सुनील कुमार महला
मुझे याद आता है-तीस-पैंतीस बरस से भी ज्यादा बीत गए होंगे। मेरे घर में परिवार के सभी सदस्य आज भी अखबार पढ़ने के बड़े ही शौकीन हैं। इसके पीछे शायद कारण यह भी रहा कि मेरे दादाजी स्वयं पहले गांव-गुवाड़ में जाकर गांव के बीचों-बीच स्थित पीपल के गट्टे पर बैठकर अखबार पढ़ा करते थे। वे ग्रामीणों के साथ ताश खेलने के उद्देश्य से वहां हर रोज़ जाते थे, लेकिन जब भी ताश के गेम से फ्री होते तो पीपल गट्टे के साथ एक कोने में स्थित सेठ मनसुखलाल की दुकान से अखबार लाकर गट्टे पर बैठकर पढ़ा करते थे। दादाजी अपने जमाने के दस पढ़े-लिखे थे, इसलिए गांव के अन्य लोगों को देश-दुनिया की खबरें बांच-बांच कर सुनाया करते थे। खूब अच्छा डिस्कशन होता था देश-दुनिया की खबरों पर तब। पीपल का गट्टा शायद गांव-शहरों, विदेशों की खबरों का संवाद केंद्र सा बन गया था जैसे। दरअसल, मेरे दादाजी का यह मानना था कि अखबार पढ़ने से मनुष्य के समय का सदुपयोग होता है। उनका मानना था कि अखबार हमें फ़ालतू की गपशप, मिथ्या, झूठ, लड़ाई- झगड़े, द्वेष, ईर्ष्या, चोरी इत्यादि से बचाकर हमें सांसारिक ज्ञान प्रदान करता है। खैर, बाद में मेरे पिताजी ने दादाजी के अखबार पढ़ने के शौक और उनकी अखबार में विशेष रूचि के चलते एक न्यूज़पेपर हॉकर(न्यूज़बॉय) जिसका नाम पीटर था, से घर पर ही अखबार लगवा दिया था। तब गांव-गुवाड़ में टीवी भी नहीं हुआ करते थे, मनोरंजन का सबसे बेहतरीन और अच्छा साधन अखबार(समाचार-पत्र) ही थे। घर पर पिताजी ने अखबार क्या बंधवाया, अखबार पढ़ने के हम सभी इतने शौकीन हो गये थे कि हम किसी नशे की भांति इसके(अखबार के ) आदी हो गए थे। इतने शौकीन और आदी कि सुबह पांच बजते ही परिवार के सभी सदस्यों में अखबार पढ़ने की जैसे होड़-सी लग जाती। सर्दी हो, गर्मी हो, बारिश या कोई भी मौसम सभी अपने-अपने कमरों में अलसुबह भले ही अपने बिस्तर पर लेट रहें हों, या किसी काम में व्यस्त ही क्यों न हों, सबकी नजरें दरवाजे की दहलीज़ पर टिकी होतीं, कि कब न्यूज़पेपर हॉकर(न्यूज़बॉय) फुर्ती से अपनी पुरानी साइकिल पर आएगा और अखबार दरवाजे पर फेंककर चला जायेगा। जैसे ही न्यूज़पेपर हॉकर पीटर(जो उम्र में छोटा ही था) अपनी साईकिल की घंटी बजाता, दरवाजे की ओर यकायक ढेरों कदम एक साथ दौड़ पड़ते। ‘पहले मैं-पहले मैं’ की जैसे होड़ लग जाती। कभी छीना-झपटी तो कभी अखबार को लेकर आपसी तकरार तक भी हो जाया करती थी। जिस दिन अखबार पढ़ने को नहीं मिलता, उस दिन ऐसा लगने लगता जैसे आज दिमाग को उसकी खुराक़ नहीं मिली है। दरअसल,हमारे पेट की तरह ही हमारे दिमाग को भी हर रोज़ अपनी खुराक़ समय पर चाहिए होती है, जो अखबार से मिलती है।आज टीवी आ गये हैं, मल्टीप्लेक्स, इंटरनेट, सोशल नेटवर्किंग साइट्स का जमाना है। डिस्को-बार की भरमार है। हर कहीं पर सैलून हैं, मनोरंजन के अनेक साधन हैं, लेकिन जो मनोरंजन व ज्ञान अखबार में है, वहीं कहीं भी नहीं है। यहां तक कि मुझे भी अखबार पढ़ने के प्रति इतना जज्बा, जोश और नशा है कि धर्मपत्नी से भी बहुत बार अखबार पढ़ने पर बहस हो जाती है। अखबार न हुआ कोई प्रेमिका हो गई हो जैसे। खैर, पीटर पिछले आठ-दस महीनों से हमारे यहां अखबार डालता आया है। अक्सर अलसुबह अखबार डाल जाता है पीटर, लेकिन पिछले चार-पांच दिन बीते अखबार सुबह आठ बजे के बाद तक आने लगा। हर ऱोज मेरा दफ्तर का टाइम हो जाता, इसलिए अखबार को पढ़ना तो दूर सरसरी नज़र से देखना भी संभव नहीं हो पा रहा था। मैं अक्सर बिना अखबार पढ़े ही दफ्तर चला जाता। मन में अखबार न पढ़ने की खीज जरूर होती, लेकिन पीटर पर गुस्सा करते-करते दफ्तर की दुनिया में खो जाता और फिर अखबार- अखबार को भूल जाता। यह सिलसिला अगले पन्द्रह-बीस से भी ज्यादा दिन तक चला। पीटर रोज आठ बजे के बाद अखबार डाल रहा था।
कभी कभी तो नौ-साढ़े नौ भी बज जाया करते। इधर, आफिस व्यस्तताओं के बीच मुझे भी पीटर को यह कहने तक का भी समय नहीं मिल पाया कि -” बेटा ! समय पर अखबार डालकर जाया करो। शाम को बासी अखबार पढ़ने का कोई फायदा नहीं है। लेट आने पर न तो मैं, न ही मेरी धर्मपत्नी और न ही बच्चे, अखबार का मजा चख पाते हैं, क्यों कि सभी अपनी-अपनी दिनचर्याओं में व्यस्त हो जाते हैं।” बीस-पच्चीस दिन गुजरने के बाद एक दिन रविवार का दिन था, जब हम सभी देर सुबह तक सो रहे थे कि तभी दरवाजे पर पीटर की साईकिल की वार्निंग बेल(घंटी) ने मुझे सहसा ही नींद से जगा दिया । बाद में पता चला कि पीटर ने आज अखबार के तीन महीनों के बिल के भुगतान के संदर्भ में घंटी बजाई थी। मैं उठा और आंख मलते हुए दरवाजे की ओर आया। पीटर ने मुझसे कहा -‘ लीजिए बाबूजी आपके अखबार का तीन महीने का बिल।’ मैंने पीटर से अखबार का बिल लिया और पैसे चुकाकर उसे कहा-‘ बेटा पीटर ! आजकल अखबार बहुत लेट मिल रहा है, क्या बात है ? पहले तो साढ़े पांच बजे तक अखबार डाल दिया करते थे। आजकल तुम्हारी अखबार की टाइमिंग ठीक नहीं है।’ इस पर पीटर ने अपने सिर को खुजाते हुए थोड़ा झिझकते/सकपकाते हुए मुझसे कहा -‘ वो क्या है न बाबूजी ! रात को देर तक काटन फैक्ट्री में काम करना पड़ता है न ! आजकल महंगाई बहुत बढ़ गई है। हॉकर के काम से घर खर्च निकालना भी बहुत मुश्किल हो रहा है।
काटन फैक्ट्री में देर रात्रि तक काम करता हूं न, इसलिए सुबह जल्दी नींद ही नहीं खुल पाती, और फिर सुबह उठकर अखबार के साथ क्लासीफाइड और सप्ताह विशेष के सप्लीमेंट भी तो रोज़ डालने पड़ते हैं न ! कई बार अखबार में अलग से पैम्फलेट डालने के थोड़े बहुत पैसे अलग से मिल जाते हैं बाबूजी, पेट पालने की मजबूरी है, इसलिए लेट हो जाता हूं। बाबूजी एक न्यूज़पेपर हॉकर बहुत ही कठिन जिंदगी जीता है। बाबूजी मेरा हर दिन सुबह 4.30 बजे शुरू होता है। न कोई छुट्टी, न कोई हाफ-डे, न कोई रिलेक्स। सालभर में होली-दीवाली दो ही छुट्टियां आतीं हैं। बाबूजी ! मुझे हर सुबह 5:00 बजे समाचार पत्र एजेंसी पर पहुंचना होता है, ताकि मैं कालोनी के सैकड़ों घरों, दुकानों और व्यवसायों में 6 से 8 मील की दूरी तय करके समाचार पत्र समय पर पहुंचा सकूं। बाबूजी ! कुछ स्थानों पर तो पाँचवीं से आठवीं मंजिल तक पर अपार्टमेंट बनें हैं। बहुत बार तो सुबह सात बजे तक भी लिफ्ट चालू नहीं होती, वो क्या है कि लिफ्ट चालू करने वाला देर रात में ड्यूटी करने पर सुबह सात बजे तक भी सोया रहता है न ! इसलिए मुझे समाचार-पत्र सीधे ग्राहकों के दरवाजे तक पहुंचाने के लिए सैकड़ों सीढ़ियाँ हर रोज़ चढ़नी पड़ती हैं। बाबूजी मेरी साइकिल भी बहुत पुरानी हो गई है और मुझे अपनी साइकिल से यह रास्ता पूरा करने में लगभग दो घंटे से भी ज्यादा समय लग जाता है। अखबार बांटने के बाद मुझे स्कूल के लिए तैयार होने के लिए घर वापस भी जाना होता है। जून से सितंबर के मानसून के महीनों के दौरान तो बाबूजी मुझे अपना दिन बहुत पहले शुरू करना पड़ता है, और अखबार वितरित करने से पहले उन्हें प्लास्टिक से ढकने, उन्हें सैट करने/जंचाने में अतिरिक्त समय बिताना पड़ता है, ताकि अखबार बिना भीगे बिलकुल सुरक्षित आप सभी के बीच पहुंच सकें। बाबूजी जिन दिनों भारी बारिश होती है, उस दिन बारिश की बूंदें हम न्यूज़पेपर हॉकर्स के चेहरों पर पड़ती हैं, जिससे हमारा साइकिल चलाना मुश्किल और दुभर हो जाता है। बारिश कम होने तक हम हॉकर लोग सड़क किनारे की दुकानों के पास, तो कभी किसी टीन शैड, तो कभी किसी पेड़-पौधों के पास शरण लेते हैं। कभी-कभार तो अखबार बांटते समय ऐसे स्थानों पर होते हैं जहां बारिश से शरीर ढ़कने-छुपाने की जगह तक नहीं मिलती है। बाबूजी ऐसी स्थितियों में बारिश में बहुत बार मैं भीग जाता हूं, सर्दी-जुकाम भी पकड़ लेती है। न मेरे पास नया रेनकोट है और न ही ढंग के कपड़े-लत्ते। मेरी चप्पलें भी टूटी हुई हैं और चप्पलें कीचड़ से भरे छींटों से मेरे पैरों को ज़्यादा सुरक्षा नहीं दे पातीं हैं। भारी बारिश में अखबार का वितरण बहुत ही मुश्किल कार्य है। बारिश में तो कीचड़ में लथपथ हो जाता हूं बाबूजी। खैर , फिर भी आपको आगे से ऐसी शिकायत नहीं मिलेगी, आगे से आपको अखबार समय पर मिल जाया करेगा आपको। मैं इसका पूरा ध्यान रखूंगा बाबूजी। पाठकों को कभी भी कोई कष्ट नहीं होना चाहिए। हमें थोड़ा दुःख, तकलीफ़ भी तो क्या, ये हम
हॉकर्स की रोजी-रोटी है, काम है। इसी से हमारी जिंदगी जैसे-तैसे चलती है।’ मैं पीटर की बातें बहुत ही ध्यान से सुन रहा था।
हालांकि, मैं नींद से थोड़ा सुस्ता रहा था लेकिन पीटर की बातें सुनकर मेरी आंखों में जैसे एक नई रौशनी जगमगा उठी थीं। मैं सोच में खो गया था कि-‘ न्यूज़पेपर हॉकर्स तब जागते हैं, जब हम अपने घरों में चैन और आराम की नींद में सो रहे होते हैं। कम तनख्वाह में भी वे विकट जलवायु परिस्थितियों में भी संघर्षपूर्ण जीवन जीते हैं। बहुत बार न जाने अखबार की लेट-लतीफी को लेकर कितनी कितनी बातें लोगों के मुंह से सुनते हैं। भरी सर्दी और तेज बारिश में अखबार वितरण का काम कितना कठिन है, यह एक न्यूज़पेपर हॉकर ही जानता है। घरों में बंद होकर अखबार का इंतजार करने वाले लोग यह कभी नहीं जान सकते।’ मैं ऐसी सोच में खोया हुआ ही था कि मुझे पता ही नहीं चला कि पीटर कब अपनी साइकिल लेकर वहां से निकल पड़ा। मेरी तंद्रा तब टूटी जब मेरी धर्मपत्नी वान्या ने मुझे आवाज दी -‘ साहिल के पापा ! अब दरवाजे पर ही खड़े रहेंगे कि अंदर भी आयेंगे। अंदर आ जाइए ! चाय ठंडी हो रही है।’ धर्मपत्नी की आवाज सुनकर मैं घर के अंदर डायनिंग टेबल की ओर बढ़ा और चाय की चुस्कियां लेने लगा, लेकिन चाय की चुस्कियां लेते हुए भी मेरे मन में विचार उमड़ रहे थे कि ‘काश ! कोई न्यूज़पेपर हॉकर्स की पीड़ाओं और व्यथा को भी समझ सके।’
सुनील कुमार महला, फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार