डॉ. प्रियंका सौरभ
नव वर्ष आते ही हमारे समाज में एक अजीब-सी हलचल शुरू हो जाती है। कैलेंडर बदलता है, मोबाइल पर शुभकामनाओं की बाढ़ आ जाती है, टीवी चैनलों पर “न्यू ईयर स्पेशल” कार्यक्रम चलने लगते हैं और हम सब एक-दूसरे को यह भरोसा दिलाने में जुट जाते हैं कि “इस साल सब अच्छा होगा।” लेकिन हर साल की तरह यह सवाल फिर वहीं खड़ा रह जाता है—क्या सचमुच कुछ नया होता है, या हम सिर्फ़ तारीख बदलकर पुराने ढर्रे पर ही चलते रहते हैं?
भारत जैसे देश में नव वर्ष केवल उत्सव नहीं, बल्कि आत्ममंथन का अवसर होना चाहिए। क्योंकि यहाँ नया साल हर किसी के लिए एक-सा नहीं होता। किसी के लिए यह छुट्टियों, पार्टियों और संकल्पों का समय है, तो किसी के लिए वही पुरानी सुबह—चार बजे की नींद, अधूरी इच्छाएँ और जिम्मेदारियों का अनवरत सिलसिला। माएँ, कामकाजी स्त्रियाँ, दिहाड़ी मजदूर, किसान, शिक्षक, नर्स, ड्राइवर—इनके जीवन में नया साल अक्सर सिर्फ़ कैलेंडर की एक और तारीख़ बनकर रह जाता है।
नव वर्ष की रात हम जिन रोशनियों, आतिशबाज़ियों और संगीत के बीच जश्न मनाते हैं, उन्हीं रातों में कोई माँ अगले दिन के टिफ़िन की चिंता में जल्दी सो जाती है। कोई मज़दूर अगली सुबह काम मिलेगा या नहीं, इसी उधेड़बुन में करवटें बदलता है। कोई किसान आसमान की ओर देखकर यह हिसाब लगाता है कि यह साल बारिश देगा या कर्ज़। हम अक्सर कहते हैं—“नया साल, नई शुरुआत।” लेकिन क्या यह नई शुरुआत सबके लिए संभव है?
जब तक समाज की संरचनाएँ वही रहती हैं, सोच वही रहती है, असमानताएँ वही रहती हैं, तब तक नया साल सिर्फ़ एक भावनात्मक भ्रम बनकर रह जाता है। असल में बदलाव तब आता है जब उत्सव के शोर के बीच हम उन आवाज़ों को भी सुनने लगें जो अक्सर दबा दी जाती हैं। नव वर्ष का वास्तविक अर्थ तभी बनता है जब हम यह स्वीकार करें कि हर व्यक्ति का जीवन एक-सा नहीं है और समान अवसर बिना समान दृष्टि के संभव नहीं।
नव वर्ष पर सबसे ज़्यादा शुभकामनाएँ स्त्रियों के नाम लिखी जाती हैं। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे हर परिस्थिति में मुस्कराती रहें, सब कुछ सँभाल लें और कभी शिकायत न करें। लेकिन शायद ही कोई उनसे यह पूछता है कि वे थकी हैं या नहीं, उन्हें भी रुकने की ज़रूरत है या नहीं। कामकाजी स्त्री का नया साल अक्सर पुराने संघर्षों के साथ शुरू होता है। उससे अपेक्षा की जाती है कि वह घर भी सँभाले, नौकरी भी करे, भावनात्मक संतुलन भी बनाए रखे और इन सबके बीच खुद को भूल जाए।
समाज उसकी सहनशीलता को उसकी ताक़त कहकर महिमामंडित करता है, लेकिन उस सहनशीलता के पीछे छिपी थकान को देखने से बचता है। अगर यह नव वर्ष सच में नया होना है, तो सबसे पहले हमें स्त्री को त्याग की मूर्ति नहीं, बराबरी का नागरिक मानना होगा। उसे यह अधिकार देना होगा कि वह थके, बोले, असहमत हो और अपने लिए भी समय माँगे।
नव वर्ष केवल व्यक्तिगत संकल्पों का विषय नहीं है, यह सामूहिक जिम्मेदारी का भी समय है। हम अक्सर अपने लिए संकल्प लेते हैं—ज़्यादा मेहनत करने का, ज़्यादा कमाने का, बेहतर जीवन जीने का। लेकिन समाज के लिए संकल्प बहुत कम लेते हैं। क्या हम यह तय कर सकते हैं कि घर के काम को “मदद” नहीं, “जिम्मेदारी” मानेंगे? क्या हम यह सोच सकते हैं कि बच्चों को केवल प्रतिस्पर्धा नहीं, संवेदना भी सिखाएँगे? क्या हम यह स्वीकार करेंगे कि हर इंसान की गति एक-सी नहीं होती?
परिवार ही समाज की पहली पाठशाला है। अगर घर में बराबरी नहीं होगी, तो समाज में कैसे होगी? अगर घर में स्त्री की थकान को सामान्य मान लिया जाएगा, तो बाहर उसके अधिकारों की बात खोखली लगेगी। नव वर्ष पर अगर कोई सच्चा संकल्प लिया जाना चाहिए, तो वह यही है कि हम अपने घरों से बदलाव की शुरुआत करें।
युवा पीढ़ी के लिए नव वर्ष सपनों और उम्मीदों का प्रतीक होता है। नए लक्ष्य, नई योजनाएँ और नई उड़ान। लेकिन आज का युवा भी कई दबावों में घिरा है—प्रतियोगिता, बेरोज़गारी, सामाजिक तुलना और डिजिटल दुनिया का मानसिक बोझ। हर नव वर्ष पर उससे कहा जाता है कि वह कुछ बड़ा करे, कुछ साबित करे। लेकिन शायद ही कोई यह कहता है कि अगर वह थक जाए तो रुकना भी ठीक है, अगर वह असफल हो जाए तो उसका जीवन समाप्त नहीं हो जाता।
यह नव वर्ष युवाओं को यह भरोसा दे कि उनका मूल्य केवल उनकी उपलब्धियों से नहीं आँका जाएगा। मानसिक स्वास्थ्य, आत्मसम्मान और संतुलन भी उतने ही ज़रूरी हैं जितनी सफलता। समाज को यह समझना होगा कि हर युवा मशीन नहीं है, बल्कि एक संवेदनशील इंसान है।
नव वर्ष पर सरकारें, संस्थाएँ और मीडिया विकास की नई योजनाओं की घोषणाएँ करते हैं। सड़कें, इमारतें, आँकड़े और लक्ष्य—सब कुछ विकास के नाम पर गिनाया जाता है। लेकिन विकास का अर्थ केवल भौतिक उन्नति नहीं हो सकता। असली विकास तब होता है जब समाज का आख़िरी व्यक्ति भी यह महसूस करे कि वह अकेला नहीं है, उसकी पीड़ा मायने रखती है।
जब तक संवेदना विकास की भाषा का हिस्सा नहीं बनेगी, तब तक नया साल केवल नई योजनाओं की सूची बनकर रह जाएगा। हमें यह सोचने की ज़रूरत है कि क्या विकास की दौड़ में हम इंसान होना तो नहीं भूल रहे। क्या लाभ और मुनाफ़े से आगे भी कुछ है जिसे बचाए रखना ज़रूरी है?
नव वर्ष का सबसे बड़ा अर्थ आत्ममंथन है। खुद से सवाल करने का साहस कि हम कहाँ चूके, किसके साथ अन्याय के गवाह बने और चुप रहे। यह आत्ममंथन व्यक्तिगत भी होना चाहिए और सामाजिक भी। क्योंकि जब तक हम अपनी भूमिका नहीं पहचानेंगे, तब तक किसी बदलाव की उम्मीद करना व्यर्थ है।
नया साल कैसा हो—यह तय करने की जिम्मेदारी भी हमारी ही है। अगर यह साल केवल शुभकामनाओं तक सीमित रह गया, तो यह भी बाकी सालों जैसा ही होगा। लेकिन अगर यह हमें थोड़ा ज़्यादा मानवीय, थोड़ा ज़्यादा जिम्मेदार और थोड़ा ज़्यादा न्यायपूर्ण बना सके, तो यही इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।
नव वर्ष कोई जादुई रेखा नहीं खींचता जो सब कुछ बदल दे। बदलाव हमसे आता है—हमारी सोच से, हमारे व्यवहार से और हमारे छोटे-छोटे निर्णयों से। अगर यह नव वर्ष हमें दूसरों की पीड़ा देखने, समझने और उसके प्रति संवेदनशील होने का अवसर दे सके, तो यही इसका वास्तविक उत्सव होगा।
क्योंकि नया साल तभी नया होता है,
जब समाज की दृष्टि नई हो।





