नवीन गौतम
पर्यावरण की रक्षा पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है। मगर दुर्भाग्य से आजकल पर्यावरण संरक्षण की चिंता एक फैशन या कुछ निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा अपना एजेंडा पूर्ण करने का औजार बन गया है। हर जगह इसकी चर्चा आम है। गांव देहात की चौपाल से लेकर शहरों के पार्क तक में इसकी धमक सुनाई दे रही है। मगर क्या हम सच मे पर्यावरण संरक्षण चाहते हैं ? इसके लिए हमें प्रदूषण के मूल कारण को समझना होगा। भारतीय संस्कृति में प्रकृति का आधिपत्य स्वीकारते हुए प्रकृति से अपनी आवश्यकता के अनुसार लेकर शेष को भविष्य की पीढ़ी के लिए संजोने की परम्परा रही है। वृक्ष, पर्वत और नदियों इत्यादि को पूजनीय मानकर उनकी मर्यादा और पवित्रता बनाये रखने को धर्म पालन से जोड़ा गया। कृषि सहित सभी क्षेत्रों में उत्पादन – उपभोग को संयमित रखने पर जोर दिया गया। गौ आधारित कृषि को बढ़ावा देने के लिए गौ को माता का दर्जा दिया गया।
भवन निर्माण से सम्बंधित वास्तु शास्त्र में प्रकृति के अनुरूप भवन निर्माणकला में अधिकतम प्रयास से कृत्रिमता से अलग रहा गया। ये भवन प्रत्येक ऋतु में अनुकूलन को ध्यान में रखकर बनाये गए। इन भवनों में अनुकूलन के लिए किसी बाह्य प्रयास की आवश्यकता न्यूनतम होती थी। दक्षिण और पूर्व भारत मे प्राचीन काल मे बने मन्दिर और राजस्थान के प्राचीन महल इसका जीवन्त प्रमाण हैं। मगर पिछले कुछ दशकों में दिल्ली में जमीनी स्तर पर क्या हुआ है ? 1947 के बाद से ही देश और दिल्ली के प्रशासन ने दिल्ली के व्यवस्थित विकास के लिए कोई योजना नही बनाई। पुराने लोग आज भी इतिहास के पन्ने पलटते हुए ठीक ही तो कह रहे हैं कि 1967 से पहले तक दिल्ली में कोई व्यवस्थित औद्योगिक क्षेत्र भी नही था। 1980 के बाद तो सरकारी जमीनों पर कब्जा करके 5 फुट की गलियों में 15 मीटर के घर वाली बस्तियां बसाने वाले ठेकेदार पैदा हो गए, जो बाद में विधायक, सांसद और मंत्री तक बन गए। यमुना को गन्दे नाले में बदल दिया गया। गांव के जोहड़ों पर कब्जा करके बड़े बड़े शोरूम बनाने वाले और स्वच्छ पानी वाली जीवन दायनी नहरों को गन्दे नालों में बदलने वाले दिल्ली की सत्ता के शिरमौर हो गए। सामान्य जन को गन्दी बस्तियों में बसने को बाध्य करने वाले नेता और अधिकारी स्वंयम पॉश बस्तियों के प्रदूषण मुक्त हरियाली युक्त अतिविशिष्ट बस्तियों के निवासी हो गए। देश भर से मूल भूत सुविधाओं तक से दूर सामान्य जन रोजगार की तलाश में दिल्ली आये लोगों ने यत्र तत्र उद्योग लगा लिए। इन सबके संरक्षण के लिए कई जाने माने “मैं हूँ ना” सदैव उपलब्ध रहे।
रेलवे लाइनों के किनारे तक झुग्गियां डलवा दीं गईं। दिल्ली की सफाई व्यवस्था के दायित्व वाले दिल्ली नगर निगम और रखरखाव के लिए जिम्मेदार अन्य एजेंसियों के नाकारापन ने दिल्ली को कूड़े का ढेर बना दिया।
और दिल्ली अब एक प्रदूषित शहर बन गया। अब एक नया खेल शुरू हो गया।
दिल्ली को प्रदूषित करने में अपनी भूमिका निभाने वाली सभी एजेंसियां प्रदूषण मुक्त करने को तत्पर हो गईं हैं।
पूर्णतया एयर कंडिशन्ड में बैठकर अंतरिक्ष की ओज़ोन परत को सुरक्षित बना रहे माननीयों ने अब दिल्ली की प्रदूषण मुक्ति का आदेश दे दिया है। एक सर्वशक्तिमान टीम गठित हो गई है। सभी स्थानीय निकाय मोनिटरिंग कमेटी के निर्देशन में दिल्ली को प्रदूषण मुक्त करने को कमर कस चुके हैं।
मगर कैसे —-?
दिल्ली को बर्बाद करने वालों की कोई जिमेदारी फिक्स किये बिना, प्रशासन का अंग रहे किसी को भी दंडित किये बिना सहज शिकार छोटे छोटे उद्यमी/कारोबारी निशाने पर हैं। कूड़े के ढेर कौन हटाएगा, हटाकर कहाँ डालेगा, ये तय नही है, पर दिल्ली साफ होगी, ये तय कर लिया गया है। सीवेज सिस्टम पूरी दिल्ली में कितना है, कितनी शोधन क्षमता है, इस पर कोई जिम्मेदारी तय नही है। मगर गंदा पानी सामान्य जन के परिसर से निकला, तो लटका देंगे,ये तय हो गया है। देश को मेक इन इंडिया के माध्यम से आत्म निर्भर बनाना है। मगर उद्योगों को चलने नही देंगे। उद्योगों से राजस्व निरन्तर मिलता रहे, लेकिन उनकी स्थिति समझना प्रशासन की प्राथमिकता में नही है।
वोट और नोट बैंक कितना ही मल मूत्र यमुना में सीधे बहाये। मगर यमुना को साफ रखने का दायित्व सामान्य जन का है। दिल्ली में आ रहे प्रत्येक वाहन से दिल्ली में आने का प्रदूषण कर लिया जाए। मगर उस बड़ी राशि से क्या हुआ,ये किसी को ना बताया जाए। कब तक चलेगा ऐसा ?
पत्तों को पानी से नहलाकर वृक्ष की रक्षा का पाखण्ड कब तक किया जाएगा ? जड़ों पर ध्यान देना आरम्भ कीजिये।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं)