ललित गर्ग
विपक्षी गठबंधन ‘इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस’ (इंडिया) ने मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का निर्णय लेकर अपनी राजनीतिक अपरिपक्वता, नासमझी एवं विवेकहीनता का ही परिचय दिया है, यह प्रस्ताव स्वीकार भी हो गया। अब प्रतीक्षा है उस पर बहस की। आइएनडीआइए भले ही अविश्वास प्रस्ताव को अपनी जीत समझ रहा हो और यह मानकर चल रहा हो कि उसे संसद में अपनी एकजुटता एवं ताकत दिखाने का अवसर मिलेगा, लेकिन एक तो इस प्रस्ताव का गिरना तय है, दूसरा विपक्षी एकता एवं शक्ति के दावे भी खोखले साबित होने है। जब प्रस्ताव का गिरना पहले से ही तय है तो क्यों विपक्ष अपनी किरकिरी कराने पर तूली। विपक्षी दलों का मणिपुर पर प्रधानमंत्री के वक्तव्य की अपनी मांग पर अडे़ रहना भी हास्यास्पद है। क्योंकि प्रधानमंत्री ने पहले ही मणिपुर के हालात पर क्षोभ व्यक्त करते हुए संसद भवन परिसर में कहा था कि यह घटना किसी भी सभ्य समाज को शर्मसार करने वाली है और इससे पूरे देश की बेइज्जती हुई है। बावजूद विपक्ष की जिद्द इसलिये भी बचकानी एवं बेहूदी कही जायेगी क्योंकि कोई भी मामला जिस मंत्रालय संबंधित होता है, उसके ही मंत्री को उस पर वक्तव्य देना होता है।
सोचने वाली बात है कि विपक्ष यदि वास्तव में मणिपुर पर दुःखी होता तो चार दिन संसद का काम रोक कर न तो नारेबाजी और न हठधर्मिता में अपनी ऊर्जा खपा रहा होता और न ही गृह मंत्री को सुनने से इन्कार कर रहा होता। विपक्षी दलों की चिंता मात्र एक दिखावा ही अधिक प्रतीत हुई है। विपक्ष का चेहरा जनता के सामनेे बेनकाब हुआ है, जो कुछ बाकी रहा है प्रधानमंत्री अविश्वास प्रस्ताव पर अपने वक्तव्य में उसे उघाड़ देंगे, इस नए गठबंधन की कथित एकजुटता की पोल भी खोल ही देंगे और उसकी आपसी खींचतान को भी उजागर कर ही देंगे। विपक्षी गठन इंडिया के गठन के बाद वे कितने राजनीतिक रूप से शक्तिशाली हुए है और प्रधानमंत्री को चुनौती देने की स्थिति कितने सक्षम बने हैं, इन स्थितियों का भी पर्दापाश होगा। बात जब तीर से निकली है तो दूर तक जायेगी, अविश्वास प्रस्ताव की बहस केवल मणिपुर तक सीमित नहीं रहने वाली, क्योंकि हालिया पंचायत चुनावों के दौरान बंगाल में जो भीषण हिंसा हुई, कोई भी उसकी अनदेखी नहीं कर सकता-मोदी सरकार तो बिल्कुल भी नहीं। यह सही है कि अविश्वास प्रस्ताव लाकर विपक्ष ने अपने इस उद्देश्य को हासिल कर लिया कि मणिपुर के मामले में प्रधानमंत्री को सदन में बोलना ही पड़ेगा, लेकिन उसने उन्हें अपनी राजनीतिक हठधर्मिता को बेनकाब करने का अवसर भी दे दिया है। एक तरह से अपने पांव पर खुद कुल्हाड़ी चला दी है।
यह पूरे देश की जनता को मालूम है कि इस अविश्वास प्रस्ताव से मोदी सरकार को कोई खतरा नहीं है क्योंकि इसके पास अपने बूते पर सदन में जबर्दस्त बहुमत है और 538 की वर्तमान सदस्य संख्या वाली लोकसभा में भाजपा व इसके सहयोगी दलों के 332 सांसद हैं जबकि इंडिया दलों के 142 व निरपेक्ष या संकट के समय मोदी सरकार का साथ देने वाले दलों के सदस्यों की संख्या 64 है। यह अविश्वास प्रस्ताव सांकेतिक है और इस बात का प्रयास है कि इसके माध्यम से विपक्षी गठबन्धन देश के लोगों के बीच अपने समर्थन में ‘जन-अवधारणा’ का निर्माण कर सके। लेकिन विपक्षी दलों का यह न्यूसेंस भरा ध्येय अधूरा ही रहने वाला है। अविश्वास प्रस्ताव संसदीय लोकतन्त्र में प्रायः सरकारों के खिलाफ जन अवधारणा सृजित करने के लिए ही लाये जाते हैं क्योंकि भारत के संसदीय इतिहास में अब तक 28 अविश्वास प्रस्ताव प्रस्तुत किये गये, जिनमें केवल तीन बार ही सत्तारूढ़ सरकारें इनके माध्यम से सत्ता से बेदखल की गई हैं।
मोदी सरकार अपने इस कार्यकाल में पहली बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना कर रही है, इसके पहले 2018 में भी मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था, तब भी उसे पराजय का सामना करना पड़ा था और उस समय ही मोदी ने भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि 2023 में फिर से अविश्वास प्रस्ताव लाने का आपको मौका मिले।’ मौका तो विपक्ष को मिल ही गया है, पिछली बार की तरह इस बार भी ऐसा ही सुनिश्चित सा दिख रहा है, कि प्रस्ताव औधे मूंह गिरेगा। हालांकि लोकतंत्र के सर्वोच्च मंच संसद पर सत्ता पक्ष और विपक्ष की ऐसी रस्साकशी कोई नई बात नहीं है। इसे स्वस्थ लोकतंत्र का लक्षण भी कहा जा सकता है। लेकिन इस तरह की कवायद एवं मंथन से जनता के हित में कुछ निकलना चाहिए, वह निकलता हुआ दिख नहीं रहा है। मणिपुर में जिस तरह के दृश्य पिछले दिनों देखने को मिले, उसके मद्देनजर इस तरह की रस्साकशी की बजाय सार्थक बहस का माहौल बनाकर समस्या के समाधान का रास्ता निकला जाता तो वह आशा की किरण बनता। बेहतर तो यही होता कि विपक्ष और सरकार आपस में बातचीत से सहमति की कोई सूरत निकाल कर मणिपुर पर विस्तृत चर्चा कर लेते और इसके लिए अविश्वास प्रस्ताव की नौबत न आती।
अविश्वास प्रस्ताव से तीन बार ही सत्तारूढ़ सरकारें सत्ता से बेदखल की गई हैं। इनमें सभी सरकारें गठबंधनों की खिचड़ी सरकारें थीं और एक बार 1999 में तो अटल बिहारी वाजपेयी की साझा सरकार केवल एक वोट से ही गिर गई थी। जबकि इससे पहले 1990 में वीपी सिंह की ‘दो खड़ाऊ’ भाजपा व वामपंथियों के समर्थन पर खड़ी सरकार बुरी तरह लोकसभा में हार गई थी और 1997 में कांग्रेस के समर्थन पर टिकी देवेगौड़ा सरकार का हश्र भी ऐसा ही हुआ था। मगर मोदी सरकार में तो भाजपा के ही 301 सांसद हैं। अब जबकि अविश्वास प्रस्ताव पर बहस होना निश्चित हो गया है तो यह बहस लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित एवं सार्थक बहस हो। आदर्श मूल्यों की वाहक बने। मणिपुर जैसी जटिल समस्या के साथ अन्य समस्याओं के समाधान की प्रेरक बने।
संविधान पक्ष एवं विपक्ष को केवल अधिकार नहीं देता, उनसे शुद्ध आचरण की अपेक्षा भी करता है। अब संसद में कामकाज सुचारू ढंग से शुरू हो, इसकी व्यवस्था होनी चाहिए मगर साथ ही ध्यान रखा जाना चाहिए कि उच्च सदनों में विपक्ष के नेताओं को भी अपनी बात रखने का समुचित अवसर सम्मानजनक तरीके से दिया जाये। संसदीय प्रणाली में विपक्ष के नेता का महत्व भी कोई कम नहीं होता क्योंकि वह भी उन करोड़ों लोगों की आवाज होता है, जिनको अपनी आवाज संसद में रखने के लिये जनता ने ही चुना है।
भाजपा सरकार पर संसद में रवैया बहुत एकपक्षीय और मनमाना होने का आरोप भी निराधार साबित होना चाहिए। न्यूसेन्स में जैसे कोई आधार नहीं होता, कोई तथ्य नहीं होता, कोई सच्चाई नहीं होती तो दूसरों के लिए खोदे गए खड्डों में स्वयं एक दिन गिर जाने की स्थिति बन जाती है। विपक्ष इस न्यूसेन्स स्थिति से बाहर आये, विपक्ष में अपनाई जा रही इस न्यूसेन्स वाली नुकसानदेय एवं उकसाने वाली नीति से आक्रमण करना आसान है, क्योंकि आक्रमण में बुद्धि और ताकत कम लगती है जबकि बचाव में ज्यादा। विपक्ष की भूमिका को सार्थक करने के लिये ताकत भले ज्यादा लगे, लेकिन वही जनता के दिलों पर राज एवं जन अवधारणा सृजित करती है।