोरियों और कमियों को पहचानने और उनमें सुधार करने का प्रयास करता है, तो वह समाज के लिए एक उदाहरण बनता है। “वसुधैव कुटुंबकम” का आदर्श तभी साकार हो सकता है जब समाज का प्रत्येक सदस्य, विशेषकर शासन तंत्र में बैठे लोग, अपने कर्तव्यों के प्रति ईमानदार और उत्तरदायी हों। अतः आवश्यकता है कि शासन तंत्र में बैठे हमारे नेता और जनप्रतिनिधि अपने कर्तव्यों और नैतिक जिम्मेदारियों के प्रति सजग हों। साथ ही, प्रत्येक नागरिक भी अपने स्तर पर आत्मनिरीक्षण और आत्म-सुधार का संकल्प ले तभी हम एक सुरक्षित और शांतिपूर्ण समाज का निर्माण कर सकते हैं, जहाँ “वसुधैव कुटुम्बकम्” के आदर्श की अनुभूति हो सके।

परिवार में आत्मनिरीक्षण और अपने व्यवहार की समीक्षा की भावना को विकसित करने की आवश्यकता आज के समय की मांग है। जब हम अपने हृदय को एक दर्पण मानकर अपनी क्रियाओं को देखते हैं, तो हमें अपने आचरण की सच्चाई का पता चलता है। यह आत्मनिरीक्षण हमें न केवल हमारे दोषों का ज्ञान कराता है, बल्कि उन्हें दूर करने की प्रेरणा भी देता है। किसी भी व्यक्ति से किया गया व्यवहार चाहे अनजाने में हो या जानबूझकर, यदि उस व्यवहार में किसी प्रकार की ठेस पहुंचती है, तो यह हमारे लिए चेतावनी है कि हमें अपने व्यवहार में सुधार की आवश्यकता है। एक शांत और सजग मन से अपने व्यवहार पर विचार करना हमें आत्म-सुधार के मार्ग पर ले जाता है। इस तरह का आत्मनिरीक्षण हमारी मानसिकता को बदलने और हमारे व्यवहार को अधिक सकारात्मक, सहनशील, और दयालु बनाने में सहायक होता है। यदि हम सभी लोग इस दिशा में बढ़ें, तो निश्चित रूप से समाज में सकारात्मक बदलाव आएंगे और साथ ही संतुष्टि व आंतरिक शांति का अनुभव भी होगा। परिवार में आत्मनिरीक्षण की यह भावना समाज के प्रत्येक व्यक्ति को सही दिशा में ले जा सकती है। इसे अपनाकर ही हम “मन की अमावस” को “प्रकाश” में बदल सकते हैं। यह वह सच्चा मार्ग है जो न केवल हमारी आत्मा को तृप्ति देता है बल्कि समाज को भी एक नई दिशा प्रदान करता है।