महाराष्ट्र चुनाव : नैतिकता विहीन और विचार शून्य

Maharashtra elections are devoid of morality and void of ideas

नरेंद्र तिवारी

दलीय दलदल किसी राज्य में नजर आता है, तो वह भारत के आर्थिक रुप से सम्पन्न राज्य महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में दिखाई देता है। जहां वर्तमान दौर की राजनीति विचार शून्य ओर नैतिकता विहीन नजर आ रही है। नामांकन दाखिल किए जाने के बाद से वापसी तक जो राजनीतिक घमासान नजर आ रहा है। वह दलीय निष्ठाओं के ऊपर व्यक्तिगत, पारिवारिक हितों को स्थापित करता दिखाई देता है। यहां जिस प्रकार कि राजनीति चल रही है उसका असर भारत की राजनीति को निश्चित रूप से प्रभावित करेगा। राजनीति का इससे पहले इतना अवमूल्यन कभी नहीं देखा गया जैसा महाराष्ट्र के कुछ बरसों एवं 2024 के विधानसभा चुनाव में देश सहित महाराष्ट्र की जनता देख रही है। राजनीति का ऐसा घालमेल जहां यह तय कर पाना मुश्किल हो जाए कि किस दल की विचारधारा कौनसी है? कौन किसका साथी है? सुबह इस पार्टी का नेता शाम तक किसी दूसरी पार्टी में टिकिट हथियाने के लिए चले जाएगा कहा नहीं जा सकता है। राजनीति की क्रूर सच्चाई के महाराष्ट्रीयन उदाहरणों ने दलगत निष्ठा, भरोसा, नैतिकता, विचार जैसे सकारात्मक राजनीति के गढ़े गए शब्दों से विश्वास ही उठा दिया है। क्या महाराष्ट्र भारतीय राजनीति का दर्पण है ? जिसमें दिखाई देने वाली राजनैतिक तस्वीर भारतीय राजनीति का असली चित्र प्रस्तुत कर रही है ? जबकि बरसों से राजनीतिक दलों ने देश की जनता को बताया कि प्रजातंत्र में राजनीतिक दल अपने सिद्धांत कार्यक्रम ओर एजेंडा लेकर मतदाता के समक्ष जाते है। जनता की सेवा और राष्ट्रसेवा नेता और दल का परम दायित्व है। दलीय राजनीति में व्यक्ति और परिवार गौण रहते है, नीति और कार्यक्रम मुख्य होते है, जिसे जनता के सामने रखकर राजनीतिक दल देश प्रदेश की सेवा का बहुमत प्राप्त करता है। सरकार बनाने के लिए एक ही विचारधारा के साथी दल आपसी गठबंधन बनाकर चुनावी समर में उतरते है। बेमेल गठबंधन राजनीति में भ्रष्टाचार को बढ़ाते है।महाराष्ट्र की राजनीति में खरीद फरोख्त एवं भ्रष्टाचार का बोलबाला पहले से ही मौजूद रहा है, किंतु बीते कुछ सालों से जोड़तोड़ की सरकारों के दौर में राजनीति की तस्वीर बेहद भद्दी और घिनौनी हो गई है। महाराष्ट्र की राजनीति के विषय में कहा जाता है कि यहां खुलेआम धनबल, बाहुबल, सत्ताबल का प्रयोग चुनाव में किया जा रहा है। नेता धनबल के प्रयोग से चुनाव जीतकर सत्ता की मंडी में अपनी बोली लगाते हैं, इस बोली में विचारधारा, नैतिक मूल्य, दलीय निष्ठा को भी दांव पर लगा दिया जाता है। यहां पहले भी ऐसा हो चुका है, अब इसकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।
चुनाव जीतकर नेता जनता की सेवा का संकल्प लेते है। किंतु जो परिवेश महाराष्ट्र की राजनीति के वर्तमान दौर में दिख रहा है। वह भारत के प्रजातंत्र की असली तस्वीर तो नहीं कही जा सकती है। इस परिवेश के निर्माण में कोई एक दल जिम्मेदार नहीं सभी दल यहां एक जैसी कार्यप्रणाली से राजनीतिक गतिविधियों को संचालित कर रहे है। महाराष्ट्र प्रदेश में 20 नवंबर को होने जा रहे विधानसभा चुनाव के लिए नाम वापसी तक कुल 10900 उम्मीदवारों में से 983 प्रत्याशियों ने अपना नाम वापिस ले लिया है। चुनाव आयोग के मुताबिक 1654 उम्मीदवारों के नामांकन रिजेक्ट किए गए। चुनाव मैदान में 8272 उम्मीदवार बचे है।
कांग्रेसनित महाविकास आघाड़ी जिसमें कांग्रेस, एनसीपी शरद, शिवसेना उद्धव गुट शामिल है इस गठबंधन को जहां अपने ही साथी दलों के बागी उम्मीदवारों का सामना करना पड़ रहा है। कस्बा से कमल व्यवहार की बगावत कायम है, पुणे पार्वती अम्बा बागुल कांग्रेस से बगावत पर कायम है, शिवाजी नगर कांग्रेस से मनीष आनंद की बगावत कायम है। माजलगांव, सोलापुर, नागपुर में महाविकास आघाड़ी में बागी उम्मीदवार मैदान में है। समाजवादी पार्टी ने भी अपने उम्मीदवार कुछ विधानसभा से उतारे है। महायुति में भी अनेकों सीटों पर बगावत के सुर सुनाई दे रहें है। इस गठबंधन में भाजपा, शिवसेना शिंदेगुट और एनसीपी अजित पवार गुट शामिल है। महायुति का गठबंधन महाराष्ट्र की सरकार में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में सत्ता पर काबिज है। भाजपा से जुड़े दोनों दल अपनी पार्टी से विद्रोह कर शामिल हुए है। महायुति में नामांकन वापसी के बाद भी अनेकों उम्मीदवारों ने बागी के रूप में चुनाव लड़ने की ठान ली है। कुलमिलाकर दोनो ही गठबंधनो में पार्टी की निष्ठा कमजोर हुई है। सत्ता प्राप्ति के लिए दलबदल सामान्य बात हो गई है। भाजपा जैसी बड़ी पार्टी ने एक रणनीति के तहत अपनी पार्टी के नेताओं को दलबदल कराकर अपने गठबंधन की दूसरी पार्टियों में भेजकर टिकिट दिलवाए है। प्रसिद्ध लेखक आर आर जैरथ ने अपने एक लेख में स्पष्ट लिखा कि महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ महायुति में भाजपा का स्पष्ट रूप से दबदबा है। भाजपा ने शिवसेना शिंदे गुट और एनसीपी अजित गुट को अपनी अपेक्षा से अधिक सीटें देना पड़ी। उसने अपने सहयोगियों को शिवसेना और एनसीपी से चुनाव लड़ने को मजबूर किया। भाजपा के 16 नेताओं ने शिवसेना और एनसीपी से चुनाव लड़ने के लिए पार्टी छोड़ दी है। उदाहरण के लिए भाजपा प्रवक्ता और परिचित टीवी चेहरा साइना एनसी तथा पूर्व केंदीय मंत्री और भाजपा नेता नारायण राणे के बेटे नीलेश को शिवसेना के टिकिट से चुनाव लड़ाया गया है। अजित पंवार ने भी चार भाजपा नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल कर उन्हें चुनाव लड़ाया है। चुनाव के समय हुए इस दलबदल से साफ जाहिर है। पार्टी की निष्ठा यहां कोई मुद्दा ही नहीं है। महाराष्ट्र में सभी पार्टियों और नेताओं का लक्ष्य महज सत्ता प्राप्ति है। ऐसा नहीं है कि अन्य राज्यों में सत्ता प्राप्ति के लिए बेमेल गठबंधन नहीं हुए पर महाराष्ट्र में यह अधिक दिखाई दे रहा है। इससे पूर्व विधानसभा चुनाव प्रदेश के मतदाता भाजपा, शिवसेना और कांग्रेस एनसीपी गठबंधन में से अपना चुनाव करते थै। पूर्व के इन गठबंधनों की विचारधारा भी एक सी रही है। अब जबकि दो शिवसेना और दो एनसीपी मैदान में है, एक आघाड़ी तरफ तो दूसरी युति के पक्ष में है, मतदाता महाराष्ट्र चुनाव के दलीय दलदल से भ्रमित है। जनता के सामने एक स्थाई सरकार चुनने का कठिन प्रश्न खड़ा हो गया है। महाराष्ट्र का यह राजनैतिक घालमेल जहां सत्ताबल, बाहुबल, धनबल का खुलेआम प्रदर्शन हो रहा है। यहां चुनाव आयोग को भी सख्त रवैया अपनाने की आवश्यकता है। धनबल, सत्ताबल और बाहुबल के प्रयोग से बना जनप्रतिनिधि जनता के हितों पर कम अपने निजी हितों पर अधिक ध्यान देतें है। चुनाव में स्वच्छता, पारदर्शिता होनी चाहिए। अनुचित संसाधनों के प्रत्योग पर कठोर पाबंदी लगनी चाहिए। चुनाव में प्रयुक्त अनुचित साधन प्रजातंत्र को कमजोर करते है। जनतंत्र को कमजोर करने वाली इस राजनीति को सिरे से नकारने की सबसे बड़ी जवाबदेही महाराष्ट्र की जनता के जिम्मे है। महाराष्ट्र को एक स्थाई सरकार की आवश्यकता है। दलों के दलदल से ही जनता को अपने वोट की ताकत से ईमानदार और स्वच्छ चरित्र वाले नेताओं को चुनना है। महाराष्ट्र में चल रही मौजूदा राजनीति देश और महाराष्ट्र के हितों के अनुकूल तो बिल्कुल भी नहीं है।,