
प्रमोद भार्गव
भारत का पड़ोसी देश नेपाल जबसे कम्युनिस्ट देश बना हैं, तब से चीन के दबाव के चलते यहां लगातार अस्थिरता बनी हुई है। इस बार नेपाल भीशण संकट में है। यह संकट इसलिए बढ़ा, क्योंकि राजशाही खत्म होने के बाद संघीय सरकार से युवाओं को अपेक्षा थी कि देश में राजनीतिक स्थिरता तो कायम होगी ही, सरकारी नौकरियों और अन्य रोजगारों की संभावना भी बढ़ेगी। लेकिन 17 साल के गैर राजतांत्रिक नेपाल में 15 सरकारें तो बदलीं, परंतु हालात नहीं बदले। इसी बीच राजशाही और नेपाल को हिंदू राष्ट्र बनाने की मांगे भी उठती रही हैं। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि सोशल मीडिया पर वायरल हुए वीडियो से जनता को पता चला कि मंत्री और उनके परिजन देश-विदेश में ऐशोआराम की जिंदगी जी रहे हैं। उनके बच्चे विदेशों में अच्छी शिक्षा ले रहे हैं। ब्रांडेड सामान के साथ फाइव स्टार जीवन विदेशों में व्यतीत कर रहे हैं। इस वैभव की पृष्ठभूमि में सरकारी स्तर पर फैले भ्रष्टाचार को मुख्य कारण माना। जबकि गरीब युवा प्रतिदिन तीन हजार से ज्यादा की संख्या में पलायन करने को विवश हो रहे हैं। इस आंदोलन को पहले दक्षिणपंथी करार देने की कोशिशें हुईं, लेकिन वास्तव में यह आक्रोश उस कुंठा के चलते उपजा जो नेताओं और उनके परिजनों के वीडियों में भोग-विलास का जीवन जीते हुए दिखा।
नेपाल में हिंसा और अराजकता इस हद तक फैली कि आंदोलनकारियों ने संसद भवन , प्रधानमंत्री, राश्ट्रपति और मंत्रियों तक के घर जला दिए। प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को इस्तीफा देना पड़ा और पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा की पत्नी को जिंदा जला दिया। देश की सत्ता की इस राख में 22 युवाओं की सेना और पुलिस की गोलाबारी में हुईं मौतों की राख भी मिल गई। इस आंदोलन को सोशल मीडिया के साथ खासतौर से जेन-जी पर पाबंदी माना जा रहा है। हालांकि यह रोक युवाओं का आक्रोश देखने के बाद हटा ली गई थी। जेन-जी यानी जेनरेशन-जेड का बोध कराने वाली वह पीढ़ी है, जिनका जन्म 1997 से लेकर 2012 के बीच हुआ है। यानी वर्तमान में ये आंदोलनकारी किशोर एवं युवा हैं। इस आग में घी डालने का काम सुदन गुरुंग और बालेन शाह ने जेन-जी पर उपस्थित दर्ज कराकर कर दिया। सुदन ओली सरकार के खिलाफ भ्रश्टाचार और परिवारवाद की मुहिम पूर्व से ही चला रहे थे। कुछ नेताओं की बढ़ती संपत्ति के विरुद्ध भी मोर्चा खोले हुए थे। इसी बीच 4 सितंबर को सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगा दिया गया तो राजधानी काठमांडू के महापौर बालेन शाह सक्रिय हो गए। उन्होंने सोशल मीडिया एक्सेस किया और लिखा, ‘कल की रैली जेन-जी की रैली है। इस रैली में कोई भी पार्टी, नेता, सांसद एवं कार्यकर्ता को निजी लाभ के लिए शामिल होने की जरूरत नहीं है। उम्र के कारण मैं जा नहीं सकता, लेकिन मेरा पूरा समर्थन है।‘ बालेन के चाहने वाले लाखों में हैं। इस पोस्ट को 20,000 से ज्यादा लोगों ने साझा किया। देखते-देखते आंदोलन की दशा और दिशा तय हो गई और लाखों युवा आंदोलन के लिए काठमांडू की सड़कों पर उतर आए। संसद और राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया, प्रधानमंत्री आवास पर पत्थरबाजी की और पूरे शहर में ऐसा तांडव मचाया कि सेना और पुलिस को नियंत्रण के लिए संयुक्त अभियान चलाना पड़ । नेपाल के इतिहास में इसे बड़ी तख्तापलट की घटना के रूप में देखा जा रहा है। इससे पहले बांग्लादेश और श्रीलंका में भी इसी तरह का जनआक्रोश फूट चुका है। वहां की सरकारें अपदस्थ हुई हैं।
नेपाल में हिंदू राष्ट्र घोषित किए जाने की मांग भी लंबे समय से उठ रही है। वहां अनेक संगठन सड़कों पर उतरकर राजशाही के पक्ष में आंदोलन कर चुके हैं। इस मांग में पुरुशों के साथ महिलाएं भी कंधे से कंधा मिलाकर आंदोलन में षामिल रही हैं। इस मांग को मुख्य रूप से राश्ट्रवादी राश्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी कर रही है। यह नेपाल की पांचवीं सबसे बड़ी पार्टी है। इस दल के प्रवक्ता मोहन श्रेष्ठ की मांग है कि नेपाल में राजशाही की पुनर्बहाली हो और इसे हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाए। नेपाल को 2007 में पंथनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया था। नतीजतन 2008 में राजशाही व्यवस्था समाप्त कर दी गई थी। 2008 में नेपाल के गणराज्य बनने के बाद से कारोबारी दुर्गा प्रसाई आंदोलन को हवा दे रहे हैं। एक समय प्रसाई के प्रधानमंत्री प्रचंड और ओली के साथ घनिष्ठ संबंध थे, लेकिन बाद में वे दोनों के आलोचक हो गए। इसी समय राजशाही के दौर में गृहमंत्री रहे कमल थापा ने हिंदू राष्ट्र की मांग के लिए नया गठबंधन बना लिया है। पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र शाह भी एकाएक सक्रिय होकर सार्वजनिक कार्यक्रमों में भागीदारी करने लगे हैं। वह मंदिरों में होने वाली पूजा में शामिल हो रहे हैं।
दरअसल नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी का चीन की गोद में बैठना और भारत विरोधी अभियान चलाना देश की जनता को नागवार गुजर रहा है। नेपाल के मुसलमान भी देश को हिंदू राष्ट्र बनाने के पक्ष में हैं। समाज के कुछ नेताओं का मानना है कि हिंदू राष्ट्र का दर्जा खत्म होने के बाद से नेपाल में ईसाई मिशनरियां ज्यादा सक्रिय हो गई हैं। मिशनरी इस स्थिति का फायदा उठाकर लोगों का धर्म परिवर्तन करवा रही हैं। यूसीपीएन माओवादी के मुस्लिम मुक्ति मोर्चा भी मिशनरियों के बढ़ते प्रभाव को स्वीकार नहीं करता है। राष्ट्रवादी मुस्लिम मोर्चा भी देश की धर्मनिरपेक्ष पहचान नहीं चाहता है। 80 फीसद मुस्लिम आबादी देश की हिंदू पहचान बहाल करने के पक्ष में है।
गौरतलब है कि राजनीतिक दलों के बीच नए संविधान में देश की धर्मनिरपेक्षता की पहचान खत्म करने को लेकर सहमति बनी थी। इसके बाद से यह मांग और तेज हो गई है। देश के सभी समुदाओं के लोग मानते हैं कि पुरानी हिंदू पहचान की बहाली का कोई विकल्प नहीं है। धर्मनिरपेक्षता हिंदू-मुस्लिम एकता तोड़ने की साजिश है। दरअसल सात साल पहले दो नेपाली युवकों को बुटवॉल में पुराने राष्ट्रगान को गाने की वजह से पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। इसके बाद से ही पूरे नेपाल में इस राष्ट्रगान को गाने का सिलसिला चलने के साथ हिंदू राज की पुनर्स्थापना की मांग उठ रही है।
हिमालय की गोद में बसा नेपाल एक छोटा और सुंदर देश है। पूरी दुनिया में नेपाल ही एकमात्र ऐसा देश है, जिसे आज तक कोई दूसरा देश परतंत्र नहीं बना पाया। इसलिए यहां स्वतंत्रता दिवस नहीं मनाया जाता। किंतु चीन के लगातार बढ़ रहे हस्तक्षेप के चलते लोगों को लगने लगा है कि कहीं यह हिंदू धर्मावलंबी देश अपनी मौलिक संस्कृति व स्वतंत्रता न खो दे ? नेपाल एक दक्षिण एशियाई देश है। नेपाल के उत्तर में चीन का स्वायत्तशासी प्रदेश तिब्बत है। जिसे चीन निगलता जा रहा है। दक्षिण पूर्व व पश्चिम में भारत की सीमा लगती है। नेपाल की 85.5 प्रतिशत आबादी हिंदू है, इसलिए वह प्रतिशत के आधार पर सबसे बड़ा हिंदू धर्मावलंबी देश है। नेपाल में लंबे समय तक राजशाही रही है। किंतु राजशाही के खूनी दुखद अंत के बाद यहां माओवादी नेता प्रचंड के प्रधानमंत्री बनने से सामंतशाही सिमटती चली गई और 18 मई 2006 को राजा के अधिकारों में कटौती कर नेपाल को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित कर माओवादी लोकतंत्र की शुरूआत हो गई। तभी से चीनी हस्तक्षेप के चलते यहां के मूल स्वरूप को बदलने के अलावा भारत के साथ संबंध खराब होने की शुरुआत भी हो गई थी। केपी शर्मा ओली के प्रधानमंत्री रहते हुए चीन के दबाव में न केवल भारत से शत्रुतापूर्ण संबंधों की बुनियाद रखी थी, बल्कि चीनी सेना को खुली छूट देकर अपनी जमीन भी खोना शुरू कर दी। जाहिर है, नेपाल में लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना तो हो गई, लेकिन लचर नेतृत्व के चलते यह देश अपना अस्तित्व खोने की कगार पर आ खड़ा हुआ है। इसी चिंता से यह आक्रोश उपजा है।
हमारे पड़ोसी देशों में नेपाल और भूटान ऐसे देश हैं, जिनके साथ हमारे संबंध विश्वास और स्थिरता के रहे हैं। यही वजह है कि भारत और नेपाल के बीच 1950 में हुई सुलह, शांति और दोस्ती की संधि आज भी कायम है। नेपाल और भूटान से जुड़ी 1850 किमी लंबी सीमा रेखा बिना किसी पुख्ता पहरेदारी के खुली है। बावजूद चीन, पाकिस्तान और बांग्लादेश की तरह कोई ठोस विवाद नहीं है। बिना पारपत्र के आवाजाही निरंतर जारी है। करीब 60 लाख नेपाली भारत में काम करके रोजी-रोटी कमा रहे हैं। 3000 नेपाली छात्रों को भारत हर साल छात्रवृत्ति देता है। नेपाल के विदेशी निवेश में भी अब तक का सबसे बड़ा 47 प्रतिशत हिस्सा भारत का है। बावजूद यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि नेपाल का झुकाव चीन की ओर बढ़ता जा रहा है। हालांकि नरेंद्र मोदी ने अगस्त 2014 में नेपाल की यात्रा करके बिगड़ते संबंधों को आत्मीय बनाने की सार्थक पहल की थी, किंतु भारतीय मूल के मधेषियों के आंदोलन ने इस पर पानी फेर दिया था।
नेपाल और चीन के बीच द्विपक्षीय संबंधों के तहत ऐतिहासिक पारगमन व्यापार समझौते समेत 10 समझौतों की शुरूआत करके नेपाल ने चीन से रिश्ते मजबूत कर लिए हैं। चीन और नेपाल के बीच तिब्बत के रास्ते रेलमार्ग बनाने पर भी संधि हुई है। चीन ने काठमांडू से करीब 200 किमी दूर पोखरा में क्षेत्रीय हवाई अड्डा निर्माण के लिए नेपाल को 21000 डॉलर का सस्ती ब्याज दर पर ऋण दिया है। मुक्त व्यापार समझौते पर भी हस्ताक्षर हुए हैं। नेपाल में तेल और गैस की खोज करने पर भी चीन सहमत हुआ है। इसके लिए वह नेपाल को आर्थिक और तकनीकी मदद देने को राजी हो है। चीन ने नेपाल में अपने व्यावसायिक बैंक की शाखाएं भी खोल दी हैं। नेपाली बैंक भी अपनी शाखाएं चीन में खोल रहे हैं। संस्कृति, शिक्षा, भाषा और पर्यटन जैसे मुद्दों पर भी चीन का दखल नेपाल में बढ़ गया है। अर्से से इन्हीं कुटिल कूटनीतिक चालों के चलते कम्युनिष्ट विचारधारा के पोषक चीन माओवादी नेपालियों को अपनी गिरफ्त में लेकर अपनी साम्राज्यवादी लिप्सा को आगे बढ़ा रहा है। इस चीनी लिप्सा के प्रतिरोध में भी यह संकट देखा जा रहा है।अतएव इस तत्काल के संकट को किसी एक दृष्टिकोण से देखा जाना भूल होगी।