राजनेताओं को नया चलन, सपा सांसद पहले इतिहास को बिगाड़ेंगे फिर माफ़ी भी नहीं मांगेंगे

New trend among politicians, SP MPs will first distort history and then will not even apologize

अशोक भाटिया

इंडी गठबंधन में सहयोगी समाजवादी पार्टी ने मुस्लिम तुष्टिकरण की सारी हदें पार कर दी हैं। पहले तो सपाई सिर्फ मुस्लिम हितैषी बनते थे। औरंगजेब जैसे क्रूर शासकों के हिमायती बनते थे। लेकिन मुस्लिम प्रेम में समाजवादी पार्टी के नेता इतने गिर जाएंगे यह किसी ने सोचा भी ना होगा। इंडी गठबंधन और सपा हिंदुओं का गौरवशाली इतिहास बिगाड़ने में जुटी हुई है। अब राज्यसभा में समाजवादी पार्टी के सांसद रामजीलाल सुमन ने मुगलों से लोहा लेने वाले मेवाड़ के वीर योद्धा महाराणा संग्राम सिंह सांगा के खिलाफ बेहद अपमानजनक टिप्पणी कर दी है। उन्होंने राणा सांगा के वंशजों और उन्हें मानने वाले हिंदुओं को गद्दार तक कह डाला है। सपा सांसद की इस अभद्र, अशोभनीय, असभ्य और अनर्गल टिप्पणी को लेकर राजस्थान समेत देशभर की सियासत में उबाल आ गया है। भाजपा ने पलटवार करते हुए इसके लिए सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव से माफी मांगने के लिए कहा है। राजस्थान के सीएम भजनलाल ने कहा कि मेवाड़ के महान योद्धा राणा सांगा के बारे में समाजवादी पार्टी के सांसद का निम्नस्तरीय बयान, न केवल राजस्थान की 8 करोड़ जनता को, बल्कि सम्पूर्ण देशवासियों को आहत करने वाला है। समाजवादी पार्टी के सांसद रामजीलाल सुमन के राणा सांगा को गद्दार कहने का मुद्दा राजस्थान विधानसभा में गूंजा। कांग्रेस ने आपत्ति की तो भाजपा ने कहा कि इससे साफ तय हो गया कि आप लोग भी रामजीलाल सुमन के साथ हो।

समाजवादी पार्टी के सांसद रामजी लाल सुमन ने राज्यसभा में जो बयान दिया उससे पूरे देश में बवाल मचा हुआ है। सपा सांसद सुमन ने मुस्लिम तुष्टिकरण के चलते राणा सांगा को लेकर बयान में कहा था कि ‘बीजेपी के लोगों का ये तकियाकलाम बन गया है कि इनमें बाबर का DNA है। मैं जानना चाहूंगा कि बाबर को आखिर लाया कौन? सुमन ने अनर्गल दावा किया कि इब्राहिम लोदी को हराने के लिए बाबर को राणा सांगा लाया था। मुसलमान अगर बाबर की औलाद हैं तो तुम लोग उस गद्दार राणा सांगा की औलाद हो, ये हिन्दुस्तान में तय हो जाना चाहिए कि बाबर की आलोचना करते हो, लेकिन राणा सांगा की आलोचना नहीं करते। बता दें कि देश में पहले से औरंगजेब की कब्र को लेकर विवाद छिड़ा हुआ है। इसके बाद राणा सांगा पर विवादित बयान के बाद यह बहस और तेज हो गई है।

राजस्थान के साथ उत्तर प्रदेश की राजनीति में महाराणा सांगा विवाद गहराता जा रहा है। राणा सांगा को लेकर समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद रामजी लाल सुमन ने जो विवादित बयान दिया है। उन्होंने राज्यसभा में औरंगजेब विवाद पर अपना पक्ष रखा। सीधे तौर पर मुगल शासक बाबर को भारत में बुलाए जाने के लिए राणा सांगा को जिम्मेदार ठहराया। हालांकि, इतिहास में इसको लेकर अलग-अलग बातें लिखी हुई हैं। बावजूद इसके सदन के पटल पर समाजवादी पार्टी नेता के बयान ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में भूचाल ला दिया है। राजपूत समाज इस पूरे मामले को लेकर आक्रोशित है।

महाराणा सांगा पर की गई विवादित टिप्पणी के बाद इतिहासकारों और विशेषज्ञों के बीच भी एक नई बहस छिड़ गई है। इतिहासकारों का कहना है कि यह सत्य नहीं है कि महाराणा सांगा ने बाबर को भारत आने का न्योता भेजा था। बल्कि बाबर ने स्वयं संधि दूत के माध्यम से महाराणा सांगा के पास संदेश भेजा था। इसी को लेकर इतिहासकारों और विशेषज्ञों द्वारा तमाम तथ्यों को खंगालकर सत्य सामने लाने के प्रयास किए जा रहे हैं।

राजस्थान विश्वविद्यालय में इतिहास पर पीएचडी कर चुके प्रोफेसर वेदप्रकाश शर्मा ने बाबरनामा और अन्य ऐतिहासिक दस्तावेजों के हवाले से इस बारे में कुछ अहम जानकारियां साझा कीं। उन्होंने कहा, महाराणा सांगा भारतीय इतिहास के एक अमरवीर थे, जिन्होंने 1517 में खातोली और 1518 में बाड़ी के युद्ध में इब्राहिम लोदी को पराजित किया तथा फरवरी, 1527 में बाबर को कड़ी चुनौती दी। शर्मा ने कहा कि खातोली और खंडार जैसे युद्धों में लोदी को बुरी तरह पराजित करने के बाद भी क्या सांगा को लोदी को हराने के लिए बाबर को बुलाने की जरूरत थी।

उन्होंने आगे कहा कि महाराणा संग्राम सिंह (राणा सांगा) भारतीय इतिहास के एक महान योद्धा और कुशल रणनीतिकार थे। उन्होंने न केवल वीरता का परिचय दिया, बल्कि अपने शासनकाल में मेवाड़ को एक शक्तिशाली राज्य के रूप में स्थापित किया। उन्होंने खातोली (1517), बाड़ी (1518) और खानवा (1527) जैसे महत्वपूर्ण युद्धों में अपनी सैन्य रणनीति का परिचय दिया। उनकी सेना में राजपूतों के साथ-साथ अफगान, मराठा और आदिवासी सैनिक भी शामिल थे, जो उनकी कुशल सैन्य नीति को दर्शाता है। वे गुरिल्ला युद्ध और खुली लड़ाई दोनों में माहिर थे।

राणा सांगा ने राजपूत संघ की स्थापना कर राजपूत शक्ति को संगठित करने का प्रयास किया। उनके नेतृत्व में कई राजपूत राजा एकजुट हुए और विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ लड़े।उन्होंने दिल्ली सल्तनत के सुल्तान इब्राहिम लोदी, गुजरात के सुल्तान और मालवा के शासकों को युद्ध में पराजित किया। बाबर के विरुद्ध 1527 में खानवा का युद्ध लड़ा जो भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना के लिए निर्णायक युद्ध था।वे सभी धर्मों का सम्मान करते थे और उनकी सेना में विभिन्न जाति और समुदायों के लोग शामिल थे। उन्होंने अपने शासन में कठोर लेकिन न्यायपूर्ण प्रशासन लागू किया और प्रजा की भलाई के लिए कार्य किए। इसके अलावा उन्होंने गुजरात, मालवा और दिल्ली के शासकों के खिलाफ कूटनीतिक चालें चलीं, जिससे वे बार-बार अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाने में सफल हुए। उन्होंने अपने विरोधियों को पराजित कर राजस्थान और उत्तर भारत में अपनी शक्ति को सर्वोच्च स्थान दिलाया।वे मातृभूमि की रक्षा के लिए जीवन भर संघर्षरत रहे और कभी विदेशी ताकतों के सामने नहीं झुके। उनका जीवन और बलिदान राजस्थान का स्वाभिमान और राष्ट्रभक्ति का प्रेरणास्त्रोत बना। महाराणा सांगा न केवल राजस्थान बल्कि संपूर्ण भारत के इतिहास में एक अमर योद्धा और महान शासक के रूप में जाने जाते हैं। उनकी वीरता, सैन्य कौशल और कूटनीतिक कुशलता ने भारतीय उपमहाद्वीप की राजनीति को गहराई से प्रभावित किया। उनका जीवन युद्ध, संघर्ष, साहस और देशभक्ति की अद्वितीय मिसाल है।

इसी कड़ी में कानोड़िया पी.जी. महिला महाविद्यालय जयपुर की इतिहास विभाग अध्यक्ष डॉ. सुमन धनाका ने इस विषय पर अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा कि बाबरनामा में लिखा गया है कि महाराणा सांगा ने बाबर को भारत आने का निमंत्रण भेजा था, लेकिन हमें यह समझना होगा कि बाबरनामा स्वयं बाबर द्वारा लिखा गया ग्रंथ है, जिसमें उसने अपनी विजय को महिमामंडित किया है। इतिहास को केवल एक स्रोत से देखना सही नहीं होगा।इतिहासकारों ने बताया कि महाराणा सांगा के दरबारी पुरोहित बागेश्वर पुरोहित ने अपनी डायरी में इसका स्पष्ट विवरण दिया है। उनके वंशज अक्षय नाथ पुरोहित को यह डायरी प्राप्त हुई थी, जिसमें लिखा है कि बाबर ने महाराणा सांगा के पास संधि दूत भेजकर उनका सहयोग मांगा था, लेकिन महाराणा सांगा ने इसे अस्वीकार कर दिया था। हालांकि सलहदी के राजा ने महाराणा सांगा को इस प्रस्ताव को रणनीतिक रूप से स्वीकार करने की सलाह दी। सांगा ने इसे सीधे समर्थन के बजाय संधि के रूप में स्वीकार किया, लेकिन उन्होंने पानीपत के प्रथम युद्ध (1526) में कोई भाग नहीं लिया।

सवाल यही उठाना लाजमी है कि अतीत के सवालों को जिस आक्रामक तरीके से उठाया जा रहा है, उससे ऐसा लगता है कि इतिहास की कब्र में दफन मुर्दे उखाड़ना आज की राजनीति के लिए मौजूदा चुनौतियों से निपटने से ज्यादा जरूरी हो गया है। दरअसल, ऐतिहासिक प्रतीकों पर सरकारों को अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वाह करना होगा। इस बात की परवाह किए बगैर कि उससे उनकी सियासत पर क्या असर होता है। यह बात भी याद रखनी चाहिए कि हिंसा-अस्थिरता के माहौल में निवेशक पीछे हट जाते हैं, जिससे विकास गतिविधियों पर बुरा असर पड़ता है।राजनीतिक दलों को वक्त रहते इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि उनके तौर-तरीके देश और समाज को किस तरफ ले जा रहे हैं। वोट हासिल करना उनके अस्तित्व की सार्थकता का सिर्फ एक पहलू है। उन्हें जनकल्याण की ज्यादा बड़ी कसौटियों पर भी खुद को और अपनी नीतियों को कसना है।

अशोक भाटिया, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार