सुनील कुमार महला
26 दिसंबर 2024 को आर्थिक सुधारों के पुरोधा, भारत के पूर्व प्रधानमंत्री(14 वें) डॉ.मनमोहन सिंह का हमारे बीच से 92 वर्ष की उम्र में अवसान हो गया। सभी जानते हैं कि डॉ सिंह एक प्रख्यात अर्थशास्त्री थे जिन्होंने अपने नीतियों और नेतृत्व से भारत को आर्थिक और वैश्विक ऊंचाइयों पर पहुंचाया। सच तो यह है कि उनके आर्थिक सुधारों को पूरी दुनिया ने लोहा माना है।सच तो यह है वे देश में उदारीकरण लेकर आए।कहना ग़लत नहीं होगा कि वे सादगी, विनम्रता और विद्वता की मूरत थे। अविभाजित भारत के पंजाब में 26 सितंबर 1932 को जन्मे डॉ सिंह ने कैम्ब्रिज और आक्सफोर्ड जैसी यूनिवर्सिटीज़ से अपनी पढ़ाई पूरी की थी। श्री गुरमुख सिंह और श्रीमती अमृत कौर के घर जन्मे सिंह ने 1948 में पंजाब में अपनी मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की। कैंब्रिज से उन्होंने 1957 में अर्थशास्त्र में प्रथम श्रेणी ऑनर्स की डिग्री हासिल की। इसके बाद 1962 में उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के नाफील्ड कॉलेज से अर्थशास्त्र में ‘डी.फिल’ की उपाधि प्राप्त की।उन्होंने योजना आयोग उपाध्यक्ष (अब नीति आयोग), भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) गर्वनर, और आर्थिक सलाहकार जैसे कई महत्वपूर्ण पदों पर काम किया और भारतीय अर्थव्यवस्था की तस्वीर बदल दी थी। बहुत कम लोग ही यह बात जानते होंगे कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार के तहत 2006-2007 में भारत ने 10.08% की वृद्धि दर दर्ज की थी। यह 1991 में अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद से भारत में दर्ज की गई सबसे अधिक जीडीपी थी। उच्चतम जीडीपी वृद्धि दर 2006-2007 में 10.08% थी। यहां यह उल्लेखनीय है कि मनमोहन सिंह ने जुलाई, 1991 के बजट में अपने प्रसिद्ध भाषण में कहा था, ‘पृथ्वी पर कोई भी ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ गया है। मैं इस प्रतिष्ठित सदन को सुझाव देता हूं कि भारत का दुनिया में एक प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में उदय होना चाहिए, यह एक ऐसा ही एक विचार है।’ वे वित्त मंत्रालय में सचिव, प्रधानमंत्री के सलाहकार और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष भी रहे। वर्ष 1991 से 1996 तक वे भारत के वित्त मंत्री रहे और इस दौरान उन्होंने अनेक आर्थिक सुधार किए। पाठकों को बताता चलूं कि वर्ष 1987 और 1990 के बीच जिनेवा में दक्षिण आयोग के महासचिव के रूप में उनकी नियुक्ति हुई तथा 1971 में, डॉ. सिंह वाणिज्य मंत्रालय, भारत सरकार में आर्थिक सलाहकार तथा वर्ष 1972 में वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। यदि हम यहां उनके राजनीतिक करियर की बात करें तो डॉ.मनमोहन सिंह 1991 से भारत के संसद के उच्च सदन (राज्यसभा) के सदस्य रहे, जहां वे 1998 से 2004 के बीच विपक्ष के नेता थे। उल्लेखनीय है कि वे पहली बार 1991 में राज्य सभा के लिए चुने गए थे और उन्होंने उच्च सदन में पांच बार असम और 2019 में राजस्थान का प्रतिनिधित्व किया।पाठक जानते हैं कि वे वर्ष 2004 से लेकर वर्ष 2014 तक यूपीए सरकार में प्रधानमंत्री रहे। यह भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने 22 मई 2004 को प्रथम बार और 22 मई 2009 को दूसरी बार पीएम पद की शपथ ली थी। उल्लेखनीय है कि वह जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी के बाद चौथे सबसे लंबे समय तक पीएम पद पर रहने वाले प्रधानमंत्री थे।वे भारत के पहले सिख प्रधानमंत्री भी थे। अपने दस साल के प्रधानमंत्री काल में उन्होंने देश में शिक्षा का अधिकार (आरटीई), सूचना का अधिकार (आरटीआई, वर्ष 2005), विश्व की सबसे बड़ी रोज़गार गारंटी योजना मनरेगा योजना(वर्ष 2005) समेत तमाम कई बड़े फैसले लिए, जो अपने आप में एक मिसाल है। उल्लेखनीय है कि ‘आधार योजना’ भी उनके ही कार्यकाल में शुरू की गई थी। कहना ग़लत नहीं होगा कि आधार योजना से भारतीयों को नव पहचान मिली और इससे आमजन की विभिन्न सरकारी सेवाओं तक पहुंच आसान और सरल हो गई। साथ ही कई पहचान पत्रों की जगह इस एक पहचान पत्र आधार कार्ड ने लोगों का जीवन आसान किया। इतना ही नहीं डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) यानी कि लोगों के खाते में सीधे पैसे ट्रांसफर करने की प्रणाली भी उनके ही कार्यकाल की देन है जिससे भ्रष्टाचार पर काफी हद तक लगाम लगी और लोगों तक सरकारी सहायता सीधे पहुंचने लगी। कहना ग़लत नहीं होगा कि भारत-अमेरिका परमाणु समझौता भी डॉ. सिंह के कार्यकाल की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि रही है। यहां यह भी गौरतलब है कि वर्ष 2008 की आर्थिक मंदी के झटकों से भी उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकते हुए उसे उबारा था। पाठकों को बताता चलूं कि उन्होंने ‘भारत के निर्यात रुझान और स्व-संचालित विकास की संभावनाएं’ शीर्षक से किताब भी लिखी थी, जिसमें उन्होंने भारत की अंतर्मुखी व्यापार नीति की आलोचना की थी। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय और प्रतिष्ठित दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में फैकल्टी के रूप में तथा यूएनसीटीएडी(अंकटाड) यानी कि (व्यापार और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन) में 1966-1969 तक सचिवालय में भी काम किया। 1969 से 1971 तक, सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय के दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के प्रोफेसर भी रहे। पुरस्कारों और सम्मानों की यदि बात करें तो उन्हें 1987 में भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान, पद्म विभूषण, वर्ष 1995 में उन्हें भारतीय विज्ञान कांग्रेस का जवाहरलाल नेहरू जन्म शताब्दी पुरस्कार, वर्ष 1993 और 1994 वर्ष के वित्त मंत्री के लिए एशिया मनी पुरस्कार, वर्ष 1993 वर्ष के वित्त मंत्री के लिए यूरो मनी पुरस्कार, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय का एडम स्मिथ पुरस्कार और कैम्ब्रिज में सेंट जॉन्स कॉलेज में विशिष्ट प्रदर्शन के लिए राइट पुरस्कार (1955) प्रदान किये गए थे। इतना ही नहीं उन्हें कैम्ब्रिज और ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालयों सहित कई विश्वविद्यालयों से मानद उपाधियां प्राप्त हुईं थीं। उन्होंने अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और संगठनों में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया है। गौरतलब है कि साइप्रस में राष्ट्रमंडल शासनाध्यक्षों की बैठक (वर्ष 1993) और वर्ष 1993 में वियना में मानवाधिकारों पर विश्व सम्मेलन में उन्होंने भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व भी किया। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि मनमोहन सिंह की छवि बेशक बहुत ही कम बोलने वाले और अधिकतर शांत रहने वाले व्यक्तियों में की जाती रही है, लेकिन जब भी वे बोलते थे, वो सुर्खियां बन जाती थीं। मसलन,27 अगस्त 2012 को संसद में उन्होंने यह कहा था कि ‘हजारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी है…न जाने कितने सवालों की आबरू रखी।’ इतना ही नहीं, 23 मार्च 2011 को नेता विपक्ष श्रीमती सुषमा स्वराज के एक तंज पर जवाब में मनमोहन सिंह ने कहा था- ‘माना के तेरी दीद के काबिल नहीं हूं मैं, तू मेरा शौक तो देख मेरा इंतजार तो देख।’ बहरहाल, अंत में यही कहूंगा कि भले ही आज डॉ सिंह हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन वे देश-दुनिया के प्रतिष्ठित नेताओं में से एक हैं। आर्थिक नीतियों के संबंध में उन्होंने देश ही नहीं अपितु विदेशों पर एक गहरी और अमिट छाप छोड़ी है। उनको शत-शत नमन, विनम्र श्रद्धांजलि।
सुनील कुमार महला, फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार, उत्तराखंड।