सुशील दीक्षित विचित्र
राहुल गाँधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा जैसे जैसे आगे बढ़ रही है आइएनडीआइए दरकता जा रहा है । ऐसे में जब गठबंधन को बिखरने से बचाने और मतभेद सुलझाने के लिए कुशल राजनीतिज्ञ की जरूरत है तब राहुल गांधी एक ऐसी यात्रा पर निकल पड़े हैं जिसका न कोई हासिल होता दिखाई और न कोई औचित्य साबित हो पा रहा है । यात्रा के माध्यम से यदि सहयोगी दलों को ही जोड़ लिया जाता तो यह एक उपलब्धि होती लेकिन अभी तक यात्रा की यही उपलब्धि है कि सात राज्यों के छह क्षेत्रीय दल या तो एकला चलो रे का राग गा रहे हैं अथवा सीट शेयरिंग के मुद्दे पर कांग्रेस को अपने राज्य में बैकफुट पर धकेलने में लगे हैं । इसके चलते राहुल की यात्रा इन सब समस्याओं से पलायन की रूप में भी देखा जा रहा है ।
कांग्रेस के कई नेता ही अंदरखाने ऐन चुनावी समय में यात्रा से खुश नहीं है । आचार्य प्रमोद कृष्णम तो मुखर होकर व्यंग्य कर रहे हैं कि जब सारी राजनीतिक पार्टियां 2024 चुनाव के लिए कमर कस रही हैं तब कांग्रेस पर्यटन कर रही है । दरअसल हम 2024 के बाद पता लगाएंगे कि 2024 का चुनाव कैसे जीता जाए । ऐसा भी लगता है कि हम 2029 के चुनाव की तैयारी कर रहे हैं । कृष्णम का यह दर्द अकारण नहीं है । उन्हें अकारण ही नहीं लगता कि राहुल गांधी अपरिपक्व राजनीतिक हैं । 2024 का चुनाव कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा होगी । इस परीक्षा को पास करने के लिए कांग्रेस खेमें की तैयारी शून्य है और जिस गठबंधन के दम पर वह भाजपा को उखाड़ फेंकने का सपना राहुल गांधी देख रहे हैं वह अभी बना ही नहीं । यदि बना मान भी लिया जाए , जैसा घटक दल दावा कर रहे हैं तो इतने अधिक अंतर्विरोध का शिकार है कि चुनाव तक बना रह सकेगा , इस पर संदेह किया जाने लगा है ।
संदेह के यूं तो दर्जनों कारण गिनाये जा सकते हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण क्षेत्रीय दलों को अपने राज्य में अपनी जमीन बचाने की चिंता । लगभग सभी क्षेत्रीय दल कांग्रेस के विरोध में बने और सभी ने कांग्रेस के ही वोट बैंक पर कब्जा किया । आम आदमी पार्टी , एनसीपी , राजद , जदयू सपा और तृणमूल कांग्रेस के सामने यक्ष प्रश्न खड़ा हो गया है कि वे राष्ट्रीय स्तर पर मोदी को हराने की कोशिश में लगें या फिर राज्य में खुद को बचाने की कोशिश में । इन दलों के प्रारंभिक व्यवहार को देखा जाये सपा और राजद को छोड़ कर शेष बड़े दल अपने राज्य की राजनीति में दिलचस्पी ले रहे हैं । वे गठबंधन में मौखिक रूप से ही शामिल हैं अन्यथा अपने राज्य में वे कांग्रेस के साथ खड़े नहीं दिखना चाहते । यही कारण है कि पंजाब , हरियाणा , दिल्ली में आम आदमी पार्टी , पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है । बिहार में जदयू अलग हो गयी । इन सबका एक ही डर है कि अपने राज्य में कांग्रेस को घुसने देने के मतलब है अपनी जमीन छोटी कर लेना । जिन दलों से कांग्रेस के मधुर संबंध है उनमें से यूपी की समाजवादी पार्टी कांग्रेस को कोई भाव नहीं दे रही है । उसने ग्यारह सीटें कांग्रेस को ऑफर की हैं जो कांग्रेस को मंजूर नहीं हैं । झारखंड में झामुमो और कांग्रेस के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर रार मची है । ऐसी ही रस्साकसी महाराष्ट्र में भी देखी जा रही है । एनसीपी , उद्धव गुट की शिवसेना और कांग्रेस के बीच सीट शेयरिंग को ले कर कोई तालमेल नहीं हो पा रहा है । इस तरह देखा जाए तो आइएनडीआइए के बड़े घटक दल है कहीं न कहीं पर कांग्रेस से बेजार हैं । आइएनडीआइए का सारा का सारा माहौल अविश्वास से भरा है । आइएनडीआइए में सब कुछ ठीक होने के दावे भले ही किये जा रहे हों लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि कुछ भी ठीक नहीं है । यदि ठीक होता तो गठबंधन बनाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले नितीश अलग नहीं होते । यदि कुछ भी ठीक होता तो कुछ और दलों द्वारा आइएनडीआइए छोड़ने की भविष्यवाणी नहीं की जा रही होती ।
ऐसा नहीं है कि केवल क्षेत्रीय दल ही गठबंधन धर्म का निर्वाहन न कर रहे हों । कांग्रेस भी यही कर रही है । यह कह कर कि पिछले चुनाव में अन्य सहयोगी दलों का प्रदर्शन बहुत खराब रहा था मध्य प्रदेश में कांग्रेस घटक दल को एक भी सीट देने को तैयार नहीं । अगर उसकी पिछला प्रदर्शन ही कसौटी है तो यूपी में उसका प्रदर्शन इतना खराब था कि खुद राहुल गांधी अमेठी से हार गए थे और कांग्रेस को एक ही लोकसभा सीट मिली थी । राजस्थान में भी कांग्रेस किसी सहयोगी दल को नहीं घुसने देना चाहती या जहां जहां उसका भाजपा से अब तक सीधा मुकाबला होता रहा है वहां वह सीट की साझेदारी को तैयार नहीं है । इन सारे अंतर्विरोधों को दूर करने और अविश्वास की खाई पाटने के लिए कांग्रेस को सक्रिय होना चाहिए था । यह समय किसी ऐसे आयोजन का नहीं था जिन्हें पर्यटन की संज्ञा दी जाने लगे । यात्रा से अगर घटक दलों को भी जोड़ा जाता तो फिर भी इसकी कुछ सार्थकता होती लेकिन राहुल गांधी मैन शो पर निकले हैं जिसमें चाहे कुछ भी हो रहा हो लेकिन चुनावी तैयारी नहीं हो रही है । पता नहीं भारत जोड़ों न्याय यात्रा किसे जोड़ेगी और किसे न्याय देगी । सवाल इसलिए भी है कि आइएनडीआइए के घटक दलों को राहुल गांधी जोड़े नहीं रख पा रहे हैं और न ही गठबंधन की भावना से न्याय कर पा रहे हैं । यदि गठबंधन फेल हुआ तो इसका कांग्रेस को बड़ा नुकसान होने की संभावना हो सकती है ।
कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे भले ही इस मुगालते में हों कि मोदी के खिलाफ राहुल की यात्रा का लाभ आइएनडीआइए को मिलेगा लेकिन सहयोगी दल इससे सहमत नहीं दीखते । चुनावों में मुगालतों से काम भी नहीं चलता । अब तो और भी नहीं चलता जब सामने भाजपा जैसी सशक्त पार्टी हो । ऐसे में अध्यक्ष होने के नाते खड़गे मोदी के लिए नये नये विशेषण गढ़ने की जगह अपनी ऊर्जा अपने राजनीतिक अनुभवों का इस्तेमाल करते हुए गठबंधन में रोज पड़ रही दरारों को रोकने पर लगायें तो यह कांग्रेस के लिए अधिक बेहतर होगा क्यूंकि किसी यात्रा की आड़ में समस्याओं से मुंह तो मोड़ा जा सकता है लेकिन उससे समस्यायें नहीं सुलझती ।