डॉ. नीरज दइया
राजस्थान की समकालीन हिंदी कविता में एक प्रमुख नाम कवि-कथाकार नवनीत पाण्डे का है। आपके सद्य प्रकाशित कविता संग्रह ‘तटस्थ कोई नहीं होता’ के शीर्षक के सबंध में बात करें तो इस शीर्षक के साथ ही महाकवि रामधारी सिंह दिनकर (1908-1974) का स्मरण लाजमी लगता है। दिनकर जी की प्रसिद्ध पंक्तियां है- ‘समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध/ जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध’। हमें जानना चाहिए कि यह विरोधाभाष क्यों हैं कि दिनकर जी ने वर्षों पहले कहा था- जो तटस्थ हैं अर्थात पक्ष और विपक्ष के अलावा ‘तीसरे पक्ष’ की बात यहां अनुकूल है। तीसरा पक्ष और तीसरी दुनिया की बात भी होती रही है, किंतु नवनीत पाण्डे के इस संग्रह की शीर्षक कविता देखें-
लोग चुप रहते हैं/ इसलिए नहीं कि/ वे निरपेक्ष हैं/ चुप्पियां हैं/ सबसे बड़ा धोखा
इसलिए कि/ अगर बोले/ पकड़े जाएंगे/ या इधर होते हैं/ या उधर होते हैं/ तटस्थ कोई नहीं होता।
कविता का सबसे ज्यादा सरोकार संवेदना से होता है और वर्तमान समय में संवेदनाएं मर रही है, पूरी दुनिया में संवेदनाओं का पतन हम देख रहे हैं। सवाल यह है कि कवि नवनीत पाण्डे की माने तो क्या संवेदनशील अथवा संवेदनहीन लोगों की चुप्पियां केवल सबसे बड़ा धोखा है? यदि हां, तो यह धोखा कौन और किसे दे रहा है? इस धोखे से भरी दुनिया में घोखा कहां नहीं है? यह जो धोखा है वह क्या इसलिए तो नहीं है कि हम स्वयं अन्य को धोखे पर धोखा दिए जा रहे हैं और बदले में हमें धोखे मिल रहे हैं? भारतीय संस्कृति के मूलभूत मूल्यों की बात करेंगे तो यही लगेगा कि किसी अन्य को धोखा देना असल में स्वयं को ही धोखा देना होता है।
क्या कारण है कि कवि नवनीत पाण्डे तीसरे पक्ष को स्वीकार नहीं करते हैं? उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि एक पक्ष कवि का यानी आम आदमी का है, और दूसरा पक्ष जो उसके प्रतिपक्ष में खड़ा है उसका है। यह दूसरा पक्ष सत्ता कहा जा सकता है अथवा मार्क्सवादियों की बात करेंगे तो धनिक वर्ग का अभिप्राय अलग अलग आय वर्ग के लिए अब अलग अलग बन चुका है। आम आदमी को कौन कौन कैसे कैसे लूट रहा है यदि इस विषय में जाएंगे तो विषयांतर हो जाएगा। क्या हमारे समय में हम ऐसी कोई कल्पना कर सकते हैं कि कहीं ऐसा भी कोई है जिसे इन दोनों पक्षों से कोई लेना-देना नहीं है। और यदि ऐसा है तो वही तीसरा पक्ष है, जिसे तटस्थ कहा जा सकता है..। क्या वह है या उसकी कल्पना भी केवल एक धोखा छलावा है। यहां यह भी प्रतिप्रश्न जरूरी है कि जो चुप है वह यदि जाहिर कर दे कि मैं किसी भी पक्ष में नहीं हूं, क्या तब भी उसे किसी पक्ष अथवा प्रतिपक्ष में माना जाएगा? यह ऐसा समय है जब आपके सच को सच नहीं माना जा रहा है। सामने वाले से पहले से ही अपने सच को सोच रहा है। वह सच उसके संभावित सच से भिन्न और पृथक कैसे स्वीकार सकता है। संभवतः यह प्रगतिशीलता हमारे वर्तमान समय, समाज और सत्ता के द्वंद्व के मद्देनजर किसी आरपार की लड़ाई का आह्वान है।
कवि की कामना अथवा कहें कि यह विचार उभर कर समाने आता है कि सभी को अपना-अपना पक्ष स्पष्ट कर देना चाहिए, इस समय में मौन रहना अनुचित है। कवि पाण्डे के मौन से जो अस्पष्टता झलकती है अथवा भीतर कुछ बाहर कुछ भीतर की दुनिया के लोग हैं उनको ‘सबसे बड़ा धोखा’ कहने और बोलने का आह्वान करते हुए इस फरेबी दुनिया को एक चुनौती देती कविताएं लिखते रहे हैं। कवि का कहना है कि जब हम इस दुनिया के खेल में शामिल हो जाते हैं तो हमें चुप बैठने का अधिकार नहीं होता है। हमें खेल के साथ खेलना ही होगा और इस खेल में केवल इधर अथवा उधर के अलावा कोई तीसरा पक्ष है ही नहीं। निर्णायक अथवा तटस्थ पक्ष के विषय में जैसे यह उनकी घोषणा सच ही प्रतीत होती है। यह न्याय व्यवस्था को भी चुनौती है और कहें अपने समय से मोहभंग है जहां सभी लोग इधर-उधर हैं पर वे सच के साथ नहीं है।
कवि नवनीत पाण्डे के कविता संग्रह का शीर्षक- ‘तटस्थ कोई नहीं होता’ में अभिप्राय इंगित है कि सभी को इधर अथवा उधर जैसे सिक्के के केवल दो पहलुओं या पक्षों में देखने की कामना ही आज का सच है। यहां इस अर्थ में मुझे एक अनुगूंज कवि पाश के कविता संग्रह- ‘बीच का रास्ता नहीं होता’ से जुड़ती हुई प्रतीत होती है। बीच का रास्ता से यह अभिप्राय है कि हम किसी भी पक्ष का साथ प्रकट नहीं करते हैं और मौन रहकर किसी बीच के रास्ते में रहना पसंद करते हैं। क्या किसी बाएं-दाएं से इतर बीच के रास्ते में होना ही स्वयं को तटस्थ दर्शाना है? यहां नवनीत पाण्डे कवि पाश की भांति ही आरपार की लड़ाई को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। यह समय से सीधा साक्षात्कार है। जहां स्थितियों से बचने की या मुंह फेरने की सारी कोशिशें बेकार है। इस संग्रह के विषय में आलोचक-संपादक निरंजन श्रोत्रिय ने लिखा है- ‘नवनीत पाण्डे की इन कविताओं में संघर्षरत आम आदमी का गुस्सा, बेचैनी, विवशता लेकिन साथ ही जिजीविषा भी स्पष्टतः झलकती है। इन कविताओं में कवि ने तटस्थता की चालाकी को चीन्हा है, राजनीतिक दुरभिसंधियों को उघाड़ा है।’
नवनीत पाण्डे की कविताओं पर बात करने से पहले यहां यह जानना जरूरी है कि इस संग्रह से पूर्व उनके पांच कविता संग्रह- ‘सच के आस-पास’ (1998), ‘छूटे हुए संदर्भ’ (2013), ‘जैसे जिनके धनुष’ (2015), ‘सुनो मुक्तिबोध एवं अन्य कविताएं’ (2017) और ‘जब भी देह होती हूं’ (2020) प्रकाशित हुए हैं, और एक अन्य संग्रह ‘नवनीत पाण्डे : चयनित कविताएं’ (2022) भी चर्चित रहा है। वे विगत तीस वर्षों से अधिक समय से हिंदी और राजस्थानी भाषा में कवि-कहानीकार और अनुवादक के रूप में सक्रिय हैं। उनकी कविताएं विशद मूल्यांकन की मांग करती है।
अपने पहले ही कविता संग्रह- ‘सच के आस-पास’ से नवनीत पाण्डे ने कविता के क्षेत्र में अपनी मौलिकता का परिचय देते हुए निजी भाषा और शिल्प के प्रति सावधान रहते हुए अनेक ऐसी कविताएं दी जो आज भी प्रासंगिक है। ‘रेत और हवा’ कविता में जो द्वंद्व उभरता है वह देखने योग्य है- ‘हवा जब भागती है/ भागती है रेत/ हवा-रेत/ रेत-हवा/ गुथमगुथ-एकमेक/ बताओ!/ कौन हवा?/ कौन रेत?’ यहां अपने पर्यावरण के प्रति कवि की चेतना बहुत कम शब्दों में देखी जा सकती है वहीं ‘हवा’ के भागने से ‘रेत’ के भागने का अभिप्राय भी विशद है। रेत का हवा के साथ भागना अपने क्षेत्र का विस्तार ही नहीं वरन प्रेम में सब कुछ भुला देना भी है। यहां रेत का हवा बन जाना रेत का विस्तार है। इसी संग्रह में ‘रेत के विस्तार में’ शीर्षक से अलग कविता है- ‘रेत के विस्तार में/ रहा निरंतर खोजता/ एक और आदमी/ रेत कांपी, हिली, उलटी/ उगल दिए रेत ने/ आदमी ही आदमी/ सो रहे थे जाने कब से/ रेत के आगोश में/ रेत के विस्तार में।’ यदि कोई कवि अपनी आरंभिक कविताओं में ही संक्षिप्तता के साथ अर्थ गंभीरता के साक्ष्य प्रस्तुत करता है तो उसकी संभवानाओं का विस्तार जाहिए है कि दूर तक होना था और हुआ है। कवि नवनीत पाण्डे अपने पहले संग्रह में कविता को कुछ इस प्रकार परिभाषित करते हैं- ‘मस्तिष्क के गर्भ से/ भावों का भ्रूण उपजा/ भाषा ने दिए शब्द/ समय ने दिए अर्थ/ संवेदना-लय पगी अभिव्यक्ति को/ दिशा दी कलम ने/ कवि हृदय की कोख से/ कविता यूं पैदा हुई।’
कवि नवनीत पाण्डे का कवि हृदय अपने आस-पास के जीवन और पर्यावरण को देखते-भोगते हुए निर्मित होता है जिसमें संवेदनाओं की धरा पर छोटे छोटे जीवन प्रसंग और चिंतन के क्षण कविता का रूप लेते हैं। वे अपने संबंधों में जब संवेदनाओं का पतन देखते हैं तो कविता उन्हें सहारा देती है। यह अकारण नहीं है कि आगे चलकर नवनीत पाण्डे ने अपने एक कविता संग्रह का नाम ‘सुनो मुक्तिबोध एवं अन्य कविताएं’ रखा, क्यों कि उनके पहले संग्रह में एक कविता का शीर्षक है- ‘हम सब ब्रह्मराक्षस’। यह कवि का अध्ययन मनन और चिंतन ही है कि वह अपने पूर्ववर्ती कवियों और रचनाओं पर चिंतन करते हुए नए अर्थों तक पहुंचने का प्रयास करता है। इस कविता का अंतिम अंश देखें- ‘हमें पता है-/ हम अपनी दुर्गंध, काई/ बावड़ी में भर रहे हैं/ सारी बावड़ी को/ विषैली कर रहे हैं/ हम यही करेंगे/ नहीं डरेंगे/ न ही मरेंगे/ हम राक्षस हैं, राक्षस/ जो-/ ब्रह्मामृत पीते हैं कल्प-कल्पांतर जीते हैं/ बांटते हैं ब्रह्मविष/ हम ही तो हैं/ भूत-वर्तमान और भविष्य के/ जगदीश।’
आपके अगले कविता संग्रह ‘छूटे हुए संदर्भ’ में भी ऐसे ही अनेक संदर्भों को संजोने का काम हुआ है। इन संदर्भों को बटोरने के सिलसिले बहुत लंबे और भिन्न भिन्न है और यही वास्तविकता है कि हमारे जीवन संदर्भ किसी एक ग्राफ में पूर्वनिर्धारित नहीं होते हैं। वहां बने बनाए और पूर्व परिभाषित संदर्भों से इतर इतर नए और अलक्षित संदर्भ हमारे सामने आते हैं। यहां कवि की दुनिया का विस्तार भी देखा जा सकता है कि राजस्थान बीकानेर का एक कवि दिल्ली पर कविता लिखता है। दिल्ली के विषय में लिखी कविता में जिस सहजता और सुगमता से जटिलता और बदलावों को परिभाषित किया गया है वह देखने योग्य है- ‘दिल्ली दिल वालों की है/ दिल्ली से बाहर की खबर के अनुसार/ दिल्ली दिल्ली वालों की है/ दिल्ली किसकी है?/ इस प्रश्न का सही-सही उत्तर/ स्वयं दिल्ली के पास भी नहीं है/ वह तो सभी को अपना मानती है/ कश्मीर से कन्याकुमारी तक/ पहुंचता है दिल्ली का अखबार…’ इस कविता संग्रह में मां-पिता और प्रेम पर भी अनेक कविताएं है जिनमें कवि के मन का मौन और हाहाकार दोनों बोलते हैं। संवेदनाओं के ह्रास पर कवि की चिंताएं भी है।
किसी भी कविता संग्रह में अनेक कविताएं होती है किंतु उनकी चर्चा करते समय अनेक कविताएं छूट जाती है या छोड़ दी जाती है। इसके कारणों में जाएंगे तो पाएंगे कि प्रत्येक कविता पर चर्चा किसी आलेख में संभव नहीं है, आलोचक को अपनी टिप्पणी में कवि के मूल स्वर और केंद्रीय भाव तक पहुंचने के प्रयास करने होते हैं। प्रत्येक कवि की निजता ही उसकी मौलिक होती है। सभी इस संसार को समान भाव से देखते-परखते हैं किंतु यह देखने की आंख कविता में किस कोण को अभिव्यक्त करती है और कवि की प्रतिबद्धता क्या है, यह आलोचना के लिए एक महत्त्वपूर्ण बिंदु है। नवनीत पाण्डे अपने कविता संग्रह ‘जिनके धनुष’ जैसे कि एक कविता में लिखते हैं- ‘वे लोग/ हर तरफ से/ हर तरह से/ लगे हैं करने को राख मेरी आग को/ फिर भी मैं/ करता रहता हूं जतन/ उसे उजाला बनाने को…/ बहुत खिलाफ है मेरे/ हवाओं के रुख/ फिर भी मैं प्रतिबद्ध हूं/ देती रहती है/ भरोसा मुझे/ मेरी आग।’ (कविता- ‘मेरी आग’) यहां जिस भरोसे की बात कवि कर रहा है वही भरोसा बचाए जाने की आवश्यकता है और यही कविता के द्वारा प्रतिरोध है। और ऐसी ही प्रतिरोधमूलक कविताओं से कवि नवनीत पाण्डे की पहचान कविता-दर-कविता पुख्ता होती जाती है।
नवनीत पाण्डे की कविताओं को व्यंग्य-बोध भी प्रभावशाली है। वे बहुत मामूली से मामूली बात में ऐसी चुटकी लेते हैं कि हम आश्चर्य से भर जाते हैं। कम से कम शब्दों में जिस सहजता और सरलता से विरोधाभास और मर्म को उद्घाटित किया जाता है वह रेखांकित किए जाने योग्य है। उदाहरण के लिए कविता संग्रह ‘जिनके धनुष’ की ‘जिन्हें मैंने’ कविता देखें- ‘जिन्हें मैंने हमेशा/ मिश्री सा सहेजे रखा/ अपने भीतर/ पता चला-/ उन्होंने मुझे/ अपने भीतर/ आस-पास तो क्या/ दूर-दूर तक भी/ नहीं रखा।’ यह किसी भी मन की अति सामान्य अनुभूति है किंतु इसे जिस प्रकार प्रस्तुत किया गया है उसमें जैसे कविता का नमक उभरता है और यही वह नमक है जो जीवन के लिए बेहद जरूरी है। हमे हमारी अपेक्षाओं और उम्मीदों को कम से कम रखना चाहिए। लोक का व्यवहार हमेशा हमारी आशाओं को खंड़ित करता है इसलिए कवि का यह कहना जरूरी है कि हम हमारे समय को समझते हुए अपने भीतर के मिठास को बचा कर रखें। ‘धरती और आकाश के बीच/ पड़ा, खड़ा मैं/ वजूद के लिए अपने/ बहुत-बहुतों से/ लड़ा मैं।’ (कविता- ‘लड़ा मैं’) कहना होगा कि नवनीत पाण्डे आम आदमी के वजूद की बात करने वाले कवि हैं, उन्होंने अपनी कविताओं में फिर-फिर मनुष्य की अस्मिता को बचाए और सहेजे जाने के जैसे गीत रचे हैं। उनका इस रचना कर्म द्वारा हम हमारे समय संदर्भों को समझते हुए फिर फिर से अपने वजूद को पाते हैं।
‘सुनो मुक्तिबोध एवं अन्य कविताएं’ संग्रह में आरंभ की चार कविताएं कवि मुक्तिबोध को संबोधित है। इस संग्रह की अन्य अनेक कविताओं में भी मुक्तिबोध के रचना और जीवन प्रसंग-संदर्भों को अपनी बात के आधार में प्रमुखता दी गई है। यहां सबसे बड़ा सवाल यही है कि कवि मुक्तिबोध से नवनीत पाण्डे अपने रचनाकर्म को इस भांति क्यों संलग्न करते हैं? इसका एक उत्तर यह हो सकता है कि कवि अपनी काव्य परंपरा और विरासत को लिए आगे बढ़ते हुए पाता है कि आज इतने वर्षों बाद भी हमारे समय और समाज में वही विमर्श हमारे सामने हैं। समय के बदल जाने के बाद भी विकास की अवधारणा को जैसे बदलना था वह कवि नहीं पाता और कवि मुक्तिबोध को जैसे कवि-गुरु स्वीकार करते हुए उसी राग को आगे बढ़ाते हुए परिवर्तन का आह्वान करता है। दूसरा तथ्य यह भी हो सकता है कि कवि नवनीत पाण्डे इस कविता संग्रह के माध्यम से अपने प्रिय कवि मुक्तिबोध को उनकी जन्मशती पर स्मरण करते हुए उऋण होना चाहते हैं, यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इस संग्रह को कवि ने मुक्तिबोध को समर्पित किया है। साथ ही कवि ने समर्पण पृष्ठ के लिए मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ से इन पंक्तियों को चुना है- ‘यह सब क्या है/ किसी जन-क्रांति के दमन-निमित्त यह/ मॉर्शल-लॉ है।’ कवि मुक्तिबोध और नागार्जुन की परंपरा में नवनीत पाण्डे लिखते हैं- ‘मैंने कब कहा/ कविता लिखता हूं/ मैं तो सिर्फ/ तुम्हारी दुनिया में/ कैसे-कैसे जीता हूं/ कैसे-कैसे मरता हूं/ लिखता हूं।’ (कविता- ‘मैंने कब कहा’) कविता के लिए जीना मरना और इस जीवन में जीने और मरने को ही कविता के रूप में रखना कवि की प्रतिबद्धता है। यह कबीर की भांति- ‘तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आंखिन की देखी’ जैसा कुछ है। इस संग्रह के लिए कवि-आलोचक भरत प्रसाद ने लिखा है- ‘उपेक्षित, अनाम और परित्यक्त किंतु बहुमूल्य सच के प्रति सघन प्रतिबद्धता नवनीत जी के कवि का स्थायी परिचय है। यही वह प्राण शक्ति है जो सरल और सीधी अभिव्यक्ति कला में ढली हुई इन कविताओं की जीवंतता बनाए रखती है। कवि की दृष्टि बहु दिशात्मक तो है ही, अनेक भावस्पर्शी भी है। स्वानुभूत घटनाओं, विषयों, दृश्यों और चेहरों की महीन से महीनदर हकीकत को साहसिक शब्दों में प्रकट कर देना नवनीत जी की कलम की आदत है।’
हकीकत को साहसिक शब्दों में प्रकट कर देना संग्रह ‘जब भी देह होती हूं’ की कविताओं में भी देख सकते हैं। यहां जीवन के अनेक चित्र-घटना-प्रसंगों में स्त्री केंद्रित अनुभूतियों का बड़ा कोलाज प्रस्तुत हुआ है। समकालीन कविता के विषयों में स्त्री-पुरुष संबंध, परस्पर मनःस्थितियों पर तरल अनुभूतियों की अनेक कविताएं पहले से मौजूद हैं, किंतु नवनीत पाण्डे के यहां स्त्री देह के अनेक रूपों पर केंद्रित कविताओं को अनुपम समुच्चय में संजोते हुए उसे देह से इतर देखने-समझने-समझाने के सघन प्रयास किए गए हैं।
पुरुष समाज में स्त्री को केवल देह और उसके भोग के रूप में देखने और बरतने की बात नई नहीं है किंतु उसे बहुत कम शब्दों में कह देना कवि नवनीत की विशेषता है- ‘काम चाहिए/ जरूर मिलेगा/ भरपूर मिलेगा/ पर!/ पर!/ इतना भी नहीं समझती/ जब भी बुलाऊं/ आना होगा/ काम कराना होगा…. (कविता- ‘काम चाहिए’) कवि नवनीत पाण्डे कविता- ‘समझी!/ या अपनी तरह समझाएं….’ में लिखते हैं- ‘सवाल करने का हक/ सिर्फ हमें है/ और तुम्हें हमारे/ हर सवाल का जवाब देना होगा/ समझी!/ या अपनी तरह समझाएं….।’ इन कविताओं में पुरुष समाज का स्त्री और उसकी देह को अपने ढंग से समझने और समझाने का भरपूर अहम् भयावह रूप में मौजूद है। कवि स्त्री-पुरुष संबंधों में व्याप्त अव्यवस्थाओं को बहुत सहजता से खोलते हुए अपने पाठकों को सोचने पर मजबूर कर देता है कि यह हमारे आस-पास हमारी ही दुनिया में यह सब क्या हो रहा है? इससे भी बड़ी बात यह सोचने को प्रेरित करना है कि यह क्यों हो रहा है? आधुनिक से उत्तर आधुनिक समाज में ऐसी कुछ बातें अभी भी पुराने समय से रूढ़ बनी क्यों चली आ रही है, इसे कौन और कब बदलेगा?
इस संग्रह की भूमिका में प्रख्यात कवयित्री सुमन केशरी ने लिखा है- ‘नवनीत पाण्डे के इस संग्रह की कविताएं स्त्री को समर्पित हैं, किंतु वे अनेक सवाल उठाती हैं- वे स्त्री समाज द्वारा प्रदत्त कर्तव्यों को ही अंतिम सत्य मान लेने से इनकार करती कविताएं हैं।’ संग्रह ‘जब भी देह होती हूं’ की कविताओं में स्त्री को उसकी अलग अलग अवस्थाओं में लक्षित कर देखने-परखने अथवा मुखरित करने के अनेक बिंब मौजूद हैं, जिनसे इनकी केंद्रीय चेतना किसी भी अंतस को प्रकाशवान बनने में अपनी भूमिका रखती है। शिल्प के स्तर पर अपनी लय को साधती इन कविताओं का कैनवास इक्कीसवीं शताब्दी के पूरे परिदृश्य को प्रस्तुत करते हुए हमारे विकास और सभ्यता के संदर्भों पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न भी अंकित करता है। यही नहीं इन कविताओं सेगुजरने के बाद हमारे भीतर संवेदनाओं की लहरें उठती हैं, जो बड़े परिवर्तन की मांग है। संभवतः किसी रचना का यही बड़ा उद्देश्य होता है अथवा होना चाहिए।
अंत में नवनीत पाण्डे के संग्रह ‘सुनो मुक्तिबोध एवं अन्य कविताएं’ से ‘चाह नहीं’ कविता को उदाहरण के रूप में देखना उचित होगा जो उन्होंने अग्रज पुरोधा कवि माखन लाल चतुर्वेदी की प्रसिद्ध कविता से प्रेरित होकर पैरोड़ी के रूप में प्रस्तुत की है। ‘चाह नहीं/ पुरस्कारों-सम्मानों से तौला जाऊं/ चाह नहीं/ आलोचकों, आलोचना से मौला जाऊं/ चाह नहीं/ झूठी तारीफों, प्रशंसाओं से फूला जाऊं/ चाह नहीं/ अधर आसमानी झूलों झूले खाऊं/ पाठक मेरे कर पाओ तो/ काम ये करना नेक/ जहां-जहां हो संघर्ष हकों के/ शब्द मेरे तुम! देना फेंक।’ यह संघर्ष और इस संघर्ष को शब्द देना ही नवनीत पाण्डे की कविताओं का उद्देश्य रहा है। वे ऐसे कवि है जिन पर आलोचना ने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया वे ऐसे कवि है जिन्हें मान-सम्मान और बड़े पुरस्कारों से नवाजा नहीं गया फिर भी सतत सक्रिय रहते हुए जीवन के राग-विराग में अपने संग्रह ‘तटस्थ कोई नहीं होता’ में हमें तटस्थ होने का एक स्वप्न सौंपते हैं। हमारे समक्ष हमारे समय की एक ऐसी सच्चाई रखते हैं जिसका सरोकार हम सभी से है। यही नवनीत पाण्डे की कविता-यात्रा में एक बड़ी उपलब्धि है।