प्रदीप शर्मा
निश्चय ही इसे भारत व पाक के संबंधों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण कहा जा सकता है। पाक के पूर्व प्रधानमंत्री तथा वर्तमान सत्ता की धुरी नवाज शरीफ ने अब पच्चीस साल बाद माना है कि उनके देश ने 1999 के लाहौर घोषणापत्र का उल्लंघन किया था। निश्चित रूप से इस स्वीकारोक्ति ने एक बार फिर कारगिल युद्ध के गहरे जख्मों को फिर से हरा कर दिया है। दरअसल, मंगलवार को सत्तारूढ़ पीएमएल-एन के अध्यक्ष पद की ताजपोशी के वक्त पार्टी की जनरल काउंसिल की बैठक में नवाज शरीफ ने यह बात कही। अपरोक्ष रूप से पाकिस्तान ने स्वीकार किया है कि भारत की पहल पर शुरू की गई शांति की पहल को इस घटनाक्रम ने पलीता लगाया था। यह एक हकीकत है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शांति प्रयासों व उनकी लाहौर यात्रा को कारगिल के घात से आघात लगा था। जिसके चलते 21 फरवरी 1999 को हस्ताक्षरित लाहौर घोषणा से क्षेत्र में शांति व स्थिरता की कोशिशों पर पानी फिर गया था।
समझौते के कुछ ही महीने बाद पाक सेना के संरक्षण में पाक घुसपैठियों की कोशिश ने फिर एक युद्ध जैसा रूप ले लिया था। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि शरीफ द्वारा पिछली गलती को स्वीकार करना क्या संबंधों में विश्वास बहाली का मार्ग प्रशस्त करना है या फिर कोई दुरभिसंधि की कोशिशें हैं? क्या वे पाक हुकमरानों को फिर से भारत के प्रति अपने दृष्टिकोण के पुनर्मूल्यांकन के लिए प्रेरित कर रहे हैं? क्या शरीफ का नेतृत्व आत्मनिरीक्षण के जरिये दोनों देशों के संबंधों को फिर से पटरी पर लाने की ईमानदार कोशिश कर रहा है? बहरहाल, भारत व पाक संबंधों की वर्तमान स्थिति के मद्देनजर शरीफ का कबूलनामा व्यापक भू-राजनीतिक संदर्भों में महत्वपूर्ण पहल कही जा सकती है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि वर्ष 2019 के पुलवामा हमले के बाद दोनों देशों के राजनयिक संबंध बेहद खराब दौर में पहुंच गये थे। जिसके बाद दोनों देशों ने अपने मिशनों का स्तर तक कम किया था।
बहरहाल, अस्थिरता से घिरे इस क्षेत्र में नवाज शरीफ की हालिया टिप्पणी संबंधों में सुधार-सुलह के लिये एक नई खिड़की तो खोलती ही है। निश्चित रूप से वक्त का तकाजा है कि ऐतिहासिक कटुताओं को पार्श्व में रखकर कूटनीतिक रणनीतियों पर नये सिरे से विचार किया जाए। यह भी जरूरी है कि बातचीत के लिये नये रास्ते तलाशने हेतु इस मौके को अवसर में बदला जाए। भले ही पाकिस्तान आर्थिक व राजनीतिक रूप से बेहद कमजोर स्थिति में हो , हमें भविष्य मे शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की संभावनाओं को फिर से परिभाषित करने का प्रयास करना चाहिए। शरीफ के बयान को इसलिए भी महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए कि फिलहाल पाकिस्तान में नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री हैं। साथ ही नवाज सत्तारूढ़ दल पीएमएल-एन के अध्यक्ष चुने गये हैं।
कहीं न कहीं शरीफ के हालिया बयान का एक निष्कर्ष यह भी हो सकता है कि पाकिस्तान में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकारें तो दोनों देशों के बेहतर संबंध बनाने के लिये प्रयत्नशील रहती हैं लेकिन ऐसी कोशिशों को पलीता लगाने का काम पाक सेना करती है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि भारत पर हुए तमाम बड़े आतंकवादी हमले बिना पाक सेना की ट्रेनिंग व मदद के संभव नहीं थे। आतंकवादियों को मिला परंपरागत सेना जैसा प्रशिक्षण ही भारतीय सेना व सुरक्षा बलों के लिए मुश्किलें पैदा करता रहा है। हाल-फिलहाल भी सेना परदे के पीछे से पाकिस्तान की सियासत को नियंत्रित करती रही है। हालांकि, भारत ने वर्ष 2014 के बाद भी पाक से संबंध सुधारने के प्रयास किये थे, लेकिन राजग सरकार का मानना रहा है कि आतंकवादियों पर सख्त नियंत्रण के बिना संबंध सामान्य बना पाना संभव नहीं है। पठानकोट व पुलवामा के हमलों ने यह दर्शाया कि पाक बात व घात के खेल को साथ-साथ चलाना चाहता है। ऐसे में जब भारतीय आम चुनाव की प्रक्रिया अंतिम चरण में है, तो नया जनादेश पाने वाली सरकार ही दोनों देशों के संबंधों की दशा-दिशा तय करेगी।