पूज्यपाद गुरुदेव ब्रह्मर्षि कृष्ण दत्त जी महाराज के दिव्य प्रवचनों की श्रृंखला क्रमशः जारी….
- अक्षरबोधि न होने पर भी पूर्व जन्मों की स्मृति के आधार पर ब्रह्मचारी कृष्णदत्त जी ने किया,भगवान राम के दिव्य जीवन का साक्षात् वर्णन
- भगवान राम की दिव्यता में माता कौशल्या का तप
(27 सितम्बर, सन 1942 को गाजियाबाद जिले के ग्राम खुर्रमपुर- सलेमाबाद में, एक विशेष बालक का जन्म हुआ जो बचपन से ही जब भी यह बालक सीधा, श्वासन की मुद्रा में लेट जाता या लिटा दिया जाता, तो उसकी गर्दन दायें-बायें हिलने लगती, कुछ मन्त्रोच्चारण होता और उपरान्त विभिन्न ऋषि-मुनियों के चिन्तन और घटनाओं पर आधारित 45 मिनट तक, एक दिव्य प्रवचन होता। पर इस जन्म में अक्षर बोध भी न करने वाला ग्रामीण बालक, उसके मुख से ऐसे दिव्य प्रवचन सुनकर जन-मानस आश्चर्य करने लगा, बालक की ऐसी दिव्य अवस्था और प्रवचनों की गूढ़ता के विषय में कोई भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। इस स्थिति का स्पष्टीकरण भी दिव्यात्मा के प्रवचनों से ही हुआ। कि यह आत्मा सृष्टि के आदिकाल से ही विभिन्न कालों में, शृङ्गी ऋषि की उपाधि से विभूषित और इसी आत्मा के द्वारा राजा दशरथ के यहाँ पुत्रेष्टि याग कराया गया,और अब जब वे समाधि अवस्था में पहुँच जाते है तो पूर्व जन्मों की स्मृति के आधार पर प्रवचन करते ,यहाँ प्रस्तुत हैं क्रमिक रूप से माता कौशल्या का दिव्य और तपस्वी जीवन )
कौशल्या द्वारा राष्ट्रीय अन्न-त्याग
माता कौशल्या का यह नियम था कि वे स्वयं कला कौशल करती और उसके द्वारा जो द्रव्य आता,उसको स्वयं ग्रहण करती। उसने संकल्प धारण किया था,जो कि मै राष्ट्र का कोई अन्न ग्रहण करना चाहती,क्योंकि राष्ट्र में आकर ऊंचे बालक को उसी काल में जन्म दे सकती हूँ। जब मेरे मन की प्रवृतियां पुरुषार्थी होंगी,महान होंगी पवित्र होंगी और अन्न की जो प्रतिभा है,वह ऊंची होगी, और अन्न की जो प्रतिभा है वह ऊंची होगी,क्यांकि अन्न से मन की प्रतिभा उत्पन्न होती है। माता कौशल्या का यही नियम था,कि वे स्वयं कला-कौशल करती और उसके द्वारा जो द्रव्य आता उसक ग्रहण करके सन्तुष्ट रहती।
जब माता कौशल्या के हृदय में यह धारण बनी कि मै गर्भ से जिस शिशु को जन्म दूंगी तो वह महान होना चाहिये, तो माता कौशल्या सोमलता को भंयकर वनो से लाती और उसका पान करती। अणिमा से उसका खरल करती रहती। खरल करते करते उसके हृदय में जो पुरातत नाम की नाड़ी है,जिसका समन्वय बाल्य के शिशु के हृदय से होता है उससे,उसमें उसकी तरंगे जा जा करके बालक की पुरातत नाम की नाड़ी से समन्वय हो करके,उस नाड़ी का समन्वय मस्तिष्क से होता हुआ, हृदय अगम्यता को प्राप्त होता रहा है। वह माता अपने में विचित्रता को अनुभव करती रही है। उसके हृदय में जो शिशु विद्यमान है,वह महान पवित्रत्व को प्राप्त होता रहा है।(प्रवचन सन्दर्भ 17-02-1991)
गर्भवती कौशल्या स्वाध्याय के लिए शृंगी-आश्रम में
जब माता कौशल्या के गर्भस्थल में आत्मा विद्यमान थी,राम जैसा शिशु विद्यमान था तो माता कौशल्या ने अपने मन में यह विचारा कि मुझे क्या करना है अंगिरस गोत्र में एक ऋषि थे, उनके द्वार पर पंहुची। उन्होने कहा कि-ऋषिवर! आपने मेरा पुत्रेष्टि याग किया और मेरे गर्भस्थल में शिशु का प्रवेश हो गयाहै,अब मै क्या करूं? उन्होंने कहा किमहर्षि शृङ्गी से उनके द्वार पर जाकर यह प्रश्न करो। मै इस सम्बन्ध में इतना नही जानता हूँ, उन्होंने ऋषि के द्वार पर जाकर यह प्रश्न किया,तो उन्होंने कहा कि हे दिव्या! तुम्हें अपने गर्भ के शिशु को कैसा बनाना है? तुम त्याग तपस्या वाले अन्न को ग्रहण करो। त्याग-तपस्या वाला अन्न वह है,कि जिन विचारों से तुम अन्न को भोजानलय में तपाओगे,उन्ही विचारों का वह अन्नाद होगा। उसको तपा करके पान किया जाये, उसी से माता के गर्भस्थल में पिण्ड का निर्माण होता है।(प्रवचन सन्दर्भ 08-02-1991)
माता कौशल्या श्रृंगी से बोली हे प्रभु! मेरे गर्भ में तृतीय माह के बाल्य वृतियों में प्राप्त हो गया है। हे प्रभु! मुझे कोई उदगीत गाइये, कयोंकि मेरा मस्तिष्क तो उस आहार से पवित्र बन गया है। प्रभु! मै जानना चाहती हूँ कि अब मैं क्या करूं? उन्होंने कहा- यह तो तुम्हारा प्राण है इस प्राण को तुम व्यान में प्रवेश कर दो और व्यान को समान में प्रवेश कर दो और समान प्राण को उदान में परिणित करते हुए तुम वहां चित्त के मण्डल का दर्शन करो और चित्त मण्डलके दर्शन करते हुए वह जो तुम्हारे गर्भ स्थल में शिशु पनप रहा है। चतुर्थ माह में उस आत्मा से तुम वार्ता प्रगट कर सकती हो। उस समय ये युक्तियां देवी को परिणित करा दी। माता कौशल्या ने कहा -प्रभु! धन्य है। पन्द्रह दिवस ऋषि के आश्रम में उन्होने प्राण विद्या को जाना, क्रमशः……