
सोनम लववंशी
हमारे समय का एक विडंबनापूर्ण दृश्य यह है कि मनुष्य, जिसने अंतरिक्ष की गहराइयों में झांकने और कृत्रिम बुद्धिमत्ता से संवाद करने की क्षमता हासिल कर ली है, वह अपने ही पैरों तले कुचलकर भगवान के दर्शन करने के लिए दौड़ रहा है। मध्य प्रदेश के सीहोर स्थित कुबरेश्वर धाम में दो महिलाओं की मौत, कई घायल, यह न तो कोई पहला हादसा है, न आख़िरी होने जा रहा है। यह केवल एक घटना नहीं, हमारी सामूहिक चेतना की उस दरार का प्रमाण है जिसमें आस्था, व्यवस्था और विवेक का संतुलन बिखर चुका है और ऐसे में सवाल यही है कि क्या हम आस्था के उस उन्मादी दौर में हैं, जहां किसी की जान की कोई क़ीमत नहीं? यह सवाल इसलिए भी है, क्योंकि मंदिर या तीर्थस्थल पर जाने से किसी के घर का चिराग़ बुझ जाए या चूल्हा जलना बंद हो जाए। तो इससे अधिक त्रासदीपूर्ण वेदना कोई दूसरी नहीं हो सकती है। वैसे भी आस्था, जब तक वह आत्मानुशासन और विवेक से जुड़ी रहती है, जीवन को उन्नत करती है। परंतु जब वह भीड़ की बेख़बर लय में बहने लगती है, तो वह एक उन्मादी प्रवाह बन जाती है, जिसमें व्यक्ति का व्यक्तित्व, बुद्धि और स्वतंत्र निर्णय शक्ति डूब जाती है। भगदड़ दरअसल भीड़ की शारीरिक टक्कर नहीं है। यह सोच की भी टक्कर है, जहां विज्ञान और व्यवस्था की समझ, परंपरा के अंधविश्वास से हार जाती है।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के अनुसार, पिछले पच्चीस वर्षों में देश के भीतर 3000 से अधिक लोग मारे गए हैं। इनमें से अधिकांश घटनाएं धार्मिक स्थलों या आयोजनों से जुड़ी हैं। हाथरस में 121 लोग, रतनगढ़ में 115, चामुंडा देवी में 224, नैना देवी में 146, मंधार देवी में 258, दिल्ली स्टेशन 18, ये सब हमें एक ही बात कह रहे हैं कि भगवान भीड़ में नहीं मिलते, विवेक में मिलते हैं। लेकिन इक्कीसवीं सदी का मानव है कि इसे समझने को तैयार नहीं और इन सभी घटनाओं का पैटर्न लगभग एक जैसा रहा। क्षमता से कई गुना अधिक भीड़, अपर्याप्त निकासी मार्ग, आपातकालीन प्रबंधन का अभाव और अफवाह की एक चिंगारी, जो पलों में मृत्यु की लपट बन जाती है। यह भीड़ का मनोविज्ञान है। जिसमें व्यक्ति अपनी सोच खो देता है और एक अज्ञात भय या लालसा में, दूसरों को धकेलते हुए आगे बढ़ने लगता है। यह वह क्षण होता है जब मनुष्य, जो तर्कशील होने का दावा तो करता है, फिर अपने सबसे आदिम स्वभाव में लौट आता है कि ‘पहले मैं’। धार्मिक आयोजनों में यह प्रवृत्ति और गहरी हो जाती है, क्योंकि उसमें ‘पुण्य’ और ‘मोक्ष’ जैसे अदृश्य पुरस्कार जुड़े होते हैं, जो लोगों को यह विश्वास दिलाते हैं कि समय गंवाना पाप है, और रुकना हानि।
सबसे बड़ा दोष इस सोच का है कि “भगवान सब देख रहे हैं, वे बचा लेंगे।” यह विचार न केवल बौद्धिक आलस्य है, बल्कि जिम्मेदारी से भागने का भी एक साधन है। जीवन रक्षा का विज्ञान कहता है कि किसी भी भीड़ को नियंत्रित करने के लिए स्पष्ट प्रवेश और निकास मार्ग, भीड़ की गणना का वैज्ञानिक आकलन, आपातकालीन चिकित्सा व्यवस्था, और प्रशिक्षित सुरक्षा कर्मियों की अनिवार्यता। पर हमारे यहां धार्मिक आयोजनों में यह सब ‘श्रद्धा’ के आगे गौण मान लिया जाता है। आयोजक इसे भगवान की ‘कृपा’ के भरोसे छोड़ देते हैं, और प्रशासन इसे ‘भावनात्मक’ मामला समझकर कठोर कदम उठाने से बचता है। इस मानसिकता का नतीजा यह है कि हर हादसे के बाद हम वही पुराना चक्र दोहराते हैं दुख, शोक, जांच समिति, सिफारिशें, और फिर भूल। अगले आयोजन में फिर वही लापरवाही, फिर वही लापता विज्ञान, और फिर वही संभावना कि भीड़ एक बार फिर किसी का घर उजाड़ दे। हमारे संविधान के अनुच्छेद 51 – ए में वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और सुधार की भावना को नागरिक कर्तव्य के रूप में रखा गया है। परंतु धार्मिक आयोजनों में यह भावना सबसे अधिक अनुपस्थित है। यहां आस्था का अर्थ अक्सर यह मान लिया जाता है कि ईश्वर की कृपा ही व्यवस्था है, जबकि सच यह है कि व्यवस्था भी ईश्वर की कृपा का ही रूप है, क्योंकि वह जीवन बचाती है।
ऐसे में कुबरेश्वर धाम की यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम सचमुच एक ‘आध्यात्मिक समाज’ हैं, या फिर हम केवल भीड़ में शामिल होकर आध्यात्मिकता का अभिनय करते हैं। आस्था की असली परीक्षा यह नहीं है कि हम कितनी दूर जाकर दर्शन करते हैं, बल्कि यह है कि हम कितनी दूर तक अपने विवेक और अनुशासन को साथ ले जाते हैं। प्रश्न अब केवल यह नहीं है कि दो महिलाएं क्यों मरीं, या प्रशासन ने क्या किया। प्रश्न यह है कि क्या हम अपनी धार्मिक चेतना को 21वीं सदी के विज्ञान और अनुशासन के साथ जोड़ पाएंगे, या फिर हम अगले हादसे तक चुप रहकर प्रतीक्षा करेंगे, क्योंकि आस्था का सबसे बड़ा अपराध तब होता है जब वह मनुष्य की रक्षा करने में असफल हो जाती है और यह अपराध ईश्वर का नहीं, हमारा होता है।