मातृभाषा हमारी सांस्कृतिक विरासत और पहचान

Mother tongue our cultural heritage and identity

सुनील कुमार महला

21 फरवरी को अन्तरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाया जाता है। मातृभाषा यानी कि हमारी ‘मां-बोली।’ मातृभाषा मतलब वह भाषा, जिसे हम जन्म लेने के बाद सबसे पहले सीखते हैं। मैथिलीशरण गुप्त जी ने कहा है कि ‘है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी भरी। हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी।’सरल शब्दों में कहें तो मातृभाषा ‘मां की गोद’ की भाषा होती है। मां-बोली, मां-बोली होती है, जिसका स्थान दुनिया की अन्य कोई भी भाषा कभी भी नहीं ले सकती है, क्यों कि यह हमारी मातृभाषा ही होती है, जो हमारी क्षमताओं को अच्छी तरह से उजागर करने की अभूतपूर्व क्षमताएं रखतीं हैं। शायद यही कारण है कि मातृभाषा शिक्षा हर बच्चे की क्षमताओं को उजागर करने की कुंजी कहा जाता है।हिन्दी हम सबकी भाषा है। जन-जन की भाषा है।हमारी मातृभाषा है। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि दक्षिण अफ्रीकी क्रांति के महानायक नेल्सन मंडेला ने कहा था ‘यदि आप किसी व्यक्ति से उस भाषा में बात करते हैं, जिसे वह समझता है, तो वह उसके दिमाग में चली जाती है. वहीं, अगर आप उससे उसकी भाषा में बात करते हैं, तो वह उसके दिल तक जाती है।’ उल्लेखनीय है कि सरलता, बोधगम्यता और शैली की दृष्टि से विश्व की भाषाओं में हिन्दी महानतम स्थान रखती है।यह सरल, सुबोध,सहज व वैज्ञानिक शब्दावली लिए विश्व की एक सिरमौर भाषा है। यदि हम यहां आंकड़ों की बात करें तो 600 मिलियन से अधिक भाषाओं के साथ हिंदी विश्व में तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है, साथ ही भारत में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। गौरतलब है कि संविधान के अनुच्छेद 343 के अंतर्गत हिंदी को आधिकारिक उद्देश्यों के लिये अंग्रेज़ी के साथ भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है।इसे 8वीं अनुसूची में भी सूचीबद्ध किया गया है, जिसमें आधिकारिक प्रयोग के लिये मान्यता प्राप्त 22 भाषाएँ शामिल हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि जीवन के छोटे से छोटे क्षेत्र में हिन्दी अपना दायित्व निभाने में समर्थ है। महात्मा गांधी जी के शब्दों में कहना चाहूंगा कि ‘हिन्दी भाषा का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है।’ वास्तव में,राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देश की शीघ्र उन्नति के लिए आवश्यक है। डॉ.राजेंद्र प्रसाद ने कहा है कि ‘ हिंदी भाषा और हिन्दी साहित्य को सर्वांगसुंदर बनाना हमारा कर्त्तव्य है।’ वास्तव में हमें अपनी मातृभाषा को अधिकाधिक महत्व देना चाहिए, क्यों कि वाल्टर चेनिंग के शब्दों में ‘विदेशी भाषा का किसी स्वतंत्र राष्ट्र के राजकाज और शिक्षा की भाषा होना सांस्कृतिक दासता है।’वास्तव में भाषा किसी भी देश व समाज की संस्कृति का केंद्रीय बिंदू होती है। कहना ग़लत नहीं होगा कि मातृभाषा मात्र अभिव्यक्ति या संचार का ही माध्यम नहीं होती है,अपितु यह हमारी संस्कृति और संस्कारों की सच्ची संवाहिका भी होती है। माखनलाल चतुर्वेदी ने यह बात कही है कि ‘हिन्दी हमारे देश और भाषा की प्रभावशाली विरासत है।’मातृभाषा में ही व्यक्ति ज्ञान को उसके आदर्श रूप में सही तरह से आत्मसात कर पाता है।सच तो यह है कि मातृभाषा से ही सभ्यता एवं संस्कृति पुष्पित-पल्लवित और सुवासित होती हैं। मातृभाषा हमारी असली पहचान होती है। कहना चाहूंगा कि भारत को अगर एकता के सूत्र में बांधना है तो हमें अपनी मातृभाषा को उचित सम्मान तो देना ही होगा साथ ही साथ हमें अपनी मातृभाषा पर गर्व की अनुभूति भी करनी होगी। सच तो यह है कि मातृभाषा से ही हमारे राष्ट्र और समाज के उत्थान का मार्ग प्रशस्त होगा। हरिऔध जी ने कहा है कि ‘कैसे निज सोऐ भाग को कोई सकता है जगा, जो निज भाषा-अनुराग का अंकुर नहिं उर में उगा।’ मातृभाषा का महत्व किस कदर है इस बात का पता हमें सैयद अमीर अली मीर जी के इस कथन से पता चलता है जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘देश में मातृ भाषा के बदलने का परिणाम यह होता है कि नागरिक का आत्मगौरव नष्ट हो जाता है, जिससे देश का जातित्व गुण मिट जाता है।’सच तो यह है कि मातृभाषा मनुष्य के विकास की आधारशिला होती है। यह मातृभाषा ही होती है जिसके माध्यम से ही वह भावाभिव्यक्ति, विचार और विचार-विनिमय करता है। सरल शब्दों में कहें तो मातृभाषा ही किसी भी व्यक्ति के शब्द और संप्रेषण कौशल की उद्गम होती है। यह हमें राष्ट्रीयता से जोड़ती है और देश प्रेम की भावना उत्प्रेरित और संचारित करती है। मातृभाषा सामाजिक व्यवहार एवं सामाजिक अन्तःक्रिया की भी आधार होती है। यही कारण भी है कि प्रायः सभी समाज अपनी शिक्षा का माध्यम भी मातृभाषा को ही बनाते हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि मातृभाषा का नष्ट होना राष्ट्र की प्रासंगिकता का नष्ट होना होता है। कोई भी भाषा सीखना ग़लत नहीं होता है लेकिन अपनी मां-बोली को तिरस्कृत और दरकिनार कर अन्य भाषाओं को अपनाना ठीक नहीं है। अंग्रेजी हो या कोई भी अन्य भाषाएं उनका ज्ञान प्राप्त करना एक अच्छा कदम है, लेकिन मातृभाषा का स्थान कोई अन्य भाषा नहीं ले सकती। सच तो यह है कि अपनी मातृभाषा से अलग होकर किसी देश, अस्तित्व, पहचान ही खत्म हो जाती है। इसीलिए संविधान में 22 भाषाओं को राष्ट्रीय भाषाओं का दर्जा प्रदान किया गया। देश के विभिन्न राज्यों और क्षेत्रों में बोली जाने वाली ये 22 राष्ट्रीय भाषाएं भारत की विविध और समृद्ध संस्कृति का आधार हैं।इन 22 भाषाओं में क्रमशः बांग्ला, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, तमिल, तेलुगू, उर्दू, बोडो, संथाली, मैथिली और डोगरी शामिल हैं। मातृभाषा के महत्व को रेखांकित करते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र को लिखना पड़ा-‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटन न हिय के सूल’।अर्थात मातृभाषा के बिना किसी भी प्रकार की उन्नति संभव नहीं है। भाषा एक सेतु के रूप में काम करती है और हिंदी भाषा, किसी अन्य भाषा की तुलना में हमारे जीवन, हमारे देश की संस्कृति और यहां तक कि मौलिकता के कहीं अधिक निकट है। आज फ्रांस में फ्रेंच , जर्मनी में जर्मन भाषा में, चीन में चीनी मंदारिन का हर क्षेत्र में प्रयोग होता है, तो हम क्यों न हर क्षेत्र में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा दें ? पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि महाराष्ट्र सरकार ने अपने राज्य के सरकारी कार्यालयों में मराठी भाषा के उपयोग के निर्देश जारी किए हैं। इतना ही नहीं, कुछ समय पहले ही पिछले साल ही यानी कि वर्ष 2023 में पंजाब सरकार ने भी दुकानदारों और व्यापारियों को अपनी दुकानों या प्रतिष्ठानों के बोर्ड आदि पंजाबी में लिखने की अपील की थी। यह ठीक है कि कोई भी राज्य अपने यहां की भाषा को आगे बढ़ाने के लिए समय-समय पर ऐसा करते हैं और करना भी चाहिए, लेकिन क्या यह हम लोगों की यह एक सामूहिक जिम्मेदारी नहीं बनती है कि हम अपनी मातृभाषा के महत्व को समझें और उसे अपने जीवन में आत्मसात करें। आज विश्व के अनेक विकसित देश अपनी मातृभाषा को बढ़ावा देने की दिशा में लगातार काम कर रहे हैं। इसी क्रम में फ्रांस, जर्मनी, इटली सहित दुनिया के कई विकसित देशों ने अंग्रेजी भाषा तक सीमित न रहते हुए अपनी राष्ट्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए अनेक प्रभावी व दूरगामी कदम उठाए हैं।आज अपनी लोकभाषा/मातृभाषा में कितने अच्छे और गूढ़ अर्थ के लोकगीत, बाल कविताएं, दोहे, छंद चौपाइयां उपलब्ध हैं, बहुत सा साहित्य भी उपलब्ध है,जिन्हें हम प्रायः भूलते जा रहे हैं। बहरहाल, मातृभाषा हिंदी पर अनेक विद्वानों द्वारा विचार प्रकट किए गए हैं। मसलन,डॉ. फादर कामिल बुल्के ने यह बात कही है कि ‘संस्कृत माँ, हिन्दी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी है।’ ग्रियर्सन ने कहा है कि ‘हिन्दी संस्कृत की बेटियों में सबसे अच्छी और शिरोमणि है।’ महात्मा गांधी का विचार यह है कि ‘हिंदुस्तान के लिए देवनागरी लिपि का ही व्यवहार होना चाहिए, रोमन लिपि का व्यवहार यहाँ हो ही नहीं सकता।’ बहरहाल,21 फरवरी को अन्तरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाते हैं, ताकि हम अपनी भाषा को बढ़ावा दे सकें और उसे आत्मसात कर सकें।वास्तव में इस दिवस को मनाने का उद्देश्य है कि विश्व में भाषायी एवं सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिता को अधिक से अधिक बढ़ावा मिले। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस 2025 ‘दुनिया भर के लोगों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली सभी भाषाओं के संरक्षण और सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए’ एक पहल है और सर्वप्रथम यूनेस्को ने वर्ष 1999 में 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में घोषित किया था और वर्ष 2000 से संपूर्ण विश्व में यह दिवस मनाया जाता है। इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के पच्चीस वर्ष होने जा रहे हैं। गौरतलब है कि यूनेस्को द्वारा इस दिवस की घोषणा 17 नवंबर, 1999 को की गयी थी। कहना ग़लत नहीं होगा कि इस दिन को मनाने का मकसद, भाषाई विविधता के महत्व को रेखांकित करना है। वास्तव में,यह दिन बांग्लादेश द्वारा अपनी मातृभाषा बांग्ला की रक्षा के लिये किये गए लंबे संघर्ष को रेखांकित करता है।बांग्लादेश में भाषा आंदोलन के उपलक्ष्य में मातृभाषा दिवस की स्थापना की गई।पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों ने आम लोगों की मदद से बड़े पैमाने पर मार्च और सभाएँ आयोजित कीं। 21 फरवरी, 1952 को प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने गोली चलाई। इसमें तीन लोगों की मौत हो गई और सैकड़ों लोग घायल हो गए। अपनी मातृभाषा के लिए लोगों का बलिदान इतिहास में एक असामान्य घटना थी।यह भी उल्लेखनीय है कि कनाडा में रहने वाले एक बांग्लादेशी रफीकुल इस्लाम ने 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाने का सुझाव दिया था। भाषा किसी भी देश की असली विरासत और संस्कृति होती है। कहना ग़लत नहीं होगा कि किसी देश की सांस्कृतिक विविधता को बनाए रखने के लिए स्वदेशी भाषाओं का जिंदा रहना बहुत आवश्यक और जरूरी है।आज के इस युग में मातृभाषाओं का संरक्षण करना और उन्हें बढ़ावा देना बहुत ही जरूरी है, क्यों कि आज के इस युग में भाषाएं विशेषकर मातृभाषाएं लगातार विलुप्त होती चली जा रही है। कहना ग़लत नहीं होगा कि यदि किसी भी स्थान पर कोई भाषा विलुप्त होती है इसका सीधा असर हमारी सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत पर पड़ता है, इसलिए विशेषकर आज मातृभाषाओं का संरक्षण किया जाना बहुत ही जरूरी और आवश्यक हो गया है।संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के अनुसार, हर दो सप्ताह में एक भाषा विलुप्त हो जाती है और विश्व एक पूरी सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत खो देता है। कहना चाहूंगा कि वैश्वीकरण के कारण, बेहतर रोजगार के अवसरों के लिए विदेशी भाषाओं को सीखने की होड़ मातृभाषाओं के लुप्त होने का एक प्रमुख कारण है। दुनिया में बोली जाने वाली अनुमानित 6000 भाषाओं में से कम से कम 43% लुप्तप्राय हैं। केवल कुछ सौ भाषाओं को ही वास्तव में शिक्षा प्रणालियों और सार्वजनिक डोमेन में जगह दी गई है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘भाषा होठों पर शराब है।’ दूसरी भाषा का होना दूसरी आत्मा का होना है और मातृभाषा हमारी असली आत्मा है।गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2022 और वर्ष 2032 के मध्य की अवधि को स्वदेशी भाषाओं के अंतर्राष्ट्रीय दशक के रूप में नामित किया है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इससे पहले संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 2019 को स्वदेशी भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया था।पाठकों को बताता चलूं कि वर्ष 2023 की थीम ‘बहुभाषी शिक्षा – शिक्षा को बदलने की आवश्यकता’ तथा वर्ष 2024 में इसकी थीम ‘बहुभाषी शिक्षा अंतर-पीढ़ीगत शिक्षा का एक स्तंभ है।’ रखी गई थी। अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस 2025 का विषय ‘अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का रजत जयंती समारोह’ है। बहरहाल, आइए इस अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर संकल्प लें कि हम अपने परिवार के साथ केवल अपनी मातृभाषा में ही संवाद करेंगे और इसका अपने जीवन में, व्यवहार में उपयोग करेंगे। पाठकों को बताता चलूं कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के अनुसार शिक्षा का माध्यम, जहां तक संभव मातृभाषा होनी चाहिए।आज दुनिया भर में आज लगभग 7,000 भाषाएँ मौजूद हैं। यदि हम यहां आंकड़ों की बात करें तो यूनेस्को के अनुसार, दुनियाभर में 8,324 भाषाएं व बोली हैं।आज भाषाई विविधता खतरे में है, क्योंकि हमारी तेजी से बदलती दुनिया में कई भाषाएं तेजी से लुप्त हो रही हैं। भारत की यहां बात करें तो 1635 मातृभाषाएं और 234 पहचान योग्य मातृभाषाएं हैं।हम ज्यादा से ज्यादा भाषाएं सीखें लेकिन अपनी मातृभाषा को कभी भी नहीं भूलें। मातृभाषा को संरक्षित रखना बहुत ही महत्वपूर्ण और जरूरी है क्यों कि किसी भाषा के नष्ट होने से संचार और विरासत प्रभावित हो सकती है, क्योंकि भाषाओं में सांस्कृतिक पहचान, रीति-रिवाज और ज्ञान निहित होता है।