स्वदेश कुमार
पश्चिम बंगाल में राजनीतिक परिदृश्य में लगातार बदलाव देखने को मिल रहे हैं, जहां 100 से अधिक विधानसभा सीटों पर मुस्लिम वोट निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं। यह वोट बैंक अब किसी एक नेता या पार्टी की गुलामी करने के बजाय अपनी शर्तें पेश कर रहा है और अपने हितों के अनुसार चुनाव लड़ने-हरने का निर्णय ले रहा है। पिछले कुछ समय से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के भीतर भी इस मतदाता वर्ग के कारण उथल-पुथल चल रही है। ममता बनर्जी खुद हमेशा मुस्लिम वोटरों के पक्ष में मजबूत रुख रखती आई हैं, लेकिन हाल में जब उन्होंने वक्फ कानून को लेकर अपनी सहमति दी, तब उनके खुद के मुस्लिम नेता और मंत्री इसका विरोध करने लगे। इसने तृणमूल कांग्रेस के भीतर गहरे मतभेदों को उजागर किया है। मुस्लिम नेताओं की इस असंतोष की लहर ने ममता की राजनीतिक स्थिरता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि पश्चिम बंगाल के मुसलमान अब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर किसी मुस्लिम चेहरे को देखना चाहते हैं जो उनकी बातों को आसानी से समझ सके। अगले वर्ष 2026 में पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव होने हैं। इसी को लेकर सीएम का सपना देख रहे कुछ मुस्लिम नेता अपनी इच्छाओं को परवान देने में लगे हैं।
इसी क्रम में एक और बड़ी घटना सामने आई है, जो तृणमूल कांग्रेस के लिए बड़ा झटका है। मुर्शिदाबाद जिले के विधायक हुमायूं कबीर, जो पार्टी के मुस्लिम चेहरों में से एक हैं और लंबे समय से बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण के पक्षधर रहे, ने ममता बनर्जी और उनकी पार्टी को खुलेआम चुनौती दी है। हुमायूं कबीर ने 6 दिसंबर को मुर्शिदाबाद में नए बाबरी मस्जिद के उद्घाटन का ऐलान किया था, जिसे लेकर पार्टी ने आक्रामक रुख अख्तियार किया। तृणमूल कांग्रेस ने हुमायूं कबीर को पार्टी से सस्पेंड कर दिया है। पार्टी का कहना है कि वे पार्टी के अनुशासन का उल्लंघन कर रहे हैं और पार्टी की नीतियों के खिलाफ बयानबाजी कर रहे हैं। हालांकि, इसके बावजूद हुमायूं कबीर अपने फैसले पर अड़े हुए हैं और उन्होंने 22 दिसंबर को अपनी नई राजनीतिक पार्टी के गठन की भी घोषणा की है। यह कदम उनके राजनीतिक संघर्ष को और तीव्र कर सकता है।यह घटना पश्चिम बंगाल की राजनीति के उस परिदृश्य को दर्शाती है जहां मुस्लिम वोटर ही निर्णायक शक्ति के रूप में उभर रहे हैं। 100 से अधिक विधानसभा सीटों पर उनका प्रभाव इतना मजबूत है कि वे किसी भी पार्टी या नेता को जिताने-हारने में सक्षम हैं। इसका मतलब साफ है कि ममता बनर्जी जैसे बड़े नेता भी अब अकेले मुस्लिम वोट बैंक को नियंत्रित नहीं कर सकते।
ममता बनर्जी की पार्टी ने लंबे समय तक मुस्लिम वोटरों की नाराजगी को दूर रखने की कोशिश की है, लेकिन अब पार्टी के भीतर मुस्लिम नेताओं की असंतोष और अलगाव ने संकेत दिए हैं कि यह रणनीति अब कारगर नहीं रह गई है। हुमायूं कबीर की सस्पेंशन और उनकी नई पार्टी बनाने की योजना इस बदलाव का प्रमुख उदाहरण है। पश्चिम बंगाल की राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा तेज है कि मुस्लिम वोट बैंक की यह ताकत अब खुद एक राजनीतिक शक्ति के रूप में उभर रही है, जो न केवल ममता बनर्जी बल्कि अन्य राजनीतिक पार्टियों के लिए भी चुनौती बन सकती है। इसका सीधा असर आगामी चुनावों पर पड़ेगा और इससे राजनीतिक समीकरणों में बड़ा फेरबदल संभव है।
विशेषज्ञों का मानना है कि तृणमूल कांग्रेस को इस स्थिति को समझ कर मुस्लिम समुदाय के नेताओं के साथ बेहतर संवाद स्थापित करना होगा, अन्यथा वे अपनी पकड़ खो सकती है। वहीं, मुस्लिम मतदाता भी अब केवल जनादेश देने तक सीमित नहीं रहना चाहते, वे अपनी स्वयं की राजनीतिक आवाज़ उठाने के लिए संगठित हो रहे हैं। हुमायूं कबीर का नया राजनीतिक कदम बताता है कि मुस्लिम नेताओं के बीच भी अब स्पष्ट मतभेद सामने आ रहे हैं, जिन्हें न केवल तृणमूल बल्कि अन्य राजनीतिक दलों के लिए भी ध्यान में रखना होगा। यह स्थिति चुनिंदा नेताओं के लिए पहले जैसी सहूलियत नहीं छोड़ती। इस पूरे घटनाक्रम से यह साफ जाहिर होता है कि पश्चिम बंगाल में मुस्लिम वोट बैंक की राजनीतिक भूमिका पहले से कहीं अधिक निर्णायक होती जा रही है। उनकी राजनीतिक शक्ति अब खुलकर सामने आ रही है और इसका असर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की नीतियों और पार्टी के आंतरिक तालमेल पर स्पष्ट रूप से दिखने लगा है।





