रावेल पुष्प
ऑर्थर मिलर का नाम अमेरिका में बीसवीं शताब्दी के श्रेष्ठ नाटककारों में लिया जाता रहा है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सामाजिक विषयों पर नाटक लिखने वाले मिलर ने अपने बहुचर्चित नाटक “द अमेरिकन ड्रीम” यानी सपनों के अमेरिका की कई खामियों को जनता और दुनिया के सामने रखा था, जिसके कारण उन्हें आलोचनाओं का शिकार भी होना पड़ा था। इसी क्रम में उन्होंने 1949 में अपने नाटक – डेथ ऑफ ए सेल्समैन का मंचन किया तो वे रातों-रात बेहद लोकप्रिय हो गए।इसी नाटक पर उन्हें प्रतिष्ठित पुलित्जर पुरस्कार भी मिला था। गौरतलब है कि आर्थर मिलर की ही पत्नी थीं विश्व प्रसिद्ध सौंदर्य और सेक्स की प्रतिमूर्ति- मर्लिन मुनरो !
इस नाटक का बांग्ला अनुवाद किया है कोलकाता की टेन्थ प्लेनेट संस्था के प्रतिष्ठाता शरण्य दे ने और उनके निर्देशन में ही पिछले दिनों इसका मंचन भी हुआ।
इसकी मूल थीम यही है कि दुनिया में आप कुछ भी बेच सकते हो कोई सामान, सेवा, संबंध या फिर अपने आप को ही। आज के इस आधुनिक और प्रतिस्पर्धा भरे माहौल में एक व्यक्ति बेहतर कर सकता है अगर उसे इसके मौके मिलें और वो इसके लिए अपनी चेष्टा और मेहनत से इसे अंजाम दे सके। लेकिन अदम्य इच्छा और संघर्ष के बावजूद कई बार लोगों के सपनों की मौत होते भी देखी गई है। ऑर्थर मिलर ने भले ही उन दिनों अमेरिका में यह महसूस किया हो लेकिन अपने देश के लिए भी ये पूरा सच है,जो इसे एक कालजयी रचना के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
बांग्ला में इस अनूदित नाटक- एकटि सेल्समैनेर मृत्यु” का नायक अभिरूप (मूल नाटक में विली लोमैन)अपनी पत्नी लीना(मूल नाटक में लिण्डा) अपने लगभग दो जवान हो चुके बेटों ध्रुवों और आनंदो के साथ रहता है । अभिरूप एक कम्पनी में सेल्समैन है और अपनी खटारा गाड़ी में कपड़े बेचने आसपास के कई शहरों कस्बों में जाता है। वो अपनी शर्तों पर जीना चाहता है और अपने बच्चों को भी अपने पैरों पर खड़े होते देखना चाहता है।वो खुद अपने आप को स्थापित करने के लिए जिंदगी के कितने ही साल होम कर चुका होता है लेकिन फिर भी किसी ख़ास मुकाम को हासिल नहीं कर पाता। इस बीच उसकी नौकरी भी जाती रहती है और महज कमीशन पर ही अब वो निर्भर है। अपने पुराने मकान की किश्तें भी भरने के लिए एक मित्र का सहारा लेता है। उसके बेटे भी कुछ खास नहीं कर पाते और व्यवसाय करने के लिए पिता के पुराने रईस हो चुके मित्र से उधार लेकर व्यवसाय करना चाहते हैं, पर वो घास नहीं डालता। इस तरह बच्चे भी काफ़ी मायूस हो जाते हैं। अभिरूप का जीवन बड़ा शुष्क रहता है, लेकिन अपनी सेल्स की वजह से वो नजदीक के शहर बर्दवान आता-जाता रहता है, जहां उसकी मुलाकात एक ऐसी दिलफेंक महिला ग्राहक से होती है,जो उसके जीवन में कुछ रंगीनियां ले आती है। वैसे वो एक सच्चा गृहस्थ है और अपनी पत्नी तथा बच्चों को बहुत प्यार करता है और आखिरकार आर्थिक कठिनाइयों से उबरने के लिए अपनी खटारा कार चलाते हुए टक्कर मारकर मौत को गले लगा लेता है ताकि उसकी मौत से बीमा कंपनी से मिलने वाली रकम से उसके परिवार को खुशियां मिल सकें। एक मध्यमवर्गीय परिवार सचमुच अपना सम्मान रखते हुए कितनी जद्दोजहद में अपनी जिंदगी की गुजर बसर करता है। ये नाटक उसे बखूबी दिखाने में कामयाब होता है। अभिरूप के रूप में स्वयं शरण्य दे तथा पत्नी लीना के रूप में सीमा घोष,बेटे ध्रुव के अभिनय में समुद्रनील सरकार तथा आनंद के रूप में शुभाशीष सरकार का अभिनय पात्रों के अनुकूल जीवंत रहा। इसके अलावा अन्य पात्रों का अभिनय भी प्रशंसनीय था,मसलन- हरिदास दे, अभिजीत बसाक,पृथीश वैद्य,फ़रहीन सुलताना, त्रिधारा चटर्जी, शाश्वती मजूमदार, राहुल दास तथा श्रीवर्ण गोस्वामी। इसके अलावे प्रकाश संयोजन सोमेन चक्रवर्ती, संगीत पांचजन्य दे,शब्द प्रक्षेपण राजेश पुरकाईत और साज सज्जा में थीं मिताली सरकार।
एक अच्छी नाट्य प्रस्तुति होने के बावजूद हिंदी नाटकों में दर्शकों की कमी से अधिक संतोषजनक स्थिति यहां भी नजर नहीं आई।
वैसे ये बात तो तय है कि बंगाल में साहित्य और संस्कृति के प्रति प्रेम के कारण ही कोलकाता में नाटकों के प्रति समर्पण यहां की रग- रग में है।