प्रो. नीलम महाजन सिंह
ईद-ए-ज़ेहरा औऱ ईद-ए-मिलान, की सभी को तहे दिल से मुबारकबाद। पिछले कुछ महीनों में ‘इमाम हुसैन की शहादत’ की कहानी सत्य और मानवता के लिए आत्म बलिदान की गाथा का व्याख्यान किया गया। इमाम हुसैन पैगंबर मुहम्मद के दोते व इमाम अली और हज़रत फ़ातिमा (पैगंबर साहब की बेटी) के बेटे हैं। पैगंबर मुहम्मद ने इमाम हुसैन को दिव्य शक्तियों का श्रेय दिया। हालाँकि पचास साल बाद, भ्रष्ट तानाशाह यज़ीद का साथ देने से इनकार करने पर उनकी बेरहमी से हत्या कर दी गई। अबू सुफ़ियान के बेटे मुआविया की मृत्यु के बाद, उनके बेटे ‘हुर्र-इब्न-यज़ीद’ खलीफ़ा बने। इमाम हुसैन के बलिदानों को श्रद्धांजलि देने के लिए दुनिया के हर हिस्से में ‘हुसैन दिवस’ मनाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इमाम अली, इराक और ईरान के रास्ते से बलूचिस्तान पहुँचने की योजना बना रहे थे। भारतीय मुसलमान मुहर्रम के महीने से शुरू होकर, दो महीने और आठ दिनों तक मुहर्रम मनाते हैं, जबकि अन्य देशों में एक महीने तक शोक मनाते हैं। मुहर्रम के दौरान कोई उत्सव, समारोह, विवाह आदि नहीं होते हैं। मुस्लिम महिलाएं आभूषण नहीं पहनती हैं व सादगी से कपड़े पहनतीं हैं। वास्तव में इमाम हुसैन को खिलाफत से वंचित करना, उस युद्धविराम समझौते की शर्तों के बिल्कुल विपरीत था, जिस पर ‘मुआविया ने इमाम हुसैन के साथ हस्ताक्षर किए थे।’ हुर्र-इब्न-यजीद सत्ता में आया और ‘युद्धविराम के अनुच्छेदों को तोड़ दिया गया’। यज़ीद ने अपने शासन के लिए समर्थन और वैधता प्राप्त करने के लिए इमाम हुसैन से वफ़ादारी की मांग करना शुरू कर दी। इमाम हुसैन ने हुर्र-इब्न-यजीद के प्रति अपनी वफ़ादारी देने से इनकार किया। मदीना में रहना इमाम हुसैन के जीवन के लिए ख़तरनाक था और उनके पास अपने परिवार के साथ शहर छोड़कर मक्का जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। जब वे मक्का पहुँचे, तो इमाम हुसैन से ‘कूफ़ा’ के निवासियों ने आग्रह किया कि इमाम हुसैन उनके शहर में आएँ ताकि वे यज़ीद को हराने में उनकी सहायता कर सकें। इमाम हुसैन व उनके साथियों के बीच काफ़ी विचार-विमर्श हुआ, हालाँकि मक्का के सबसे वरिष्ठ लोगों ने इमाम हुसैन से ‘कूफ़ा’ की यात्रा छोड़ने को कहा। इमाम हुसैन ने अपने ज्ञान और बुद्धिमता के साथ यह माना कि कूफ़ा की ओर बढ़ना ज़रूरी है, क्योंकि कई लोगों ने उन्हें पत्र लिखकर उनकी उपस्थिति का अनुरोध किया था। इससे पहले इमाम हुसैन ने अपने चचेरे भाई मुस्लिम-बिन-अकील को भी कूफ़ा में ज़मीनी स्थिति का आंकलन करने के लिए भेजा था। कूफ़ा की थकाऊ यात्रा के दौरान, इमाम हुसैन जबाला में रुके, जहाँ उन्हें कूफ़ा में हो रही घटनाओं के बारे में जानकारी दी गई। यज़द के खेमे के उबैदुल्लाह-इब्न-जियाद ने इमाम हुसैन के वफादारों में आतंक फैला दिया। यज़़ीद ने मुस्लिम-बिन-अकील को गिरफ्तार कर, उन्हें मार डाला। इमाम हुसैन के कई समर्थक सदमे में आतंकित थे, जिन्होंने अंततः इमाम हुसैन के अनुरोध पर अपने कदम वापिस ले लिए। इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर, नई दिल्ली ने ‘इमाम हुसैन – कर्बला और इस्लाम’ पर एक स्मरण आयोजित किया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के शिया धर्मशास्त्र विभाग के अध्यक्ष डॉ. एस. एम. असगर, एएमयू के धर्मशास्त्र संकाय के डीन प्रो. तौकीर आलम व मौलाना अतहर काज़मी ने समग्र-भरे ऑडिटोरियम में इमाम हुसैन को अपनी श्रद्धांजलि दी। कार्यक्रम की निज़ामत सलीम अमरोही ने की। मोहतरम सलमान खुर्शीद, अध्यक्ष, फुरकान अहमद व कमर अहमद, आईपीएस, दिल्ली पुलिस के पूर्व विशेष आयुक्त, आईआईसीसी के निदेशक मंडल (Board of Trustees) के सदस्य हैं। उन्होंने इमाम हुसैन को उनकी शहादत के लिए धन्यवाद देने की इस आध्यात्मिक शाम का आयोजन किया।आईआईसीसीआई के पूर्व अध्यक्ष और निदेशक मंडल के सदस्य मोहतरम सिराजुद्दीन कुरैशी ने इमाम हुसैन को श्रद्धांजलि अर्पित की। हुर्र-इब्न-यज़ीद ने इमाम हुसैन को शहर में प्रवेश करने से रोक दिया और उन्हें मदीना वापस लौटने की भी अनुमति नहीं दी। उनकी बटालियन ने इमाम हुसैन, उनके अनुयायियों व परिवार के सदस्यों के छोटे समूह को ‘कर्बला’ की सुनसान और बंजर भूमि की ओर बढ़ने के लिए मज़बूर किया, जहां वे मुहर्रम 61 हिजरी के दूसरे दिन पहुंचे। एक बार जब इमाम हुसैन कर्बला पहुंचे, इब्न ज़ियाद ने इमाम हुसैन का सामना करने के लिए उमर इब्न साद के नेतृत्व में सैनिकों की एक बड़ी रेजिमेंट भेजी। मुहर्रम के 7वें दिन तक कुछ दिनों तक विचार-विमर्श और आदान-प्रदान हुआ। उमर इब्न साद की सेना ने इमाम हुसैन और उनके परिवार को पीने के पानी के लिए नदी तक पहुंच को अवरुद्ध कर दिया। इमाम हुसैन ने एक दमनकारी तानाशाह के प्रति निष्ठा देने के इस अपमान की तुलना में ‘शहादत को चुना’। एक व्यापक युद्ध शुरू हुआ व इमाम हुसैन ने सामाजिक न्याय और निस्वार्थ नेतृत्व की आवश्यकता की वकालत की। कर्बला की लड़ाई (अरबी: مَعْرَكَة كَرْبَلَاء, रोमानीकृत: maʿraka Karbalāʾ) 10 अक्टूबर 680 (इस्लामी कैलेंडर के वर्ष 61 एएच में 10 मुहर्रम) को दूसरे उमय्यद खलीफा यजीद I (आर. 680-683) की सेना व हुसैन इब्न अली के नेतृत्व वाली एक छोटी सेना के बीच कर्बला, सवाद (आधुनिक दक्षिणी इराक) में लड़ी गई थी। इमाम हुसैन के कई परिवार के सदस्यों को बंदी बना लिया गया व उनके साथ बुरा व्यवहार किया गया। अपनी मृत्यु से पहले, उमय्यद खलीफा मुआविया (आर. 661-680) ने अपने बेटे यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी नामित किया था। 680 में मुआविया की मृत्यु के बाद, हुर्र-इब्न-यजीद ने हुसैन और अन्य असंतुष्टों से वफ़ादारी की मांग की। यह लड़ाई दूसरे फ़ित्ना की शुरुआत थी, जिसके दौरान इराकियों ने हुसैन की मौत का बदला लेने के लिए दो अलग-अलग अभियान आयोजित किए; पहला तवाबिन द्वारा और दूसरा मुख्तार अल-थकाफ़ी और उनके समर्थकों द्वारा। कर्बला की लड़ाई ने अलीद समर्थक पार्टी (शिया अली) के विकास को अपने स्वयं के अनुष्ठानों और सामूहिक स्मृति के साथ एक अलग धार्मिक संप्रदाय में बदल दिया। शिया इतिहास, परंपरा और धर्मशास्त्र में इसका एक केंद्रीय स्थान है, और शिया साहित्य में अक्सर इसका वर्णन किया गया है।शियाओं के लिए, हुसैन की पीड़ा और मृत्यु गलत के खिलाफ सही के संघर्ष में, तथा अन्याय और झूठ के खिलाफ न्याय और सत्य के संघर्ष में बलिदान का प्रतीक बन गई। सुन्नी मुसलमान भी इस घटना को एक ऐतिहासिक त्रासदी मानते हैं। इमाम हुसैन और उनके साथियों को सुन्नी और शिया दोनों मुसलमान व्यापक रूप से शहीद मानते हैं। नागर मुसलमान भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में पाया जाने वाला मुस्लिम समुदाय है। वे बड़े नागर ब्राह्मण समुदाय से मुस्लिम धर्मांतरित हैं। नागर को नागर शेख के रूप में भी जाना जाता है। हुसैनी ब्राह्मण पंजाब क्षेत्र के सारस्वत मोहयाल ब्राह्मण समुदाय का एक छोटा सा गुट है। मोहयाल समुदाय में बाली, भीमवाल, छिब्बर, दत्त, लाउ, मोहन और वैद नामक सात उप-गोत्र शामिल हैं। अपनी हिंदू परंपरा के अनुरूप, उन्होंने कुछ गैर-भारतीय परंपराओं को अपनाया है एक अन्य परंपरा के अनुसार,हुर्र-इब्न-यज़ीद की सेना इमाम हुसैन का सिर अपने पूर्वजों के घर सियालकोट ले आई थी। उनके सिर के बदले में, पूर्वजों ने अपने बेटों के सिर का आदान-प्रदान किया। प्रसिद्ध हुसैनी ब्राह्मणों में उर्दू लेखक कश्मीरी लाल जाकिर, साबिर दत्त और नंद किशोर विक्रम, सुनील दत्त आदि शामिल हैं। सुन्नी और शिया दोनों मुसलमान मुहर्रम मनाते हैं, जिसे 680 ई. में कर्बला की लड़ाई में पैगंबर मुहम्मद के पोते की शहादत के रूप में याद किया जाता है। इस वर्ष आशूरा 16 जुलाई, 2024 की शाम से शुरू हुआ 12 सितंबर तक रहा। इमामों को कर्बला, नजफ़ व मशहद में दफनाया गया था। इन पवित्र स्थानों पर न केवल सुन्नी जाते हैं बल्कि सभी धर्मों के अनुयायियों को इन तीर्थस्थलों पर जाने की अनुमति है। वहाबी इस्लाम शुद्धिकरण की वकालत करता है, पैगंबर मुहम्मद की मृत्यु के बाद विकसित इस्लामी धर्मशास्त्र व दर्शन को खारिज करता है, और कुरान व हदीस के अक्षर, पवित्र पैगंबर के दर्ज उद्धरण और प्रथाओं का सख्ती से पालन करने का आह्वान करता है। वे मुहर्रम का पालन नहीं करते हैं। सारांशाार्थ मुस्लिम, इस्लामिक देशों के हर शहर और यहां तक कि भारत के हर शहर में भी एक ‘कर्बला’ बनाया गया है। ये आध्यात्मिक केंद्र कर्बला की लड़ाई की यादगार हैं। कर्बला का पवित्र शहर मध्य इराक में, बगदाद से लगभग 62 मील दक्षिण-पश्चिम में है। यह मिल्ह झील के पास स्थित है, जिसे ‘रज्जा झील’ के नाम से जाना जाता है। मुहर्रम के इस्लामी महीने के दौरान, आज के विभाजित, सामाजिक ध्रुवीकरण के समय में, इमाम हुसैन की शहादत हमें पांच महत्वपूर्ण सबक सिखाती है, बलिदान का महत्व, विश्वास की शक्ति, समुदाय के लिए मूल्यों को बनाए रखने का सार, धैर्य और दृढ़ता का मूल्य। ये मानवतावाद के मार्गदर्शक प्रकाश स्तंभ हैं।
(वरिष्ठ पत्रकार, लेखिका, स्तंभकार, मानवाधिकार संरक्षण के लिए सॉलिसिटर और परोपकारी)