ओम प्रकाश उनियाल
कहा जाता है कि पहाड़ अडिग होते हैं मगर जिस तरह जगह-जगह पहाड़ दरकने की घटनाएं घट रही हैं उससे पहाड़वासी भय के माहौल में जीने को मजबूर हो जाते हैं। बरसात के मौसम में पहाड़ों पर भूस्खलन बहुत बड़ा खतरा बन जाता है। खेत, घर, पेड़-पौधे, वनस्पतियां, पशुधन, जंगली जीव-जंतु भूस्खलन की चपेट में दफन हो जाते हैं। सड़कें, बिजली-पानी की लाइन, संचार व्यवस्था बुरी तरह ध्वस्त हो जाती हैं। सड़कें टूटने से एक क्षेत्र का दूसरे क्षेत्र से संपर्क कट जाता है। कई लोग अपनी जान भी गंवा बैठते हैं।
विकास के नाम पर पहाड़ों को इतना खोखला कर दिया है कि वे बेजान हो चुके हैं। पोपले पहाड़ हल्की-सी बरसात व हल्के भूकंप की हलचल से भर-भराकर ढह जाते हैं। जिन पहाड़ों पर मिट्टी-पत्थर, लकड़ी व पठालों के घरों का बोलबाला होता था उनकी जगह अब सीमेंट-कंक्रीट के घर बनाकर उन पर अनावश्यक बोझ लादा जा रहा है। जहां जल, जंगल व जमीन पर हर तरह से प्रहार किया जा रहा हो वहां भला पहाड़ स्थिर कैसे रह सकते हैं। पहाड़ों के दरकने से हर साल इतनी क्षति हो जाती है जिसका अनुमान लगाना भी बहुत मुश्किल होता है। जब तक पहाड़ों से छेड़छाड़ नहीं की जाती थी तब पहाड़ काफी सुरक्षित थे। भूस्खलन इतना नहीं होता था। आज इतना डर बना रहता है कि कब और कहां पर अचानक पहाड़ अपने साथ मिट्टी, कंकड़-पत्थर, विशालकाय बोल्डर (बड़ी चट्टान) व पेड़-पौधे समेटते हुए दरकने लगें। चाहे ऊंचाई में बसे हुए लोग हों या पहाड़ की तलहटी में या नदियों के किनारे बसे हुए, बरसात के मौसम में सबकी सांसे इसी ऊहापोह में हर वक्त अटकी रहती हैं कि कहीं पहाड़ उन पर कुपित न हो जाएं। ऐसे हालात में त्वरित रेस्क्यू (मदद) मिलना भी बड़ा मुश्किल होता है। पहाड़ जहां भी हैं उनके कोप से बचना है तो उनको बचाने के लिए स्वयं ही अपने कदम आगे बढ़ाएं। सरकारों को चाहिए कि विकास जितना जरूरी हो उतना ही पहाड़ों का इस्तेमाल करें। भूस्खलन वाले अतिसंवेदनशील क्षेत्रों को चिन्हित कर ठोस ढंग से ट्रीटमेंट किया जाए। वृक्षारोपण पर ज्यादा ध्यान दिया जाए। भू-माफियों, वन-माफियों के पांव पहाड़ों में न जमने दें। एहतियात बरतने पर कुछ हद तक खुद भी और पहाड़ों को भी बचाया जा सकता है। हिमालय के अंचल में खड़े पहाड़ों पर तो हर तरफ से खतरा मंडरा रहा है। बरसात का मौसम खत्म होते ही हम सब यह भूल जाते हैं कि अगले साल कहीं उसी दौर से गुजरना पड़े तो क्या होगा?