
सुनील कुमार महला
11 मई 2025 को हम सभी अंतरराष्ट्रीय मातृ दिवस मनाने जा रहें है। सर्वप्रथम सभी माताओं को इस लेखक का कोटिशः नमन। ‘मां’ एक शब्द मात्र नहीं है, अपितु यह इससे भी कहीं अधिक बढ़कर है। ‘मां’ विधाता की इस धरती पर बहुत बड़ी देन है। ईश्वर के बाद यदि कोई सबसे बड़ी पालनहार है तो वह ‘मां’ ही तो है।सच तो यह है कि माँ हर किसी के लिए इस प्रकट दुनिया से जुड़ने का पहला ज़रिया है।हम अपनी माँ के ज़रिए इस दुनिया में आए, और बेश़क अपने पिता के ज़रिए भी। हम सभी में कहीं न कहीं मातृत्व है, मातृत्व की भावना है। मातृत्व का मतलब है-‘ दूसरों के लिए सबसे अच्छा चाहना और बदले में कुछ भी उम्मीद न करना।’ ‘मां’ को हम किसी दिन विशेष में नहीं समेट सकते हैं। सच तो यह है कि हर दिन ‘मां का दिन’ है। कहना ग़लत नहीं होगा कि अपनी माँ के प्रति हमारे अंदर असीम प्रेम होता है, क्योंकि हमने अपने अस्तित्व की शुरुआत उसी के एक अंश के रूप में की थी। ‘मां’ प्रेम है, शुद्ध प्रेम, बिना शर्त वाला प्रेम। यह ‘मां’ ही है जो अपने बच्चों को ‘बिना शर्त प्रेम’ करती है, दुनिया में ‘मां’ जैसा कोई नहीं। मां पर लिखने के लिए हरेक दिन है, हर समय है, हर पल है, हर क्षण है। ‘मां’ को कोई भी व्यक्ति मात्र शब्दों में नहीं समेट सकता, उसे परिभाषित नहीं कर सकता, क्यों कि इतनी क्षमता शायद किसी भी में नहीं है कि वो ‘मां’ को शब्दों के जाल से परिभाषित कर दे। ‘मां’ संपूर्ण सृष्टि है। वह सृजन है। सच तो यह है कि ‘मां’ से बड़ा इस दुनिया में कोई नहीं है, इसलिए आज मन किया कि ‘मां’ पर लिखूं। यह ‘मां’ का ही आशीर्वाद है, सानिध्य, मंगलकामनाएं है कि आज मैं ‘मां’ पर चंद शब्द लिख पा रहा हूं, क्यों कि ‘मां’ ने ही मुझे अस्तित्व में लाकर सबकुछ सिखाया है। मां के नाम से ही मैं हमेशा बहुत भावुक हो जाता हूँ। ईश्वर की नैमत्त जो है “मां”। अभी हाल फिलहाल, घर पर नहीं हूँ, ड्यूटी पर हूँ। अपने गांव-घर से बहुत दूर, हिमालय की वादियों के बीच, सीमा पर; लेकिन यहां बहने वाली ठंडी बयारों में, यहां की वनस्पतियों में, यहां की नदियों की कल-कल में, यहां के पक्षियों की चहचहाहट में, मैं हर क्षण हर पल ‘मां’ को महसूस करता हूं। मैं एक फौजी हूं और हरेक फ़ौजी की एक नहीं बल्कि दो ‘मां’ होतीं हैं। एक जन्म देने वाली ‘मां’ और दूसरी ‘धरती मां।’ मैं उन खुशनसीब और अति भाग्यशाली लोगों की सूची में शुमार हूँ, जिन्हें एक नहीं अपितु दो दो माताओं का सानिध्य प्राप्त है और आज मैं इस माँ(धरती मां) और उस मां(जन्म देने वाली ‘मां’) दोनों के कारण ही यहां पर हूं। हाल फिलहाल, मैं मेरी जन्म देने वाली ‘मां’ के पास नहीं हूँ, लेकिन ‘मां’ का सानिध्य हमेशा मेरे साथ है। बहरहाल, काफी समय पहले मैंने ‘मां’ के बारे में एक शेर पढ़ा था।आज काफी समय बाद घिर-घिर कर वह शेर यहां याद आ रहा है। शेर है – ‘मैंने कल शब चाहतों की सब किताबें फाड़ दी,सिर्फ एक कागज़ पे लिक्खा शब्द माँ रहने दिया !’यह प्रसिद्ध शेर मुनव्वर राणा जी का है। वाह ! मां के बारे में उन्होंने क्या शानदार अभिव्यक्ति दी है। वास्तव में, ‘मां’ होती ही ऐसी हैं। ‘मां’ तो ‘मां’ है। ‘मां’ आचमन है। ईश्वर जिसमें छुपकर बैठा प्रकृति का वो आभार है ‘माँ। ”मां’ ममता, त्याग, वात्सल्य, प्यार,करूणा,दया,तप, तपस्या की प्रतिमूर्ति है। उसकी गोद में स्नेह है, वह फूलों की क्यारी है, ममत्व की मिसाल है। उसकी छांव में शीतलता का अहसास है। वह विश्वास है, वह हिम्मत है, वह आत्मविश्वास है। उसके आंचल में ठंडी ‘लोरी’ का अहसास है। वह धरती पर ईश्वर का प्रतिबिंब है। ‘मां’ धरती है, ‘मां’ आकाश है, ‘मां’ ब्रहांड है। ‘मां’ समन्दर है। ‘मां’ सृजन है।’मां’ लहरें है। ‘मां’ डगर है। ‘मां’ रास्ता है, ‘मां’ मंजिल है। ‘मां’ संबल है। ‘मां’ असीम आनंद है, ‘मां’ सकारात्मकता है। ‘मां’ शांत,सुंदर,निर्मल मंद मंद बहती बयार है। ‘मां’ नथुनों में रमी बसी सुरभि है। ‘मां’ चंदन है, ‘मां’ वंदन है, ‘मां’ अभिनंदन है, ‘मां’ जीवन ज्योति है। ‘मां’ दीपक है, ‘मां’ उज्ज्वल निरंतर बहता प्रकाश है। ‘मां’ निर्मल कोई झरना है। वह क्या नहीं है ? अर्थात् ‘मां’ सबकुछ है। ‘मां’ है, तो इस जग में सबकुछ संभव है, ‘मां’ है तो ये जीवन सुख का सागर है, ‘मां’ गागर है। ‘मां’ की महिमा अपरंपार है। ग्यारह मई या मई का दूसरा रविवार ही नहीं, सारे ही दिन ‘मां’ के होते हैं। पिछले पांच महीनों से त्योहार पर भी घर नहीं आ पाया, कोई ग़म नहीं है, क्यों कि यहां भी तो मेरे पास मेरी धरती ‘मां’ है, जन्म देने वाली ‘मां’ का साया हरदम, हरपल मेरी सांसों में समाया है, जो मुझे प्रेरणा देती है, मेरी रगो में हरदम साहस और सकारात्मकता भरती है। हिमालय की इन वादियों के बीच सीमा पर तैनात अपनी ड्यूटी पर तैनात होते हुए भी अपनी दोनों मांओं के किरदार को हर पल,हर क्षण जीता हूँ। हर दौर में वे मेरे साथ हैं। मेरी ‘ मां'(जन्म देने वाली मां) और मेरी मातृभूमि जो मेरी ‘मां’ हैं, मेरी चुनौती भरी राहों में मुझमें खुशी, उमंग व उल्लास भरती है। फिर भी ‘मैं’ भी अन्य लोगों की तरह एक इंसान हूं, कोई ‘दैव’ या ‘दैविक शक्ति’ नहीं।फौज में, घर से दूर होने के कारण बच्चों के साथ परिवार की भी चिंता होने लगती है, आम इंसान की तरह मुझे भी यह महसूस होता है कि घर पर सभी कैसे व किस हाल में होंगे, पिताजी को कोई दिक्कत तो नहीं है, छोटे भाई को स्वास्थ्य की थोड़ी समस्या है, बच्चों की पढ़ाई, उनके स्वास्थ्य की चिंता मुझे भी रहती है, लेकिन ऐसी परिस्थितियों में मेरी ‘मां’ ही मुझे फोन पर सभी चिंताओं से मुक्त करती है, मेरी रगों में विश्वास की लहरें भरती हैं। ‘मां’ से दूरभाष पर मन की बातें करके हल्का हो जाता हूँ। कभी किसी समस्या या परेशानी से आहत होकर अंदर से जब टूटने लगता हूँ, तो ‘मां’ मुझे चट्टान सा मजबूत करतीं है। ‘मां’ मुझे सहलाती है, दुलारती है, प्यार करती है। मुझे मेरी ‘मां’ पर गर्व है। मैं हर ‘मां’ को बारंबार नमन करता हूँ। अंत में, ‘मां’ पर एक कविता यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ-
‘जिसकी गोदी में खेले है
आज क्यों पराई “मां” ?
सर्वस्व त्याग दिया जिसने
वृदाश्रम में क्यों आई “मां” ?
उंगली पकड़कर सीखा चलना
रोटी खातिर आज पराई “मां”
खुद सोती थी गीले में,हमें सूखे में सदा सुलाया
तार तार वसन, कतरन हाथ आई “मां”
आशीर्वाद हाथ सदा धरे
जख्म़ आज क्यों खाई “मां” ?
याद है चूल्हे की रोटी,निवाले हाथ से खिलाये
रूखी सूखी खाकर भी,मुस्कान चेहरे पर लाई “मां”
डांट में भी प्यार छुपा है
करूणा से आंखे छलछलाई “मां”
घर के टुकड़े होने से जोडे़
दुख सहकर भी खिलखिलाई “मां”
जीतने का साहस भरे रगो में
कुर्सी पाकर न याद आई “मां”
चोट पर मरहम पट्टी
सहलाती,दुख मनाती, हल्के हाथों से लगाती दवाई”मां”
धरती पर स्वर्ग है, वात्सल्य की देवी है
आज क्यों जग हंसाई “मां ” ?
सत्य पथ पर चलना सिखाया, मशाल बनी थी
लबों पर क्यों न आई “मां” ?
बहुरानी जब घर में आई
लगने लगी पराई “मां”
हिमालय सी अटल, जमाना जिसने देखा
आज क्यों डरी सहमी,घबराई “मां”
खाली हाथ लौट आये हम
जब छोटे थे,बाजार से खिलौने लाई “मां”
फब्तियां कसते,दो रोटी को तरसती
बढ़ गई यकायक मंहगाई “मां”
दवा दारू करते नहीं
फट गई आज बिवाई “मां “
पढी लिखी नहीं ,गवार है (हमने समझा)
तभी स्टेज पर शायद, न छा पाई “मां”
हमने पाई पाई छिपाई
हाथ दमडी़ न आई “मां”
नजर न लग जाये, माथे टीका लगाया
टीकिया बिंदिया(के लिए) तरसाई “मां”
पानी को भी आज तरसती
समन्दर सी गहराई “मां”
मेरा बच्चा, मेरा बच्चा कहकर
जय जय कार सदा लगाई “मां”
जीना दुश्वार किया हमनें
नीची क्यों दिखाई “मां” ?
रहमत पर हम उसकी आज भी जिंदा हैं ,
नहीं जरा़ भी शर्मिंदा है
तू उसकी है,तू उसकी है , हिस्से की बंटाई(आज) “मां”
जग में “मां” सा कोई नहीं , “मां”तारणहार
धूप छांव, सुख दुख में सदा भलाई “मां।”