आर.के. सिन्हा
राजू श्रीवास्तव के शीघ्र सेहमतमंद होने को लेकर सारा देश प्रार्थना कर रहा है। इस समय वह घड़ी याद आ रहा है जब अमिताभ बच्चन की “कुली” फिल्म की शूटिंग के दौरान उन्हें चोट लगने के बाद सारा देश उनके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना कर रहा था। राजू श्रीवास्तव ने स्टैंड अप कॉमेडियन के रूप में अपनी साफ-सुथरी कामेडी से करोड़ों लोगों को आनंद के पल दिये हैं। उनके काम में कभी भी अश्लीलता या टुच्चापन का कोई भाव नहीं रहा है। वे बेहद गंभीर किस्म के किन्तु, सदा मुस्कराते रहने वाले जिंदादिल इन्सान हैं । इससे साफ है कि कॉमेडी करना या व्यंग्य लिखना आपसे गंभीरता की मांग करता है। आमतौर पर समझा जाता है कि व्यंग्यकार या कॉमेडियन हंसौड़ किस्म के ही लोग होते होंगे। लेकिन यह बात सच से बहुत दूर है। मुझे 1989 में प्रख्यात कॉमेडियन महमूद से मिलने का अवसर मिला। हास्य सम्राट सुरेन्द्र शर्मा और प्रताप फौजदार तो भाई समान हैं हीI मैं उसके बाद जसपाल भट्टी से भी मिला। राजू श्रीवास्तव से तो मेरे घनिष्ठ संबंध हैं। उन्होंने मुझे सदा बड़े भाई का सम्मान दिया है I यकीन मानिए कि मुझे ये सब लोग बेहद धीर-गंभीर व्यक्तित्व के धनी लोग लगे। ये अपने आसपास से लेकर देश-दुनिया की गतिविधियों पर बातचीत के दौरान बहुत गंभीरता से रिएक्ट करते हैं। मुझे महान कार्टुनिस्ट सुधीर धर जी से भी लगातार बातचीत करने का मौका मिला । उनके चुटीले कार्टून देखकर-पढ़कर लाखों पाठकों के दिन का श्रीगणेश होता था। पर वे बहुत जहीन शख्स थे। गरीब-गुरबा के हकों के लिए लड़ते थे। तो कहने का तात्पर्य यह है कि कॉमेडी और व्यंग्य लेखन आपसे गंभीरता की उम्मीद करता है। सफल कॉंमेडियन होने के लिये बहुत अध्ययन, बुत ही कड़ी मेहनत करनी पड़ती है।
याद रखे कि एक जागरुक कॉमेडियन या व्यंग्यकार अपने समाज में व्याप्त विसंगतियों, विडम्बनाओं, परम्पराओं, संस्कृति आदि का साक्षी होता है और उन्हीं में से अपने रचनाकर्म के लिए कथ्य चुनता है। राजू श्रीवास्तव अपने परिवेश और समाज से रु-ब-रु रहे हैं और अपनी पैनी दृष्टि से उसको देखते और उनपर सटीक व्यंग करते हैं। उन्होंने बेहद सरल और बेहद गूढ़ दोनों ही तरह के विषयों के साथ न्याय़ किया है। उन्हें ज़िन्दगी में गहरा विश्वास है और वे जीवन रस की अंतिम बूँद तक का अनुभव करना चाहते हैं। वही उनके व्यंग्य की धार इतनी तेज होती है कि वह श्रोताओं के मन को छू जाती है।
दरअसल राजू श्रीवास्तव का उद्देश्य मात्र मनोरंजन करना भर ही नहीं है। वे क़ॉमेडी के माध्यम से समाज को जागृत करते हैं। यही बात व्यंग्य़ लेखकों के संबंध में भी कही जा सकती है। आज व्यंग्य लेखन में गुणवत्ता की जगह गणना हो रही है। व्यंग्य का पाठक विशिष्ट होता है। ऐसे में व्यंग्यकार में बौद्धिक गाम्भीर्य होना चाहिए। व्यंग्य को सम्प्रेषणीय बनाने में शिल्प, अच्छी व चुटीली भाषा की ज़रूरत होती है। व्यंग्य लिखना दायित्त्व भरा कार्य है, इसलिए व्यंग्य लिखने के लिए एक विशिष्ट दृष्टिकोण की ज़रुरत होती है। व्यंग्यकार में यही दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण है। व्यंग्य लिखने के लिए जनमानस से जुड़ाव बहुत ही ज़रूरी है। व्यंग्य सताये हुए लोगों को ताकत देने वाला होना चाहिए। व्यंग्य लिखने से पहले आप में बेचैनी नहीं हो, तो लिखना कभी सार्थक नहीं हो सकता।
राजू श्रीवास्तव की कॉमेडी समाज को जितना हंसाती है उतना ही नंगा भी करती है। वे हमारी खोखली राजनीतिक और सामाजिक तानेबाने को बहुत ही करीब से पकड़ते हैं। वे अपन प्रिय पात्र “गजोधर भैया” के जरिये वे बहुत कुछ कहते हैं। राजू श्रीवास्तव की कॉमेडी में सबसे बड़ी बात ये रही है कि उसमें किस्सागोई का पुट खूब होता है और यही किस्सागोई लोगों को उनसे बांधकर रखती थीं। उस किस्सागोई में हर किसी के समाज और जिंदगी की झलक होती है । सबका दुःख, सुख उससे जुड़ जाता था। वो जब उत्तर प्रदेश की एक शादी के माहौल का वर्णन करते हैं या फिर “गजोधर भैया” पात्र के बहाने व्यंग्य किया करते हैं तो हर किसी को लोटपोट कर देते हैं । राजू श्रीवास्तव के लालू यादव अंदाज वाले किरदार ने न केवल बिहार के लोगों का दिल में घर बनाया, बल्कि लालू यादव को देश-विदेश में भी मशहूर कर दिया। दोनों एक दूसरों को भरपूर प्रेम भी करते हैं। राजू श्रीवास्तव सच्चे इंसान हैं। वे बार-बार स्वीकार करते हैं कि वे अमिताभ बच्चन और लालू यादव की एक्टिंग करके खूब सफल रहे हैं।
किसी की शुद्ध कॉमेडी अगर यादगार रहेगी तो राजू श्रीवास्तव की। आज उसी राजू श्रीवास्तव यानी “गजोधर” भैया को सारा देश जगाना चाहता है, “उठो गजोधर भैया!” हर किसी के दिल में इसी एक चमत्कार की आस है कि वे जल्द स्वस्थ हों।
राजू श्रीवास्तव एक बार मुझे कह रहे थे कि ‘सामाजिक अनुभव के बिना सच्ची और वास्तविक कॉमेडी करना संभव नहीं है।’ इसी तरह से सामाजिक विसंगतियो के प्रति गहरा सरोकार रखने वाला ही लेखक सच्चा व्यंगकार हो सकता है। व्यंग्य विधा को अपने सुदृढ़ और आधुनिक रूप में खड़ा करने में हरिशंकर परसाई और श्रीलाल शुक्ला के योगदान को आलोचक भी स्वीकार करेंगे। एक आधुनिक विधा के रूप में व्यंग्य की ख्याति 20वीं सदी में हुई।
राजू श्रीवास्तव को अपने दायित्व का सदा बोध रहा और उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर बिना किसी को लांछित या अपमानित किये, सरल कॉमेडी के माध्यम से अपने दायित्व का बखूबी निर्वहन किया जो सराहनीय है। वे मानते हैं कि समाज में घुलने-मिलने और आम लोगों के मुद्दे, समस्याएं जानकर ही सच्चा और वास्तविक व्यंग साहित्य लिखा जा सकता है।
एक क़मेडियन जीवन की विडंबनाओं का एक ऐसा रेखाचित्र खींचता है जिसे देखकर दर्शक अपने आप से भी सवाल उठाने पर विवश हो जाता है। राजू श्रीवास्तव के काम में धार्मिक रूढ़िवादिता, जातीयता, धार्मिक कट्टरता इन सबके विरुद्ध एक खास किस्म का विरोधी तेवर दिखलाई पड़ता है। वे सरल भाषा के पक्षपाती हैं। उनकी भाषा में कनपुरिया हिन्दी का रस सुनने का मिलता हैं। वे अपने काम में अक्सर आम बोलचाल के शब्दों, देशी मुहावरों एवं कहावतों का प्रयोग करते हैं इसीलिए वे निहायत पसंद किए जा रहे हैं। वे कॉमेडी में मौलिक प्रयोग करते हुए समाज और राजनीति में व्याप्त शोषण, दमन और भ्रष्टाचार पर चुटीले प्रहार करते हैं। राजू श्रीवास्तव के करोड़ों चाहने वाले ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि वे शीघ्र स्वस्थ होकर सक्रिय हो जायें। मैं भी उनके परिवार के लगातार संपर्क में हूँ और स्वयं भी प्रार्थना कर रहा हूँ I
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)