मोबाइल की लत और विड्रॉल सिंड्रोम: बच्चों को दे रही तनाव की सौगात

Mobile addiction and withdrawal syndrome: Giving stress to children

मोबाइल की बढ़ती लत ने बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। विड्रॉल सिंड्रोम के तहत बच्चे मोबाइल से दूर होने पर गुस्सा, चिड़चिड़ापन, नींद की कमी, और सामाजिक दूरी जैसे लक्षण दिखाते हैं। यह समस्या अब चिकित्सा स्तर पर सामने आने लगी है। इसका समाधान है — डिजिटल अनुशासन, आउटडोर गतिविधियां, कहानी वाचन और अभिभावकों की सक्रिय भागीदारी। यदि समय रहते ध्यान न दिया गया, तो हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे होंगे जो तकनीक में तो माहिर होगी, लेकिन भावनात्मक रूप से खोखली होगी।

डॉ सत्यवान सौरभ

“बच्चों के हाथों में किताब की जगह अगर स्क्रीन आ जाए, तो बचपन का उजाला नीली रौशनी में डूब जाता है।” आजकल एक नया दृश्य आम हो गया है—खिलौनों से नहीं, मोबाइल से खेलते बच्चे। ना गर्मी की छुट्टियों में पेड़ों के नीचे लुका-छिपी, ना छत पर पतंगबाज़ी, ना ही गलियों में साइकिल रेस। इसके बदले, आंखों पर चश्मा, मन में चिड़चिड़ापन और हर समय मोबाइल स्क्रीन से चिपकी उंगलियां। यह दृश्य मात्र “विकास” नहीं बल्कि “विकृति” का संकेत है।

क्या है विड्रॉल सिंड्रोम?

जब कोई बच्चा मोबाइल या टैबलेट के अत्यधिक उपयोग का आदी हो जाता है और अचानक उससे वंचित कर दिया जाता है, तो वह बेचैनी, गुस्सा, हताशा, नींद की कमी, सिरदर्द, भूख न लगना, या रोने-चिल्लाने जैसी प्रतिक्रियाएं देने लगता है। इसे “विड्रॉल सिंड्रोम” कहा जाता है। यह लक्षण किसी नशे की लत छुड़ाने पर आने वाले लक्षणों से मिलते-जुलते हैं। डॉक्टरों के अनुसार, हर अस्पताल में अब हर हफ्ते ऐसे 4–5 मामले सामने आ रहे हैं जहां छोटे-छोटे बच्चे मोबाइल न मिलने पर हिंसक व्यवहार कर रहे है।

मोबाइल की बढ़ती लत: आंकड़े और वास्तविकता

भारत में 5 साल से ऊपर के 70% बच्चे किसी न किसी रूप में स्मार्टफोन या टैबलेट से जुड़े हुए हैं। WHO (विश्व स्वास्थ्य संगठन) के अनुसार, 5 साल से कम उम्र के बच्चों को स्क्रीन टाइम 1 घंटे से अधिक नहीं होना चाहिए। भारत में यह औसतन 3 से 5 घंटे प्रतिदिन है। NCERT की रिपोर्ट के अनुसार, 2024 में 6वीं से 10वीं कक्षा के 67% छात्रों ने माना कि वे मोबाइल पर गेम्स या सोशल मीडिया के आदी हो चुके हैं।

मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव

मोबाइल पर तेज़ दृश्य और ध्वनि से बच्चे वास्तविक जीवन की धीमी गति को बोरियत समझने लगते हैं।
आक्रामकता: गेम्स और वीडियो में दिखाए गए हिंसक तत्व बच्चों के व्यवहार में चिड़चिड़ापन और हिंसा को बढ़ाते हैं।
नींद की समस्या: देर रात तक स्क्रीन देखने से मेलाटोनिन हार्मोन का स्तर घटता है, जिससे नींद की गुणवत्ता प्रभावित होती है। भाषा और सामाजिक कौशल में कमी: मोबाइल के कारण संवादात्मक गतिविधियाँ घटती हैं, जिससे भाषा विकास और सामाजिक व्यवहार बाधित होता है।

अभिभावकों की भूमिका

बच्चे खुद से मोबाइल नहीं मांगते, यह आदत उन्हें अभिभावकों द्वारा दी जाती है—खिलाने के लिए, चुप कराने के लिए, या खुद के समय बचाने के लिए। यह सुविधा धीरे-धीरे लत में बदल जाती है। माता-पिता अपने बच्चों को मोबाइल देने से पहले खुद का उपयोग देखें। हर बार खाना खाते समय मोबाइल देना एक खतरनाक आदत बन जाती है। अभिभावकों का कहना होता है कि “हमारे पास समय नहीं है”, मगर यह वक्त उनके मानसिक विकास की कीमत पर बचाया गया समय होता है।

स्कूल और समाज की ज़िम्मेदारी

विद्यालयों को टेक्नोलॉजी के संतुलित उपयोग पर स्पष्ट नीति बनानी चाहिए। बच्चों के पाठ्यक्रम में मानसिक स्वास्थ्य, डिजिटल व्यवहार और आउटडोर गतिविधियों को अनिवार्य करना चाहिए। स्कूल काउंसलिंग को सक्रिय किया जाए जो बच्चों में डिजिटल लत के शुरुआती संकेतों को पहचान सके।

समाधान क्या हो सकता है?

डिजिटल डिटॉक्स समय तय करें। घर में रोज़ एक समय तय करें जब सभी सदस्य मोबाइल दूर रखें, जैसे रात का खाना, सुबह की चाय आदि। आउटडोर गतिविधियों को बढ़ावा दें।

बच्चों को पार्क, खेल, गार्डनिंग जैसी गतिविधियों से जोड़ें। यह उनका ध्यान हटाने का प्राकृतिक तरीका है। स्क्रिन के बदले कहानियां दें। रोज़ रात को मोबाइल की बजाय एक कहानी पढ़ना बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए वरदान हो सकता है। एक डिजिटल अनुशासन बनाएं।

घर में एक ‘मोबाइल नियम चार्ट’ बनाएं जिसमें कौन, कब और कितनी देर के लिए मोबाइल का उपयोग करेगा, यह तय हो।

बच्चों का बचपन: स्क्रीन में नहीं, स्पर्श में छुपा है

बचपन एक ऐसा समय है जब मिट्टी से खेलने की इजाजत होनी चाहिए, न कि केवल मोबाइल पर “Farmville” खेलने की। रिश्ते, भावनाएं, धैर्य, संवाद और सृजनात्मकता मोबाइल के माध्यम से नहीं, बल्कि मनुष्य के बीच के संपर्क से बनती हैं।

विड्रॉल सिंड्रोम सिर्फ एक चेतावनी है। यह हमें बताता है कि अब समय आ गया है जब बच्चों को वापस ‘बच्चा’ बनाया जाए — डिजिटल उत्पाद नहीं।

आज ही चेतना होगा

यदि हम आज नहीं चेते, तो आने वाली पीढ़ी तकनीक में तो विकसित होगी लेकिन भावनात्मक रूप से दरिद्र। मोबाइल की लत का इलाज केवल डॉक्टर के पास नहीं, माता-पिता की गोद, अध्यापकों की संवेदनशीलता और समाज की जागरूकता में है। मोबाइल आज की ज़रूरत है, मगर बच्चों के लिए “सिर्फ जरूरत” ही रहे, “आदत” न बने — यही इस समय की सबसे बड़ी माँग है।

मोबाइल फोन जहां एक ओर आधुनिक शिक्षा और जानकारी का माध्यम बन चुका है, वहीं दूसरी ओर यह बच्चों के मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक विकास में गंभीर बाधा भी बन रहा है। जब एक बच्चा मोबाइल के बिना बेचैन हो उठे, आक्रामक हो जाए या खुद को अलग-थलग कर ले, तो यह महज एक तकनीकी समस्या नहीं, बल्कि एक सामाजिक और पारिवारिक संकट बन जाती है। विड्रॉल सिंड्रोम बच्चों में उसी तरह उभर रहा है जैसे किसी नशे के आदी व्यक्ति में लत छूटने पर होता है।

इसलिए यह समय है जब अभिभावक, शिक्षक और समाज मिलकर बच्चों को तकनीक से जोड़ने के साथ-साथ जीवन से भी जोड़ें। केवल मोबाइल छीन लेना समाधान नहीं, बल्कि बातचीत, स्पर्श, खेल और कहानियों से बच्चों को भावनात्मक सुरक्षा देना जरूरी है। घरों में डिजिटल अनुशासन और स्कूलों में मानसिक स्वास्थ्य पर चर्चा शुरू होनी चाहिए।

अगर हमने अब भी आंखें मूंदे रखीं, तो एक ऐसी पीढ़ी तैयार होगी जो तकनीकी रूप से दक्ष तो होगी, लेकिन भावनात्मक रूप से दिवालिया। हमें बच्चों को स्मार्टफोन नहीं, स्मार्ट जीवन जीने की समझ देनी है।