गोपेन्द्र नाथ भट्ट
नई दिल्ली : दक्षिणी राजस्थान और गुजरात सीमा पर स्थित राजस्थान के बांसवाड़ा ज़िले की आनंदपुरीपंचायत समिति में मानगढ़ पहाड़ी पर अंग्रेजों द्वारा किये गए जलियावाला बाग हत्याकांड से भी बड़े नर संहार मेंबलिदान हुए करीब 1500 आदिवासियों की अनकही कहानी लोमहर्षक और रोमांचित करने वाली है।
आज से 109 वर्ष पहले 17 नवम्बर 1913 को वनवासियों में आध्यात्मिक और सामाजिक चेतना जागृत करनेवाले और ‘भगत आन्दोलन’ के प्रणेता गोविंद गुरु के नेतृत्व में मानगढ पर लगे मेले और पवित्र धूणी परश्रद्धान्वत हज़ारों की संख्या में एकत्रित लोगों पर अंग्रेजों ने यह बर्बर नर संहार किया था।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अमृतसर के जलियांवाला बाग कांड की खूब चर्चा होती है परन्तु मानगढ़ नरसंहार को संभवतः इसलिए भुला दिया गया, क्योंकि इसमें बलिदान होने वाले लोग निर्धन वनवासी थे।
इतिहास में हमेशा गुमनामी में डूबे इस मंजर को स्थानीय जन प्रतिनिधियों के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नेगुजरात का मुख्यमंत्री रहते और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों अशोक गहलोत और वसुन्धरा राजे ने अपने-अपनेक्षेत्र में स्मारक बनवा कर उजागर किया । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा एक नवम्बर को इस बलिदान स्थल कोअपना असली हक दिला कर राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया जा रहा है।
मानगढ़ धाम,दक्षिणी राजस्थान में बांसवाड़ा जिले का एक पहाड़ी क्षेत्र है। यहां मध्यप्रदेश और गुजरात कीसीमाएं लगती हैं। यह सारा क्षेत्र वनवासी बहुल है। मुख्यतः यहां महाराणा प्रताप की सेना में शामिल भीलजनजाति के लोग रहते हैं। बताया जाता हैं कि आजादी से पूर्व स्थानीय सामन्त, रजवाड़े तथा अंग्रेज इनकीअशिक्षा, सरलता तथा गरीबी का लाभ उठाकर इनका शोषण करते थे। तब वनवासियों में फैली कुरीतियों तथाअंध परम्पराओं को मिटाने के लिए गोविन्द गुरु के नेतृत्व में एक बड़ा सामाजिक एवं आध्यात्मिक आंदोलन शुरुहुआ था जिसे ‘भगत आन्दोलन’ कहा जाता हैं।
गोविंद गुरु ने 1890 के दशक में यह आंदोलन शुरू किया था। आंदोलन में अग्नि को प्रतीक माना गया था।अनुयायियों को अग्नि के समक्ष खड़े होकर धूनी करना होता था। उन्होने 1883 में एक ‘सम्प सभा’ की स्थापनाकी। इसके द्वारा उन्होंने शराब, मांस, चोरी, व्यभिचार आदि से दूर रहने,परिश्रम कर सादा जीवन जीने,प्रतिदिनस्नान, यज्ञ एवं कीर्तन करने,विद्यालय स्थापित कर बच्चों को पढ़ाने, अपने झगड़े पंचायत में सुलझाने, अन्याय नसहने, अंग्रेजों के पिट्ठू जागीरदारों को लगान न देने, बेगार नही करने तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करस्वदेशी का प्रयोग करने जैसे सूत्रों का गांव-गांव में प्रचार किया । कुछ ही समय में लाखों लोग उनके भक्त बनगये।
उन दिनों प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को सम्प सभा का वार्षिक मेला होता था, जिसमें लोग हवन करते हुए घी एवंनारियल की आहुति देते थे। लोग हाथ में घी के बर्तन तथा कन्धे पर अपने परम्परागत शस्त्र लेकर आते थे। मेलेमें सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं की चर्चा भी होती थी। इससे वागड़ का यह वनवासी क्षेत्र धीरे-धीरेब्रिटिश सरकार तथा स्थानीय सामन्तों के विरोध की आग में सुलगने लगा।मार्गशीर्ष पूर्णिमा 17 नवम्बर, 1913 को मानगढ़ की पहाड़ी पर वार्षिक मेला होने वाला था। इससे पूर्व गोविन्द गुरु ने शासन को पत्र द्वारा अकाल सेपीड़ित वनवासियों से खेती पर लिया जा रहा कर घटाने, धार्मिक परम्पराओं का पालन करने देने तथा बेगार केनाम पर उन्हें परेशान न करने का आग्रह किया था,पर अंग्रेजी प्रशासन ने इस खच्चरों पर तोपें और मशीनगनेलाद कर असरा पहाड़ी पर पहुँचाया तथा सम्पूर्ण पहाड़ी को घेर लिया । इसके बाद उन्होंने गोविन्द गुरु कोतुरन्त मानगढ़ पहाड़ी छोड़ने का आदेश दिया। उस समय तक वहां लाखों भगत मानगढ़ पर आ चुके थे औरअपने गुरु को आसपास घेरा बना कर खड़े हो गए। तभी ब्रिटिश सैनिकों ने कर्नल शटन के नेतृत्व में उन परगोलीवर्षा प्रारम्भ कर दी, जिससे 1,500 बेगुनाह लोग मारे गये।
अंग्रेजों की पुलिस ने गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर पहले फांसी और फिर आजीवन कारावास की सजा दी।1923 में जेल से मुक्त होकर वे भील सेवा सदन, झालोद के माध्यम से लोक सेवा के विभिन्न कार्य करते रहे।30 अक्तूबर, 1931 को ग्राम कम्बोई (गुजरात) में उनका देहान्त हुआ। आज भी प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा कोमानगढ पर बनी उनकी समाधि पर आकर लाखों लोग उन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं।
कौन थे गोविन्द गिरि ?
गोविन्द गुरु (1858-1931) का जन्म 20 दिसम्बर, 1858 को डूंगरपुर जिले के बांसिया (बेड़िया) गांव मेंगोवारिया जाति के एक बंजारा परिवार में हुआ था। बचपन से उनकी रुचि शिक्षा के साथ अध्यात्म में भी थी।उन्होने न तो किसी स्कूल-कॉलेज में शिक्षा ली और न ही किसी सैन्य संस्थान में प्रशिक्षण पाया। महर्षि दयानन्दसरस्वती की प्रेरणा से उन्होंने अपना जीवन देश, धर्म और समाज की सेवा में समर्पित कर दिया। उन्होंने अपनीगतिविधियों का केन्द्र वागड़ अंचल को बनाया और राजस्थान एवं गुजरात के आदिवासी बहुल सीमावर्ती क्षेत्रोंमें प्रभावी ढंग से ‘भगत आन्दोलन’ चलाया।
भजनों से आजादी की अलख जगाते थे गोविन्द गुरु
गोविन्द गुरु ढोल-मंजीरों की ताल और वागड़ी भाषा के अपने भजनों की स्वर लहरियों से आम जनमानस कोआजादी के लिए उद्वेलित करते थे। गोविन्द गुरू ने अपने सन्देश को लोगों तक पहुंचाने के लिए साहित्य कासृजन भी किया।
वे लोगों को कई गीत सुनाते थे। उनके मशहूर भजनों में सबसे प्रसिद्ध यह भजन आज भी लोगों के मन मस्तिक में आजादी की लड़ाई की भावनाभर देता है-
तालोद मारी थाली है, गोदरा में मारी कोड़ी है (बजाने की) भूरेटियाँ
(गौरे अंग्रेज) नई मानू नई मानूं….
अमदाबाद मारो जाजेम है ,कांकरिये मारो तंबू हे।
अंग्रेजिया नई मानू,नई मानूं…
धोलागढ़ मारो ढोल है, चितौड़ मारी सोरी (अधिकार क्षेत्र) है।आबू में मारो तोरण है, वेणेश्वर मारो मेरो (मेला)है। अंग्रेजिया नई मानू. नई मानूं….
दिल्ली में मारो कलम है, वेणेश्वर में मारो चोपड़ो (मावजी महाराज)है,
अंग्रेजिया नई मानू. नई मानूं……
हरि ना शरणा में गुरु गोविंद बोल्या
जांबू (देश) में जामलो (जनसमूह) जागे है, अंग्रेजिया नई मानू. नई मानूं।…..
गोविंद गुरू अंग्रेजों की नीतियों को खूब समझते थे और उन्हें वे ‘भूरिया’ (गोरा रंग वाले अंग्रेज )कहते थे । वे इसबारे में लोगों यह गीत गाकर बताते थे–
दिल्ली रे दक्कण नू भूरिया, आवे है महराज।बाड़े घुडिले भूरिया आवे है महराज।।*
साईं रे भूरिया आवे है महराज।
डांटा रे टोपीनु भूरिया आवे हैं महराज।।
मगरे झंडो नेके आवे है महराज।
नवो-नवो कानून काढे है महराज।।
दुनियाँ के लेके लिए आवे है महराज।
जमीं नु लेके लिए है महराज।।
दुनियाँ नु राजते करे है महराज।
दिल्ली ने वारु बास्सा वाजे है महराजI
भूरिया जातू रे थारे देश।
भूरिया ते मारा देश नू राज है महराज।।
उनके लोकप्रिय इस भजन में गोविन्द गुरू अंग्रेजों से देश की जमीन का हिसाब मांग रहे हैं और बता रहे हैं कियह सारा देश हमारा है। हम लड़कर अपनी माटी को अंग्रेजों से मुक्त करा लेंगे।
इस भजन को “राजा है महराज” जैसे टेक के साथ समूह गीत की तरह गाया जाता था। कहने को तो यह एकभजन है परन्तु यह भजन कम, राजनीतिक व्यंग ज्यादा था, जिसे स्कूल के मास्टर की तरह गोविंद गुरू सभी कोरटाते थे। खास बात यह थी कि वे आदिवासी भाई बहनों में व्यापक एकता चाहते थे और इस कारण ही वे अपनेभजनों में आँचलिक वागड़ी (राजस्थानी भाषा) का उपयोग करते थे।
राजस्थान और गुजरात के सीमावर्ती आदिवासी अंचल में उनके मशहूर भजनों की गूँज आज भी सुनाई देतीं हैं।
आज क्रांतिकारी संत गोविंद गुरु के परिवार की छठी और सातवीं पीढ़ी उनकी विरासत को संभाले हुए है और मगरियों (पहाड़ियों) पर रहकर गुरु के उपदेशों को जीवन में उतारने का संकल्प प्रचारित कर रहीं हैं।