ललित गर्ग
भगवान महावीर सामाजिक एवं व्यक्तिक्रांति के शिखर पुरुष थे। महावीर का दर्शन अहिंसा और समता का ही दर्शन नहीं है बल्कि क्रांति का दर्शन है। उनकी क्रांति का अर्थ रक्तपात नहीं! क्रांति का अर्थ है परिवर्तन। क्रांति का अर्थ है जागृति! क्रांति अर्थात् स्वस्थ विचारों की ज्योति! क्रांति का अर्थ आग नहीं, सत्य और पूर्णता की ओर बढ़ना क्रांति है। इस दिशा में स्वयं बढ़ना क्रांति कहलाती है। जिसे वीर पुरुष सत्यपथ मानता है, उस ओर जिस समय वह अपने युग के समाज को भी आगे बढ़ाता है तब वह क्रांतिकारी कहलाता है। भगवान महावीर इस अर्थ में क्रांतिकारी थे। महावीर ने केवल धर्म तीर्थ का ही प्रवर्तन ही नहीं किया बल्कि एक उन्नत और स्वस्थ समाज के लिए नये मूल्य-मानक गढ़े। उन्होंने प्रगतिशील विचारों को सही दिशा ही नहीं दी बल्कि उनमें आये ठहराव को तोड़कर नयी क्रांति का सूत्रपात किया। महावीर जन्म से महावीर नहीं थे। उन्होंने जीवन भर अनगिनत संघर्षों को झेला, कष्टों को सहा, दुख में से सुख खोजा और गहन तप एवं साधना के बल पर सत्य तक पहुंचे, इसलिये वे हमारे लिए आदर्शों की ऊंची मीनार बन गये। उन्होंने समझ दी कि महानता कभी भौतिक पदार्थों, सुख-सुविधाओं, संकीर्ण सोच एवं स्वार्थी मनोवृत्ति से नहीं प्राप्त की जा सकती उसके लिए सच्चाई को बटोरना होता है, नैतिकता के पथ पर चलना होता है और अहिंसा की जीवन शैली अपनानी होती है। महावीर जयन्ती मनाने हुए हम केवल महावीर को पूजे ही नहीं, बल्कि उनके आदर्शों को जीने के लिये संकल्पित हो।
महावीर ने जन-जन को समता के उपदेशामृत से आप्लावित ही नहीं किया किन्तु स्वयं के जीवन में जीया। वे जिस युग में जन्मे उस समाज रूपी वट-वृक्ष को विषमता की विष वल्लरियां आवेष्टित कर चुकी थी। जाति और वर्ण के नाम पर वह बंटा हुआ था। व्यक्ति को ऊंचा और नीचा उसके चरित्र और शील से नहीं अपितु जन्म के आधार पर माना जाता था। अभिजात्यता का पैरामीटर जाति और कुल थे उसके आचरण नहीं। वैभव और सम्पत्ति में केवल रुपये, सोना, चांदी, जवाहरात ही नहीं अपितु मनुष्यों को भी गिना जाता था। ‘‘किसके पास कितने दास-दासी हैं?’’ यह भी सम्पन्नता का मापदण्ड था। फलतः दासप्रथा का प्रचलन धड़ल्ले से पनप रहा था। जब मनुष्य-मनुष्य के बीच भी इतनी विषमताएं समाज सम्मत थी तब निरीह पशु-पक्षियों और सूक्ष्म प्राणियों की ओर ध्यान देना या उनके सुख-दुःख का अहसास करना समझ से बाहर की बात थी। इन्हीं स्थितियों में नारी उत्पीड़न, दास-प्रथा, जातिवाद, बढ़ती हुई क्रूरता और सामाजिक विषमता साधारण बात थी। इन स्थितियों ने महावीर को उद्वेलित कर दिया। ऐसे विषमता एवं विसंगतिया भरे युग में क्षत्रिय कुण्डनपुर के राजा सिद्धार्थ और महारानी त्रिशला के घर-आंगन में एक तेजस्वी शिशु ने जन्म लिया। वह शुभ वेला थी-चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की मध्य रात्रि। गर्भाधान के साथ ही बढ़ती हुई सुख सम्पदा को देख बालक का नामकरण किया गया-वर्धमान। जिसके साए में था मानवता का प्यार-दुलार और समता का संसार। नन्हें शिशु के अबोले पर सक्षम आभामण्डल का ही प्रभाव था कि पुत्र जन्म की बधाई देने वाली दासी प्रियंवदा को आभूषणों का उपहार ही नहीं मिला पर महाराजा सिद्धार्थ ने सदा-सदा के लिए उसे दास्य कर्म से मुक्त कर दिया। जैन धर्म के अनुसार कोई भी तीर्थंकर अतिमानव अवतार के रूप में नहीं अपितु सामान्य व्यक्तियों की तरह ही जन्म लेते हैं।
क्षत्रिय कुण्डनपुर नगर के क्षत्रिय नरेश सिद्धार्थ के राजप्रसाद में जन्म लेने पर भी महावीर के मन में शाही वैभव के प्रति कोई आकर्षण नहीं था। शोषण और संग्रह की त्रासदी से पीड़ित लोकजीवन को हिंसा और परिग्रह के अल्पीकरण का पथ दिखाकर उन्होंने मनुष्य के हाथ में निरंकुश वृत्तियों की लगाम थमा दी। किसी गृहवासी को संन्यास की ओर ढकेलना उनका लक्ष्य नहीं था। वे व्यक्ति की शक्ति और रुचि के अनुसार उसे साधना की प्रक्रिया बताते थे। संसार के विरक्त व्यक्तियों को उन्होंने हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से सर्वथा मुक्त रहने का उपदेश दिया किन्तु जिनमें इतनी क्षमता नहीं थी, उन्हें हिंसा और परिग्रह को सीमित करने, परिहार्य असत्य और चोरी से बचने तथा विवाहित स्त्री और पुरुष के अतिरिक्त ब्रह्मचर्य का पालन करने की दिशा दिखाई। इससे असीमित भोग और संग्रह पर प्रतिबंध लग गया तथा निष्प्रयोजन होने वाली असत् प्रवृत्ति रुक गई।
महावीर जन्म से ही अतीन्द्रिय ज्ञानी थे। उन्होंने कहा तुम जो भी करते हो- अच्छा या बुरा, उसके परिणामों के तुम खुद ही जिम्मेदार हो। अपने ज्ञान से उन्होंने प्राणी मात्र में चैतन्य की धारा प्रवाहित होते हुए महसूस की। कभी-कभी वे अपने इर्द-गिर्द रहने वालों को इसकी अभिव्यक्ति भी दे देते। अक्सर वे कहा करते थे- सुख-दुख के तुम स्वयं सर्जक हो। भाग्य तुम्हारा हस्ताक्षर है। कभी किसी निरपराध या अभावग्रस्त व्यक्ति की दासता उनके कोमल दिल को कचोट जाती तो कहीं अहं और दर्प में मदहोश सत्तासीन व्यक्तियों का निर्दयतापूर्ण क्रूर व्यवहार उनके मृदु मानस को आहत कर देता। वे गहरे मानवीय संवेदना के चितेरे थे। महावीर घण्टों-घण्टों तक अपने समय की समस्याओं का समाधान पाने चिंतन की डुबकियों में खो जाते। तीस वर्ष की युवावस्था में सहज रूप से प्राप्त सत्ता वैभव और परिवार को सर्प कंचुकीवत् छोड़ साधना के दुष्कर मार्ग पर सत्य की उपलब्धि के लिए दृढ़ संकल्प के साथ चल पड़े। बारह वर्ष से भी अधिक अवधि तक शरीर को भुला अधिक से अधिक चैतन्य के इर्द-गिर्द आपकी यात्रा चलती रही। ध्यान की अतल गहराइयों में डुबकियां लगाते हुए सत्य सूर्य का साक्षात्कार हुआ। वे सर्वज्ञ व सर्वदर्शी बन गये वह पावन दिन था वैशाख शुक्ला दशमी। लक्षित मंजिल उपलब्ध हो चुकी थी। इसी अनुभूत सत्य को आपने जन-जन तक पहुंचाने में उपदेशामृत की धार बहाई। वह अमृत सबके लिए समान रूप से था। उसमें जाति, वर्ण, रंग, लिंग, अमीर, गरीब की भेदरेखाएं नहीं थी। अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार हर कोई उसे उपलब्ध कर सकता था।
महावीर ने आकांक्षाओं के सीमाकरण की बात कही। उन्होंने कहा मूर्च्छा परिग्रह है उसका विवेक करो। आज की समस्या है- पदार्थ और उपभोक्ता के बीच आवश्यकता और उपयोगिता की समझ का अभाव। उपभोक्तावादी संस्कृति महत्वाकांक्षाओं को तेज हवा दे रही है, इसीलिए जिंदगी की भागदौड़ का एक मकसद बन गया है- संग्रह करो, भोग करो। महावीर की शिक्षाओं के विपरीत हमने मान लिया है कि संग्रह ही भविष्य को सुरक्षा देगा। जबकि यह हमारी भूल है। जीवन का शाश्वत सत्य है कि इंद्रियां जैसी आज है भविष्य मंे वैसी नहीं रहेगी। फिर आज का संग्रह भविष्य के लिए कैसे उपयोगी हो सकता है? क्या आज का संग्रह कल भोगा जा सकेगा जब हमारी इंद्रिया अक्षम बन जाएंगी।
महावीर का दर्शन था खाली रहना। इसीलिए उन्होंने जन-जन के बीच आने से पहले, अपने जीवन के अनुभवों को बांटने से पहले, कठोर तप करने से पहले, स्वयं को अकेला बनाया, खाली बनाया। तप तपा। जीवन का सच जाना। फिर उन्होंने कहा अपने भीतर कुछ भी ऐसा न आने दो जिससे भीतर का संसार प्रदूषित हो। न बुरा देखो, न बुरा सुनो, न बुरा कहो। यही खालीपन का संदेश सुख, शांति, समाधि का मार्ग है। दिन-रात संकल्पों-विकल्पों, सुख-दुख, हर्ष-विषाद से घिरे रहना, कल की चिंता में झुलसना तनाव का भार ढोना, ऐसी स्थिति में भला मन कब कैसे खाली हो सकता है? कैसे संतुलित हो सकता है? कैसे समाधिस्थ हो सकता है? इन स्थितियों को पाने के लिए वर्तमान में जीने का अभ्यास जरूरी है। न अतीत की स्मृति और न भविष्य की चिंता। जो आज को जीना सीख लेता है, समझना चाहिए उसने मनुष्य जीवन की सार्थकता को पा लिया है और ऐसे मनुष्यों से बना समाज ही संतुलित हो सकता है, स्वस्थ हो सकता है, समतामूलक हो सकता है। जरूरत है उन्नत एवं संतुलित समाज निर्माण के लिए महावीर के उपदेशों को जीवन में ढालने की। महावीर-सी गुणात्मकता को जन-जन में स्थापित करने की। ऐसा करके ही समाज को स्वस्थ बना सकेंगे। कोरा उपदेश तक महावीर को सीमित न बनाएं, बल्कि महावीर को जीवन का हिस्सा बनाएं, जीवन में ढालें।