
विनोद कुमार विक्की
दीपावली और छठ से पूर्व भारत की यात्रा से लौटे नारद जी को बैकुंठ धाम के मुख्य द्वार पर देवताओं ने घेर लिया।
‘और बताइए मुनि कुमार कैसी रही आपकी आर्यावर्त यात्रा?’ इंद्र देव ने जिज्ञासा से पूछा।
यात्रा की घटना का स्मरण कर नारद जी माथे से पसीना पोंछते हुए बोले-” जी… मिला-जुला कर अच्छी ही रही। वैसे महापर्व के दौरान पद यात्रा की जगह रेल यात्रा करने का मेरा निर्णय मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल मानी जा सकती है… किंतु देवराज विविधता में एकता का अद्भुत दर्शन करना हो, तो पर्व-त्योहार के दौरान एकबार भारतीय रेलवे में यात्रा अवश्य करनी चाहिए…”
“अरे मुनि कुमार जब रेलगाड़ी ही है, तो विभिन्न प्रकार के यात्री सफर करेंगे ही, जाहिर है विविधता भी परिलक्षित होगी ! ” ब्रह्मा जी ने टोका।
” स्वामी विविधता का आशय खान-पान, वेश-भूषा आदि के संदर्भ में नहीं है, अपितु पर्व में घर वापसी कर रहे प्रवासी श्रद्धालु की हरकतों के संबंध में है।मानव को भले ही खड़े रह कर यात्रा करनी पड़े, किन्तु ले जा रहे सामान डिब्बा-डुग्गी आदि को उचित स्थान मुहैया करा देता है। तत्पश्चात संपूर्ण यात्रा के दौरान अपने-अपने चलयंत्र में मग्न हो जाता है। कुछ सरकारी कर्मी मोबाइल पर ही अपने कार्यालय के कार्य का निष्पादन करने में, तो कोई यात्री परिवार के कलह का समाधान करने में, तो कोई अपने घरवालों को यात्रा का पल-पल अपडेट देने में,तो कुछ युगल जोड़ी प्रेम प्रसंग में लग जाते हैं। अमूमन जो कार्य भार से मुक्त होता है, वह रील वीडियो और गीत सुनने में तल्लीन हो जाता है। सामाजिक जंतुओं से ठसा ठस भरे डिब्बे में सामुदायिक खुशियों का अनुमान इसी प्रकरण से लगाया जा सकता है कि एक ही समय दर्जनों मोबाइल यंत्र पर भजन,भोजपुरी गीत,रील्स,मीम्स, भाषण, फिल्मी डायलॉग आदि का प्रसारण तीव्र ध्वनि में हो रहा होता है। एक ही समय विभिन्न प्रकार के गीत-संगीत और आवाज़ों के श्रवण से यात्रियों के कर्ण पटल विविधता में एकता का आनंद लेते अघाते नहीं है। वैसे इसमें दो मत नहीं कि भारतीय रेल काफी मजबूत होता है।
‘वो कैसे ?’ गणेश जी पूछ बैठे।
”ऐसा है प्रभु, क्या आपका वाहन मूषक आपके अतिरिक्त दो अन्य देवताओं के साथ सवारी कर सकता है… कदापि नहीं, किंतु 80 सीट वाले अनारक्षित डिब्बे में दो सौ से अधिक यात्रियों की रेलमपेल के साथ नियमित चलने वाली रेल वाहन की वहन क्षमता का अंदाजा आप स्वयं लगा सकते हैं।” नारद जी ने चुटकी ली।
“ओह! तब भीड़ की वजह से काफी यात्री बैठ कर भी सफर नहीं कर पाते होंगे ?” पुष्पक विमान पर विराजमान विष्णु भगवान ने पूछा।
“जी, जैसा कि सर्वविदित है, अनुकूलता के मामले में मानव सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है। बैठने वाले सीट,फर्श,सामान रखने वाले जगह से शौचालय और द्वार पर खुद को समायोजित कर गंतव्य तक यात्रा कर ही लेते हैं। मजे की बात तो यह है प्रभु, स्टाफ और लोकल का हवाला देकर आप आरक्षित सीटों वाले वैध यात्री को साइड खिसका कर सहयात्री बन बेटिकट यात्रा का आनंद भी ले सकते हैं।” नारद जी ने स्थिति स्पष्ट करते हुए बताया।
“किंतु बेटिकट यात्रियों की जांँच के लिए श्याम वस्त्र धारक टीटीई नामक पदधारी भी तो होता है।” शनिदेव ने आशंका जाहिर करते हुए कहा।
‘जी बिल्कुल होते हैं, वैसे भी पर्व-त्यौहार का सीजन प्रवासी की बजाय पर्यवेक्षक-निरीक्षक का ही होता है। सीजन के दौरान इनके जांँच का मुख्य केंद्र जनरल और स्लीपर डब्बा में सफर कर रहे प्रवासी होते हैं। मजाल है एक भी यात्री इनकी निगरानी से बच जाए। स्टेशनों के निकास द्वार पर वेल मेंटेन यात्रियों से टिकट पूछने या जाँचने की बजाय सिर पर गठरी,बोरा लेकर घर आने वाले मजदूर सदृश यात्रियों को ऐसे घेर लिया जाता हैं, मानो वह घर नहीं बार्डर पर घुसपैठ करने जा रहे हैं। कभी-कभी तो टिकट होने के बावजूद भी ऐसे यात्री को जुर्माना देकर अपनी यात्रा पूर्ण करनी पड़ती हैं।”
‘टिकट रहते हुए जुर्माना…ऐसा कैसे?’ आश्चर्य प्रकट करते हुए देवगण एक साथ पूछ बैठें।
“दरअसल प्रभु, छः घंटे विलम्ब से गंतव्य तक पहुंचने वाली ट्रेन में सफर कर चुके उन यात्रियों को स्टेशन के निकास द्वार पर ही ज्ञात होता है कि उन्होंने सुपर फास्ट ट्रेन से सफर किया है और सुपरफास्ट का चार्ज जुर्माना के रूप में चुकाना पड़ता है।”
नारद जी की रेल गाथा सुनकर सभी देवता गण मोर, हंस, मूषक, पुष्पक विमान आदि सहित अपने-अपने वाहन की ओर देखने लगे।
भैंस की पीठ पर हाथ फेरते हुए यमराज बोले – ‘इंडियन रेल से भली तो हमारी सवारी है।’
यमराज की बातें सुन नारद जी मुस्कुराते हुए ‘नारायण-नारायण’ बोले और पैदल ही वहांँ से चल दिए।