मनरेगा से ‘वीबी–जी राम जी’

MNREGA to ‘VB-Ji Ram Ji’

भारतीय लोकतंत्र में कुछ कानून केवल विधायी दस्तावेज़ नहीं होते,बल्कि वे सामाजिक अनुबंध का रूप ले लेते हैं।महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, यानी मनरेगा,ऐसा ही एक कानून था।वर्ष 2005 में पारित इस अधिनियम ने पहली बार ग्रामीण भारत के नागरिकों को काम का कानूनी अधिकार दिया।अब,ठीक बीस वर्ष बाद,लोकसभा में भारी विरोध,हंगामे और विपक्षी प्रदर्शन के बीच ‘विकसित भारत गारंटी फॉर रोज़गार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण)’संक्षेप में ‘वीबी–जी राम जी’विधेयक संसद से पारित हो चुका है।

विनोद कुमार सिंह

संसद के शीतकालीन सत्र में सता पक्ष व विपक्ष ना केवल नोक – झोक चली बल्कि लोकतंत्र मंदिर एक बार रणक्षेत्र में बदल गया।संसद के वर्तमान शीतकालीन सत्र में जनता के हितो पर राष्ट्र निर्माण व विकाश के मुद्दे पर बहस होनी थी,वहाँ मोदी सरकार अपने कई विधयेक ‘ संसोधन बिल को विपक्ष को दर किनार कर शोर गुल में पास किया है। इन विधयेक में मनरेगा बिल में संशोधन फिर इसे अधिकार से मिशन में स्थानांतरित किया गया है। जिस मनरेगा से ‘वीबी–जी राम जी’ और ग्रामीण भारत के भविष्य पर मंडराता कई सवाल खड़े हो गए है।

भारतीय लोकतंत्र में कुछ कानून केवल विधायी दस्तावेज़ नहीं होते, बल्कि वे सामाजिक अनुबंध का रूप ले लेते हैं।महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, यानी मनरेगा,ऐसा ही एक कानून था।वर्ष 2005 में पारित इस अधिनियम ने पहली बार ग्रामीण भारत के नागरिकों को काम का कानूनी अधिकार दिया।अब, ठीक बीस वर्ष बाद,लोकसभा में भारी विरोध,हंगामे और विपक्षी प्रदर्शन के बीच ‘विकसित भारत गारंटी फॉर रोज़गार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण)’—संक्षेप में ‘वीबी–जी राम जी’—विधेयक संसद से पारित हो चुका है। केन्द्र की सरकार इसे सुधार और विस्तार बता रही है,जबकि विपक्ष और नागरिक समाज इसे अधिकारों के क्षरण के रूप में देख रहे हैं।इस बहस को समझने के लिए भावनाओं से अधिक ज़रूरी है— डाट,विलेषण व प्रभाव।

मनरेगा लागू होने के बाद से लेकर अब तक,यह योजना ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन चुकी थी। ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार,पिछले दो दशकों में मनरेगा के तहत हर वर्ष औसतन 5 से 6 करोड़ परिवारों को रोज़गार मिला। सन 2013–14 से 2022–23 के बीच,हर साल औसतन 250 से 300 करोड़ मानव-दिवस का सृजन हुआ। कोविड-19 महामारी के दौरान,वर्ष 2020–21 में यह आंकड़ा रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचा,जब लगभग 389 करोड़ मानव-दिवस का सृजन हुआ और करीब 7.6 करोड़ परिवारों ने इस योजना के तहत काम पाया। यह केवल एक संख्या नहीं थी,बल्कि उस समय करोड़ों परिवारों के लिए जीवनरेखा थी,जब शहरों से लौटे प्रवासी मजदूरों के पास कोई विकल्प नहीं था।मनरेगा का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह था कि यह योजना नहीं, बल्कि कानून था।यदि किसी ग्रामीण परिवार को 15 दिनों के भीतर काम नहीं मिलता था,तो राज्य सरकार को बेरोजगारी भत्ता देना पड़ता था।

नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की विभिन्न रिपोर्टों में यह स्पष्ट किया गया है कि इस कानूनी बाध्यता के कारण ही राज्यों और केंद्र पर काम उपलब्ध कराने का दबाव बना रहा।यही वजह थी कि 2006 से 2023 के बीच मनरेगा पर केंद्र सरकार ने कुल मिलाकर लगभग 10 लाख करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए।केवल 2023–24 के बजट में ही मनरेगा के लिए लगभग 60,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था।अब सरकार जिस नए कानून को लाई है,वह इस अधिकार-आधारित ढांचे को मिशन आधारित स्वरूप में बदल देता है।‘वीबी–जी राम जी’ विधेयक में यह दावा किया गया है कि ग्रामीण परिवारों को साल में 125 दिन तक रोज़गार मिलेगा,जो मनरेगा के 100 दिन की तुलना में अधिक है।लेकिन यहां सवाल संख्या का नहीं, गारंटी का है।मनरेगा में 100 दिन का रोजगार कानूनी अधिकार था,जबकि नए कानून में 125 दिन प्रशासनिक विवेक पर निर्भर होंगे।अर्थशास्त्रियों का कहना है कि जब रोजगार की गारंटी कानून से हटकर मिशन बन जाती है,तो उसका क्रियान्वयन बजट, प्राथमिकता और राजनीतिक इच्छा पर निर्भर हो जाता है।

सरकारी दस्तावेज़ों के अनुसार,नए विधेयक में केंद्र सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि वह यह तय करे कि किन क्षेत्रों में काम होगा, किस तरह के काम होंगे और किन परिस्थितियों में योजना को अस्थायी रूप से रोका जा सकता है।इसमें साल में दो महीने तक काम रोके जाने का प्रावधान भी शामिल है। मनरेगा के तहत ऐसा कोई प्रावधान नहीं था।वर्ष 2018 से 2022 के बीच,मनरेगा के तहत काम की मांग और उपलब्धता के आंकड़ों से स्पष्ट है कि कई राज्यों में पहले ही मांग के मुकाबले काम कम मिला।उदाहरण के लिए, 2021–22 में लगभग 8 करोड़ परिवारों ने काम की मांग की, लेकिन औसतन केवल 52–55 दिन का ही काम उपलब्ध हो सका। आलोचकों का तर्क है कि जब मौजूदा व्यवस्था में ही 100 दिन का लक्ष्य पूरा नहीं हो पा रहा था,तो बिना कानूनी बाध्यता के 125 दिन कैसे सुनिश्चित होंगे।मनरेगा का सामाजिक प्रभाव केवल रोजगार तक सीमित नहीं था।सरकारी आंकड़ों के अनुसार,मनरेगा के तहत काम करने वालों में लगभग 56 प्रतिशत महिलाएं थीं।यह भारत की सबसे बड़ी महिला-भागीदारी वाली योजना थी।इसके अलावा, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की भागीदारी क्रमशः लगभग 20 प्रतिशत और 18 प्रतिशत रही।कई अध्ययनों में यह पाया गया कि मनरेगा ने ग्रामीण मजदूरी दरों को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।भारतीय रिज़र्व बैंक और विभिन्न विश्वविद्यालयों के शोध बताते हैं कि जिन जिलों में मनरेगा का प्रभावी क्रियान्वयन हुआ,वहां कृषि मजदूरी में 8 से 12 प्रतिशत तक की वृद्धि दर्ज की गई।नए ‘वीबी–जी राम जी’ कानून को लेकर आशंका यह जताई जा रही है कि लक्षित लाभार्थी मॉडल अपनाने से महिला, दलित और आदिवासी भागीदारी घट सकती है।मनरेगा में स्व-चयन का सिद्धांत था—जो भी काम चाहता था,उसे काम मिलता था। नए मिशन में लाभार्थियों का चयन प्रशासनिक मानदंडों पर आधारित होगा।सामाजिक संगठनों का कहना है कि इससे सबसे हाशिये पर खड़े लोग छूट सकते हैं।

अर्थशास्त्रियों ने इसके व्यापक आर्थिक प्रभावों की ओर भी ध्यान दिलाया है।मनरेगा पर किया गया खर्च सीधे ग्रामीण मांग को बढ़ाता था। वर्ष 2020–21 में,जब मनरेगा पर खर्च बढ़ाया गया,तब ग्रामीण खपत में गिरावट अपेक्षाकृत कम रही।राष्ट्रीय नमूना सर्वे और उपभोक्ता व्यय के आंकड़ों से संकेत मिलता है कि मनरेगा आय ने खाद्य सुरक्षा और बुनियादी उपभोग को बनाए रखने में मदद की।जयति घोष के अनुसार, यदि मनरेगा जैसे अधिकार-आधारित कानून को कमजोर किया जाता है,तो कुल मांग में गिरावट आएगी, जिसका असर उद्योग और सेवाओं तक पहुंचेगा।संसद के बाहर विरोध केवल राजनीतिक नहीं,बल्कि वैचारिक भी है।दिल्ली के प्रेस क्लब में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में ज्यां द्रेज ने कहा कि मनरेगा ‘जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा बनाया गया कानून’ था।उन्होंने याद दिलाया कि 2005 से पहले ग्रामीण भारत में रोजगार गारंटी की कोई अवधारणा नहीं थी। आज यह कानून न केवल भारत, बल्कि वैश्विक सामाजिक नीति के क्षेत्र में एक संदर्भ बिंदु बन चुका है। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की कई रिपोर्टों में मनरेगा को सामाजिक सुरक्षा का अभिनव मॉडल बताया गया है।विपक्षी दलों का तर्क है कि नए कानून से संघीय ढांचे पर भी असर पड़ेगा।मनरेगा में ग्राम पंचायत की केंद्रीय भूमिका थी। कार्यों की योजना स्थानीय स्तर पर बनती थी।सरकारी आंकड़ों के अनुसार,मनरेगा के तहत 60 प्रतिशत से अधिक कार्य जल संरक्षण,सिंचाई और ग्रामीण परिसंपत्तियों से जुड़े थे,जिनका सीधा लाभ स्थानीय समुदाय को मिला।नए कानून में केंद्रीय नियंत्रण बढ़ने से स्थानीय जरूरतों की अनदेखी होने का खतरा जताया जा रहा है।मनरेगा संघर्ष मोर्चा और अन्य नागरिक संगठनों ने 19 दिसंबर से राष्ट्रव्यापी आंदोलन की घोषणा की है।उनका कहना है कि यह लड़ाई केवल एक योजना की नहीं,बल्कि संविधान के उस विचार की है, जिसमें राज्य नागरिकों को अधिकार देता है,न कि दया।

यदि आंकड़ों के आईने में देखा जाए, तो स्पष्ट है कि मनरेगा केवल खर्च नहीं,बल्कि निवेश था।ग्रामीण विकास मंत्रालय के आकलन के अनुसार,मनरेगा के तहत बने जल संरक्षण और सिंचाई ढांचे से कृषि उत्पादकता में 10 से 15 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई।कई राज्यों में सूखे की तीव्रता कम करने में इस योजना की अहम भूमिका रही।नए कानून में इस तरह के दीर्घकालिक परिसंपत्ति निर्माण पर कितना जोर होगा,यह अभी स्पष्ट नहीं है।

अंततः सवाल यही है कि भारत किस दिशा में जाना चाहता है।क्या वह अधिकार-आधारित सामाजिक सुरक्षा को मजबूत करेगा,या उसे मिशन और लक्ष्य आधारित योजनाओं में बदल देगा।‘वीबी–जी राम जी’ विधेयक का पारित होना इस बहस का अंत नहीं, बल्कि शुरुआत है।आने वाले समय में इसका वास्तविक प्रभाव आंकड़ों में दिखाई देगा—कितने परिवारों को काम मिला,कितने दिन मिला,और किस कीमत पर।लेकिन फिलहाल, मनरेगा से ‘वीबी–जी राम जी’ तक की यह यात्रा ग्रामीण भारत के भविष्य पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगा देती है।