ललित गर्ग
उदयपुर में एक दर्जी की हत्या का मामला अभी शांत भी नहीं पड़ा था कि महाराष्ट्र से भी ऐसी ही दिल दहला देने वाली घटना उजागर हुई है। उजागर इसलिये कि इसे लूटपाट की साधारण घटना मानकर रफा-दफा कर दिया था। लेकिन उदयपुर की घटना के कारण इसकी जांच नये सिरे से हुई तो पता लगा कि पिछले महीने की इक्कीस तारीख को अमरावती में एक दवा विक्रेता की गला रेत कर हत्या इसलिये कर दी गयी कि उसने भी भाजपा की निलंबित प्रवक्ता नूपुर शर्मा के समर्थन में सोशल मीडिया पर टिप्पणी की थी। प्रश्न है कि यह कैसी विकृत मानसिकता है जो बर्बर एवं क्रूरता की सारी सीमाओं को लांघ रही है। यह कैसी राजनीतिक मानसिकता है जो गलत को गलत नहीं कह पा रही है। यह कैसी धार्मिकता एवं साम्प्रदायिकता है जो समाधान के लिए कदम उठाने में भय महसूस करती हैं। यह कैसी सत्ता की लालसा है जो सत्ता से विमुख हो जाने से डरी हुई है। पर यदि दायित्व से विमुख हुए तो देश का नागरिक युद्ध की ओर बढ़ सकता है एवं देश की एकता एवं आपसी सौहार्द खण्डित हो सकता है। लोकतंत्र में नरसंहार, बर्बरता और क्रूरता जैसे उपाय किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकते। इस मौलिक सत्य व सिद्धांत की जानकारी से आज के राजनैतिक दल एवं साम्प्रदायिक संगठन अनभिज्ञ है।
उदयपुर एवं अमरावती की घटनाओं से जुड़ी तालिबानी मानसिकता इस देश को तोड़ने की साजिश है। यह कट्टर सांप्रदायिकता ही नहीं, बल्कि विक्षिप्त मानसिकता है, जो ऐसी हिंसा में यकीन रखती है, उसे बल देती है। ऐसी ही हिंसा से आज अफगानिस्तान कराह रहा है। पडोसी देश पाकिस्तान से पोषित इस बर्बरता से नुकसान किसको है? साम्प्रदायिक आग्रहों ने, हिन्दुस्तान को मुस्लिम राष्ट्र बनाने की तथाकथित मानसिकता ने, सत्ता के मोह ने, वोट के मोह ने शायद इन कट्टरवादियों एवं सत्तालोलुपों के विवेक का अपहरण कर लिया है। अल्पसंख्यकों के मसीहा और धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर का मुखौटा लगाने वाले आज जनविश्वास का हनन ही नहीं, जनता का ही हनन-हत्या करने लगे हैं। जनादेश की परिभाषा अपनी सुविधानुसार करने लगे हैं। जो भी लोग या संगठन ऐसे कट्टर आतंकी तैयार करने में प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका निभा रहे हैं, उन पर कड़ाई से शिकंजा कसना होगा।
इसमें कोई संदेह नहीं कि उदयपुर में हुई नफरती एवं बर्बर हत्या की घटना ने देश को झकझोर दिया। अब अमरावती का मामला भी इसमें जुड़ गया। देखा जाए तो दोनों घटनाओं में कई समानताएं हैं। जैसे हत्या का कारण एक ही मसले पर उठा विवाद रहा। हत्यारों ने मारने का तरीका भी एक जैसा अपनाया। मारे गए दोनों लोगों ने निलंबित भाजपा प्रवक्ता का समर्थन किया था। जाहिर है, इसे लेकर समुदाय विशेष के लोगों में प्रतिक्रिया पनप रही होगी और योजनाबद्ध तरीके से लोगों को निशाना बनाने की तैयारी की गई होगी। प्रश्न है कि भीतर ही भीतर भड़क रही इस बर्बरता एवं क्रूरता की भनक सुरक्षा एजेन्सियों को क्यों नहीं हुई? क्या राजस्थान एवं महाराष्ट्र दोनों ही प्रांतों में घटना के समय गैर-भाजपा सरकारें इन घटनाओं के होने का इंतजार कर रही थी? अब जैसा कि उदयपुर की घटना में सामने आया है कि दोनों हत्यारे पाकिस्तान के इशारे पर काम कर रहे थे। इनमें एक हत्यारा कई बार पाकिस्तान भी होकर आया। यह भी कि दोनो लोग लंबे समय से राजस्थान के कई जिलों में सक्रिय रूप से युवाओं को अपने नफरती अभियान में जोड़ने के काम में लगे थे। पर हैरानी की बात है कि पुलिस को इसकी भनक तक नहीं लगी। भले यह मामला आतंकी घटना न हो, लेकिन उससे कम भी नहीं है। भारत में होने वाली विवादास्पद व भड़काऊ बातों और घटनाओं का पाकिस्तान किस तरह से इस्तेमाल कर रहा है, यह भी सामने आ गया। यह समय अधिक सर्तकएवं सावधान होने का है।
भारत की एक सांस्कृतिक एवं लोकतांत्रिक सोच है, संस्कृति है। यहां तालिबानी न्याय सरासर नामंजूर है। राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेंकने वालों को सावधान हो जाना चाहिए। नफरत, द्वेष एवं घृणा कभी भी एक दिशा में नहीं भागती, वह बार-बार रुख बदलती है और वार करती है। बड़े बुद्धिमानों एवं राजनीतिक प्रवक्ताओं के बीच विवाद शुरू हुआ था, पर दर्जी, और विक्रेता के जान पर बन आई? बुद्धिमानों एवं राजनीतिक प्रवक्ताओं का क्या बिगड़ा? जो लोग हिंदू-मुस्लिम बहस को गरमा रहे थे, उनका क्या बिगड़ा? अपने धर्म की सेवा से कोई कानून नहीं रोकता, लेकिन कोई कानून यह नहीं कहता कि अपने धर्म के लिए किसी को रुला दो, किसी का खून बहा दो, किसी दूसरे धर्म के देवी-देवता एवं आस्था के शिखर पर कीचड़ उछालो। जब हम किसी पर एक अंगुली उठाते हैं तो शेष अंगुलियां हमारी ओर भी उठती है। इस तरह हमारी ओर उठने वाली दृष्टि पर इतना कोहराम क्यों? जैसी करनी वैसी भरनी-नफरत, द्वेष एवं घृणा की पौध लगायेंगे तो फल भी वैसे ही मिलेंगे। ऐसे बर्बर ताकतों के खिलाफ सख्त कार्रवाई हो ताकि जो लोग इस देश में गला रेतने का विधान चलाना चाहते हैं कि उनकी रूह तक डर पहुंचना चाहिए। यह तभी होगा, जब पुलिस, सुरक्षा एजेन्सियां या एसआईटी सद्भाव व संविधान के हत्यारों को उनके माकूल अंजाम तक पहुंचाएगी।
उदयपुर एवं अमरावती की घटनाएं कोई मामूली वारदात नहीं है। ऐसी घटनाएं स्वाभाविक रूप से चिंता एवं भय बढ़ाने वाली हैं। जिस तरह से अलग-अलग शहरों में दो लोगों को एक विवाद के कारण एक ही तरह से मार डाला गया, उससे तो पहली नजर में यही लगता है कि यह किसी एक व्यक्ति का काम नहीं हो सकता, बल्कि इसके पीछे ऐसा बड़ा गिरोह या संगठन काम कर रहा है जो हमारी अब तक हमारी खुफिया एजंसियों की नजर से बचता रहा। क्या साजिश थी, क्या वे किसी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय एजेंसी के संपर्क में हैं, इन तमाम बातों का खुलासा होना जरूरी है। देश की शांति एवं सौहार्द को खंडित करने के लिये अनेक विदेशी ताकतें देश के भीतर सक्रिय है, सुरक्षा एजेंसियों को इनके पीछे पड़ जाना चाहिए। उदयपुर के दोनों आरोपियों को किसने उकसाया? उन्हें इस्लाम का अर्द्धज्ञान किसने दिया? बार-बार कहा गया है, आधा ज्ञान जानलेवा होता है, अफजल और कसाब के लिए भी था और अब रियाज व मोहम्मद गौस के लिए भी है। राजस्थान में गठित एसआईटी को तह में जाकर नफरत की इस विषबेल की जड़ों को उखाड़ फैकना होगा। क्योंकि इनके कारण भारत की सांझा-संस्कृति, हिन्दु-मुस्लिम एकता, भाईचारा, सद्भाव, निष्ठा, विश्वास, करुणा यानि कि जीवन मूल्य गुम होते जा रहे हैं। मूल्य अक्षर नहीं होते, संस्कार होते हैं, आचरण होते हैं। उन्माद, अविश्वास, राजनैतिक अनैतिकता, दमन एवं संदेह का वातावरण उत्पन्न हो गया है। उसे शीघ्र कोई दूर कर सकेगा, ऐसी सम्भावना दिखाई नहीं देती। ऐसी अनिश्चय और भय की स्थिति किसी भी राष्ट्र के लिए संकट की परिचायक है। कन्हैयालाल या दवा विक्रेता का अपराध ऐसा नहीं था कि कानून उसे ऐसी कोई सजा देता। जो हाथ निर्दोषों को गैर-कानूनी सजा देने के लिए उठे, उस जिहादी मानसिकता पर अंकुश लगाना जरूरी है। तेजी से बढ़ता हिंसा, बर्बरता एवं क्रूरता का दौर किसी एक प्रांत का दर्द नहीं रहा। इसने हर भारतीय दिल को जख्मी बनाया है, अब इसे नियंत्रित करने के लिये प्रतीक्षा नहीं, प्रक्रिया आवश्यक है। यदि इस बर्बरता को और अधिक समय मिला तो हम निदोर्षों की हत्या-वारदातों एवं लाशों को गिनने के इतने आदी हो जायेंगे कि हमारी सोच, भाषा, क्रियाशीलता एवं सांझा-संस्कृति जड़ीभूत बन जाएंगी। इन बर्बर मानसिकताओं के लिये ठंडा खून और ठंडा विचार नहीं, क्रांतिकारी बदलाव के आग की तपन चाहिए।