शिशिर शुक्ला
पिछले दिनों भारतीय सिनेमा के एक चर्चित युवा अभिनेता के द्वारा एक पत्रिका के लिए कराए गए नग्न फोटोशूट ने सोशल मीडिया पर तहलका मचाकर रख दिया है। इन नग्न तस्वीरों को लेकर कहीं तो अभद्र भाषायुक्त टिप्पणियां हो रही हैं, तो कहीं इनके साथ मनचाही छेड़खानी करके एक नया लुक देकर मजाक का पात्र बनाया जा रहा है। कुल मिलाकर जनमानस की भड़ास भांति भांति के तरीकों से निकलकर सामने आ रही है। इसके साथ ही मुंबई के पुलिस स्टेशन में संबंधित अभिनेता के खिलाफ मामला भी दर्ज कराया गया है। किंतु यहां पर प्रश्न दूसरा है। एक गंभीर प्रश्न यह उठता है कि नग्न चित्र को ही एक पत्रिका में प्रकाशित करवाने के पीछे आखिर क्या उद्देश्य है ? क्या यह उद्देश्य मर्यादा की सीमाओं को बिना लांघे हुए पूर्ण नहीं हो सकता? अभिनेता ही नहीं, विभिन्न अभिनेत्रियों के द्वारा भी इस तरह के चित्र सोशल मीडिया पर यदा-कदा प्रसारित किए जाते हैं। फिल्म जगत की आधुनिक भाषा में इसे बोल्डनेस कहा जाता है और यही शब्दविशेष इस तरह के क्रियाकलापों के लिए एक सुरक्षा कवच की तरह इस्तेमाल किया जाता है। वस्तुतः येन केन प्रकारेण सुर्खियां बटोरने की कोशिशों में से एक है- स्वयं को जनमानस के सामने बोल्ड लुक में प्रस्तुत करना।
सच कहा जाए तो भारतीय सिनेमा का स्वरूप एक बड़ी हद तक परिवर्तित हो चुका है। भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के के द्वारा 1913 में इसकी नींव रखी गई थी। शनै: शनै: भारतीय सिनेमा ने विश्व स्तर पर ख्याति अर्जित की, किंतु विगत कुछ वर्षों में भारतीय सिनेमा ने एक अलग ही दिशा पकड़ ली है। बीते कुछ दशकों में बनी हुई अनेक फिल्मों में मर्यादा की सीमा रेखा को ध्यान में न रखते हुए, महज मोटी कमाई के उद्देश्य से संवाद, दृश्य एवं गीत, प्रत्येक में एक ऐसी नवीनता का समावेश किया गया है जो हमारी भारतीय संस्कृति के मानकों से पूर्णतया बाहर है। सदियों से मर्यादा एवं मूल्य ही हमारी भारतीय सभ्यता का श्रंगार हैं।
इन्ही मर्यादाओं एवं मूल्यों के बल पर भारत को एक समय में विश्व गुरु का दर्जा प्राप्त था एवं भारत साहित्य, कला, विज्ञान, धर्म इत्यादि प्रत्येक क्षेत्र में संपूर्ण विश्व में शीर्ष पर विराजमान था। आज के समय में बनने वाली अधिकांश फिल्में अंतरंग दृश्यों, द्विअर्थी संवादों एवं फूहड़ गीतों से परिपूर्ण होती हैं। इनका सर्वाधिक दुष्प्रभाव देश के किशोरों एवं युवा पीढ़ी पर पड़ता है क्योंकि फिल्मों के प्रति सर्वाधिक उत्साह युवाओं एवं किशोरों में ही पाया जाता है। दुर्भाग्य एवं विडंबना तो यह है कि देश की अधिकांश युवा पीढ़ी नग्न फोटोशूट कराने वाले कलाकारों को ही अपना रोल मॉडल समझती है एवं तथाकथित आधुनिकतापूर्ण फिल्मों से क्षण भर में प्रेरित हो जाती है। किशोर वर्ग बड़े शौक एवं मस्ती के साथ आधुनिक कहे जाने वाले फूहड़ अव्यवस्थित गीतों को गुनगुनाता हुआ नजर आता है। विभिन्न गंदे व आपत्तिजनक शब्द युवा पीढ़ी की भाषा शैली में सम्मिलित होते जा रहे हैं। सभ्यता एवं समाज पर बुरी छाप छोड़ने वाली इन फिल्मों को परिवार के साथ में बैठकर देखना तो बहुत दूर की बात हो जाती है। हिंदी व अंग्रेजी मिश्रित ऊटपटांग गीत, दोहरे अर्थ को व्यक्त करने वाले संवाद एवं भोजन में मसाले की तरह फिल्म में विद्यमान अंतरंग दृश्य समाज को एक दूषित मानसिकता एवं अपराधिक प्रवृति की ओर धकेलने का काम बखूबी कर रहे हैं।
निस्संदेह भारतीय सिनेमा ने समाज को ऐसी फिल्में भी दी है जिनसे समाज के हर वर्ग को प्रेरणा मिली है, किंतु मर्यादा का उल्लंघन करने वाली चंद फिल्में ही युवा पीढ़ी को उसकी राह से भटकाने एवं समाज व राष्ट्र के चारित्रिक पतन के लिए पर्याप्त हैं। किसी देश का युवा उसका भविष्य होता है एवं यह एक कटु सत्य है कि सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से किशोर एवं युवा वर्ग की मानसिकता एवं व्यक्तित्व को निश्चित रूप से प्रभावित करता है। सिनेमा जगत के द्वारा समाज को ऐसी फिल्में दी जानी चाहिए जो युवा वर्ग एवं किशोरों में राष्ट्रभक्ति की भावना को प्रबल करने के साथ-साथ उनके अंदर वैज्ञानिक एवं तार्किक दृष्टिकोण का विकास करें, साथ ही साथ उन्हें समाज में व्याप्त समस्याओं एवं कुरीतियों के प्रति जागरूक करें। सिनेमा से जुड़े कलाकारों को मात्र प्रसिद्धि के उद्देश्य से कोई ऐसा कृत्य नहीं करना चाहिए जिससे नैतिक मूल्य एवं भावनाएं आहत होती हो।देश के किशोरों एवं युवाओं को चाहिए कि वे रोल मॉडल एवं हीरो के रूप में अपने मानसपटल पर ऐसी छवियों को निर्मित करें जिनके द्वारा राष्ट्र की वैज्ञानिक, साहित्यिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक उन्नति हेतु अविस्मरणीय योगदान दिया गया हो। निश्चित रूप से युवापीढ़ी को इस दिशा में मार्गदर्शन की महती आवश्यकता है अन्यथा यदि युवावर्ग ने एक बार गलत दिशा पकड़ ली तो फिर उनके भविष्य को संवार पाना बेहद मुश्किल होगा।