लोकतांत्रिक शासन में पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और संस्थागत समीक्षा की नई पहल
मंत्रियों के कार्य-काज की नियमित रिपोर्ट तैयार की जाए।रिपोर्टों की समीक्षा सदन के अध्यक्ष द्वारा की जाए। प्रक्रिया से पारदर्शिता, कार्यक्षमता और जवाबदेही बढ़ेगी। लोकतांत्रिक नियंत्रण और तटस्थ मूल्यांकन को संस्थागत रूप मिलेगा।
डॉ सत्यवान सौरभ
लोकतंत्र की सफलता केवल जनता की भागीदारी पर निर्भर नहीं करती, बल्कि इससे भी अधिक इस बात पर आधारित होती है कि शासन-तंत्र कितना जवाबदेह, पारदर्शी और परिणामोन्मुख है। भारत जैसे विशाल और बहुस्तरीय लोकतंत्र में यह प्रश्न कई गुना अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या मंत्री—जो विभिन्न मंत्रालयों के शीर्ष प्रशासक हैं—अपने विभाग के कार्य, नीतियों और दैनिक प्रशासनिक निर्णयों के प्रति पर्याप्त रूप से उत्तरदायी हैं? समय-समय पर यह चिंता व्यक्त की जाती रही है कि शासन में पारदर्शिता की कमी, जवाबदेही का अभाव और नीतिगत अस्पष्टता जैसी समस्याएँ निर्णय-प्रक्रिया को कमजोर करती हैं।
इन्हीं परिस्थितियों में यह विचार उभरता है कि मंत्रियों के कार्य-काज की नियमित रिपोर्ट तैयार की जाए और उसकी समीक्षा सदन के अध्यक्ष द्वारा की जाए। यह प्रस्ताव मात्र प्रशासनिक सुधार नहीं है; यह लोकतांत्रिक व्यवस्था में शक्ति-संतुलन, नैतिक जिम्मेदारी और जन-विश्वास को सुदृढ़ करने की दिशा में उठाया गया महत्वपूर्ण कदम है।
भारत की संवैधानिक संरचना में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन अत्यंत महत्वपूर्ण है। कार्यपालिका के रूप में मंत्री शासन-व्यवस्था की धुरी होते हैं, परंतु उनकी जवाबदेही अक्सर केवल चुनावी परिणामों या राजनीतिक आलोचनाओं तक सीमित रह जाती है। यदि इनके दायित्वों और निर्णयों का नियमित आकलन एक संस्थागत प्रक्रिया के अंतर्गत हो, तो शासन न केवल अधिक पारदर्शी होगा बल्कि जनता के प्रति अधिक उत्तरदायी भी बन सकेगा।
मंत्रियों की कार्य-रिपोर्ट तैयार करने का विचार शासन के उस बुनियादी सिद्धांत को मजबूत करता है, जिसमें कार्यपालिका को अपनी प्रत्येक गतिविधि का तर्कसंगत विवरण देना होता है। एक व्यवस्थित रिपोर्ट मंत्री को बाध्य करती है कि वह अपने विभाग की वास्तविक स्थिति, योजनाओं की प्रगति, वित्तीय उपयोग, चुनौतियों और भविष्य के लक्ष्यों को सत्य और स्पष्ट रूप में वर्णित करे। यह दस्तावेज़ किसी राजनीतिक भाषण या प्रचार की तरह नहीं, बल्कि शासन का एक प्रामाणिक रिकॉर्ड बनता है।
यदि इस रिपोर्ट की समीक्षा सदन अध्यक्ष द्वारा की जाती है, तो इसकी विश्वसनीयता और गंभीरता दोनों ही बढ़ जाती हैं। सदन अध्यक्ष भारतीय लोकतंत्र में तटस्थता के सर्वोच्च प्रतीक माने जाते हैं। उनकी भूमिका केवल सदन की कार्यवाही का संचालन करने तक सीमित नहीं होती, बल्कि वे विधायी नैतिकता और संसदीय मर्यादाओं के संरक्षक भी होते हैं। उनकी समीक्षा एक निष्पक्ष, संतुलित और राजनीतिक प्रभाव से मुक्त दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है।
यह तर्क दिया जा सकता है कि ऐसी प्रणाली मंत्री की स्वतंत्रता को सीमित कर देगी। परंतु यह समझना आवश्यक है कि लोकतंत्र में किसी भी पद की स्वतंत्रता जिम्मेदारी के साथ जुड़ी होती है, उससे अलग नहीं होती। जब एक मंत्री जानता है कि उसके प्रत्येक निर्णय का औपचारिक दस्तावेज़ बनकर समीक्षा के लिए जाएगा, तो वह नीतिगत गंभीरता और प्रशासनिक अनुशासन को और मजबूत रूप से अपनाता है।
इसके साथ ही, एक ऐसी रिपोर्टिंग व्यवस्था शासन में निरंतरता भी सुनिश्चित करती है। मंत्रालयों में मंत्रियों का परिवर्तन सामान्य प्रक्रिया है, परंतु अक्सर नीतियाँ इसी संक्रमण में कमजोर पड़ जाती हैं क्योंकि नई नेतृत्व टीम को पिछली प्रगति की सटीक जानकारी नहीं मिल पाती। नियमित रिपोर्टें इस समस्या का समाधान प्रस्तुत करती हैं। इससे शासन में न केवल पारदर्शिता बढ़ती है बल्कि नीतिगत निरंतरता और प्रशासनिक स्थिरता भी सुनिश्चित होती है।
दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों में ऐसी व्यवस्थाएँ पहले से मौजूद हैं। ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देशों में मंत्रियों की नियमित रिपोर्ट संसद या उसकी समितियों के समक्ष प्रस्तुत की जाती है। यह प्रक्रिया दिखाती है कि जवाबदेही केवल राजनीतिक आलोचना का विषय नहीं है, बल्कि शासन का एक अनिवार्य अंग है। भारत में यदि यह प्रणाली लागू होती है, तो यह वैश्विक मानकों के अनुरूप एक आधुनिक और पारदर्शी प्रशासनिक ढाँचा स्थापित करने की दिशा में बड़ा कदम होगा।
ऐसी रिपोर्टिंग प्रणाली का एक अन्य महत्त्वपूर्ण पक्ष जनता का अधिकार है। भारत में नागरिक बार-बार यह भावना व्यक्त करते हैं कि शासन-तंत्र उनके प्रति पर्याप्त रूप से पारदर्शी नहीं है। योजनाओं की प्रगति, बजट का वास्तविक उपयोग और समय-सीमाएँ अक्सर अस्पष्ट रहती हैं। इस प्रस्ताव के लागू होने से जनता को भी मंत्रालयों के कार्य-काज का प्रामाणिक सार सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराया जा सकता है, जिससे एक स्वस्थ लोकतांत्रिक संवाद स्थापित होगा।
सदन अध्यक्ष द्वारा की गई समीक्षा आलोचना का रूप नहीं होगी; यह सुधारात्मक प्रक्रिया का एक हिस्सा बनेगी। समीक्षा से मिली टिप्पणियाँ मंत्री के लिए दिशानिर्देश बन सकती हैं, जो विभाग की कार्यक्षमता और नीतियों की गुणवत्ता को और ऊँचा उठाने में मदद करेंगी। जब तंत्र निष्पक्ष निगरानी के साथ चलता है, तो लापरवाही और विलंब जैसी समस्याएँ स्वतः ही कम हो जाती हैं।
यह प्रस्ताव शासन की उस बुनियादी धारणा को फिर से स्थापित करता है कि सत्ता का उद्देश्य केवल अधिकार नहीं, बल्कि कर्तव्य भी है। मंत्री जब अपने दायित्वों का नियमित लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं, तो वे न केवल प्रशासनिक पारदर्शिता में योगदान देते हैं, बल्कि लोकतांत्रिक नैतिकता को भी मजबूत करते हैं।
निष्कर्षतः, मंत्रियों की कार्य-रिपोर्ट और सदन अध्यक्ष द्वारा उसकी समीक्षा एक ऐसी पहल है जो भारत के लोकतंत्र को अधिक जीवंत, अधिक पारदर्शी और अधिक विश्वसनीय बना सकती है। यह प्रस्ताव शासन के प्रत्येक स्तर को उत्तरदायित्व के नए मानदंडों के तहत लाने की क्षमता रखता है। यह केवल प्रशासनिक सुधार नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक संस्कृति के उन्नयन की दिशा में ऐतिहासिक कदम है।
यदि भारत इस दिशा में आगे बढ़ता है, तो यह लोकतंत्र की वास्तविक भावना—जन-उत्तरदायित्व, सच्ची सेवा और पारदर्शी शासन—को और मज़बूत करेगा। ऐसी प्रत्येक पहल लोकतंत्र को सिर्फ़ एक शासन-व्यवस्था नहीं, बल्कि एक जीवंत और मूल्य-आधारित परंपरा बनाती है, जो समय के साथ और भी परिष्कृत होती जाती है।





