मोहन भागवत- मुस्लिम उलेमाओं की मुलाकात के मायने

Mohan Bhagwat- The meaning of the meeting of Muslim Ulemas

विवेक शुक्ला

भारत, अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता के लिए विश्व भर में जाना जाता है, समय-समय पर सामाजिक और धार्मिक तनावों का सामना करता रहा है। इन तनावों को कम करने और समाज में आपसी समझ और सौहार्द को बढ़ावा देने के लिए संवाद और सहयोग की आवश्यकता होती है। बीती 24 जुलाई को, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने राजधानी के हरियाणा भवन में 50 से अधिक प्रमुख मुस्लिम धर्मगुरुओं और विद्वानों के साथ एक महत्वपूर्ण मुलाकात की।

इस बैठक का आयोजन अखिल भारतीय इमाम संगठन (एआईआईओ) के प्रमुख मौलाना उमेर अहमद इलियासी ने किया था। यह मुलाकात, जो लगभग साढ़े तीन घंटे तक चली, हिंदू-मुस्लिम समुदायों के बीच की खाई को पाटने और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने की दिशा में एक उल्लेखनीय कदम मानी जा रही है। इस लेख में इस मुलाकात के महत्व, इसके संभावित प्रभाव और भविष्य की संभावनाओं पर चर्चा की जाएगी।

मुलाकात का संदर्भ और उद्देश्य

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), जिसे भारत में हिंदू राष्ट्रवादी संगठन के रूप में जाना जाता है, और मुस्लिम समुदाय के बीच संवाद का इतिहास हाल के वर्षों में उभर कर सामने आया है। यह मुलाकात 2022 के बाद आरएसएस प्रमुख की मुस्लिम समुदाय के नेताओं के साथ दूसरी बड़ी पहल थी। इससे पहले, सितंबर 2022 में, मोहन भागवत ने नई दिल्ली में एक मस्जिद और मदरसे का दौरा किया था और मौलाना उमेर इलियासी के साथ मुलाकात की थी। उस समय, मौलाना इलियासी ने भागवत को “राष्ट्रपिता” की उपाधि दी थी, जो राष्ट्रीय एकता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

24 जुलाई 2025 की बैठक में आरएसएस के वरिष्ठ नेताओं, जैसे संयुक्त महासचिव कृष्ण गोपाल, राम लाल और इंद्रेश कुमार, जो मुस्लिम राष्ट्रीय मंच (एमआरएम) के प्रमुख हैं, ने भी हिस्सा लिया। मिली जानकारी के मुताबिक, मुस्लिम पक्ष से गुजरात और हरियाणा के मुख्य इमाम, उत्तराखंड, जयपुर और उत्तर प्रदेश के ग्रैंड मुफ्ती, दारुल उलूम देवबंद और नदवा जैसे प्रमुख इस्लामी संस्थानों के प्रतिनिधि शामिल थे। इस मुलाकात का मुख्य उद्देश्य “संवाद” को बढ़ावा देना था, जैसा कि मौलाना इलियासी ने कहा, “हमारा प्राथमिक लक्ष्य संवाद की भावना को जीवित रखना है। हम अलग-अलग धर्मों का पालन कर सकते हैं, लेकिन हम सभी भारतीय हैं। समुदायों के बीच कोई शत्रुता नहीं होनी चाहिए, और इस तरह के संचार मंच को जारी रखना चाहिए।”

चर्चा के प्रमुख बिंदु

इस बंद कमरे की बैठक में राष्ट्रीय एकता, धार्मिक सह-अस्तित्व और सामाजिक सौहार्द जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा हुई। यह बैठक किसी एक विवादास्पद मुद्दे, जैसे ज्ञानवापी मस्जिद या हिजाब विवाद, तक सीमित नहीं थी। इसके बजाय, इसने मंदिरों, मस्जिदों, गुरुकुलों और मदरसों के बीच संवाद को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित किया। मौलाना इलियासी ने बताया कि इस बैठक में यह सहमति बनी कि मंदिरों के पुजारी और मस्जिदों के इमाम, साथ ही गुरुकुलों और मदरसों के बीच नियमित संवाद होना चाहिए ताकि आपसी गलतफहमियां दूर हो सकें और सामाजिक सौहार्द को बढ़ावा मिले।

मोहन भागवत ने इस दौरान राष्ट्रीय एकता पर जोर दिया और कहा कि “हम सभी एक ही नाव में सवार हैं—अगर हम डूबे, तो एक साथ डूबेंगे।” यह बयान भारत की सामाजिक और धार्मिक विविधता को एकजुट रखने की आवश्यकता को रेखांकित करता है। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि आरएसएस और मुस्लिम समुदाय के बीच विश्वास निर्माण के लिए इस तरह के संवाद निरंतर जारी रहेंगे।

सकारात्मक प्रभाव की संभावनाएं

इस मुलाकात का सकारात्मक प्रभाव कई स्तरों पर देखा जा सकता है। सबसे पहले, यह दोनों समुदायों के बीच विश्वास निर्माण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। भारत में हाल के वर्षों में धार्मिक ध्रुवीकरण और तनाव की घटनाओं ने सामाजिक एकता को प्रभावित किया है। ऐसे में, आरएसएस जैसे प्रभावशाली संगठन और मुस्लिम धर्मगुरुओं का एक मंच पर आना एक सकारात्मक संदेश देता है। यह संदेश न केवल शीर्ष स्तर पर, बल्कि जमीनी स्तर पर भी सौहार्द को बढ़ावा दे सकता है।

दूसरा, इस बैठक ने धार्मिक नेताओं की भूमिका को रेखांकित किया। मौलाना इलियासी ने कहा कि धार्मिक नेता समाज में प्रभावशाली होते हैं, और उनके बीच संवाद सामाजिक स्तर पर सकारात्मक बदलाव ला सकता है। मंदिरों और मस्जिदों, गुरुकुलों और मदरसों के बीच नियमित संचार से गलतफहमियां कम हो सकती हैं, जो सामाजिक एकता के लिए आवश्यक है।

तीसरा, यह मुलाकात उस समय हुई जब भारत में सामाजिक और धार्मिक तनावों को लेकर सिविल सोसाइटी और विपक्ष की ओर से आलोचनाएं हो रही हैं। इस संदर्भ में, यह बैठक एक जवाब के रूप में देखी जा सकती है, जो यह दर्शाती है कि आरएसएस सामाजिक सौहार्द को बढ़ावा देने के लिए सक्रिय कदम उठा रहा है। यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि आरएसएस को सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का वैचारिक मार्गदर्शक माना जाता है।

चुनौतियां और आलोचनाएं

हालांकि यह मुलाकात सकारात्मक है, लेकिन इसे लेकर कुछ आलोचनाएं भी सामने आई हैं। 2022 में हुई ऐसी ही एक मुलाकात के बाद, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) और जमीयत उलेमा-ए-हिंद जैसे संगठनों ने कहा था कि मौलाना इलियासी का मुस्लिम समुदाय में पर्याप्त प्रभाव नहीं है। कुछ ने इसे “प्रतीकात्मक” या “खोखला” कदम बताया था, क्योंकि आरएसएस ने उन मुस्लिम संगठनों से संपर्क नहीं किया जिनका समुदाय में व्यापक प्रभाव है। इसके अलावा, कुछ आलोचकों का मानना है कि ऐसी बैठकों में ठोस मुद्दों, जैसे मस्जिद-मंदिर विवाद या मुस्लिम समुदाय के खिलाफ हिंसा, पर खुलकर चर्चा नहीं होती।

भविष्य की संभावनाएं

मौलाना इलियासी ने इस मुलाकात को “निरंतर संवाद की शुरुआत” बताया है, और मोहन भागवत ने भी इस विचार का समर्थन किया है। यह संकेत देता है कि भविष्य में ऐसी और बैठकें हो सकती हैं, जो सामाजिक सौहार्द को और मजबूत करेंगी। इसके अलावा, यह मुलाकात उस समय हुई जब आरएसएस अपनी शताब्दी मना रहा है और एआईआईओ अपनी 50वीं वर्षगांठ मना रहा है। यह एक प्रतीकात्मक अवसर है, जो दोनों पक्षों की साझा प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

मशहूर लेकक फिरोज अहमद बख्त कहते हैं कि मोहन भागवत और मुस्लिम उलेमाओं की यह मुलाकात भारत के सामाजिक ताने-बाने को मजबूत करने की दिशा में एक सकारात्मक कदम है। यह न केवल धार्मिक समुदायों के बीच संवाद को बढ़ावा देता है, बल्कि राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सौहार्द के लिए एक मॉडल भी प्रस्तुत करता है।

हालांकि, इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि क्या यह संवाद जमीनी स्तर तक पहुंच पाता है और क्या यह ठोस मुद्दों को हल करने में सक्षम होता है। यदि यह प्रयास निरंतर और समावेशी रहा, तो यह भारत की बहुलवादी संस्कृति को और मजबूत कर सकता है।