ललित गर्ग
भारत के 53वें प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति सूर्यकांत द्वारा हिंदी में शपथ लेना भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में केवल एक औपचारिक घटना नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक, राष्ट्रीय और मनोवैज्ञानिक चेतना का नया शुभारंभ है। यह वह क्षण है जिसने भाषा को लेकर दशकों से चले आ रहे संकीर्ण विवादों, राजनीतिक विरोधाभासों और कृत्रिम विभाजनों पर एक गहरी चोट की है। हिंदी में शपथ का यह निर्णय राष्ट्रीय मानस में इस भावना को पुनः स्थापित करता है कि भाषा का प्रश्न केवल संचार का साधन नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा का प्रतीक है। यह निर्णय उस विरोधाभास पर भी प्रकाश डालता है जिसमें विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी को अपने ही देश में सबसे अधिक उपेक्षा, संकोच और राजनीतिक विरोध का सामना करना पड़ता रहा है।
भारत में भाषा सदैव राजनीति का एक सुविधाजनक औज़ार रही है। कुछ दशकों से चले आ रहे भाषाई आंदोलन और हिंदी-विरोधी राजनीति ने देश की एकता को अक्सर चुनौती दी है। क्षेत्रवाद की आड़ में कुछ राजनीतिक दलों ने हिंदी को एक क्षेत्र विशेष की भाषा बताकर उसका महत्व कम करने का प्रयास किया। लेकिन यह तर्क न तो व्यावहारिक था और न ही ऐतिहासिक। हिंदी किसी क्षेत्र की भाषा नहीं, बल्कि करोड़ों भारतीयों के हृदय की भाषा है, जनमानस की अभिव्यक्ति है, भारत की आत्मा की धड़कन है। न्यायमूर्ति सूर्यकांत द्वारा हिंदी में शपथ लेना इस सत्य को पुनः उद्घाटित करता है कि भारतीय लोकतंत्र की संवैधानिक संस्थाएँ केवल कानून और प्रशासन की रक्षा ही नहीं करतीं, बल्कि भारतीयता और राष्ट्रीय अस्मिता को भी नई दिशा देती हैं। यह कदम यह संदेश देता है कि नई पीढ़ी की संस्थाएँ अब संकोच नहीं, आत्मविश्वास के साथ भारत की भाषा में अपने कर्तव्यों की शुरुआत कर रही हैं।
हिंदी को लेकर जो विरोधाभास पैदा किया जाता रहा है, वह वास्तव में एक कृत्रिम एवं आग्रह-दुराग्रहपूर्ण द्वंद्व है। आज के वैश्विक दौर में भाषा का महत्व उसकी लोकस्वीकृति और उपयोगिता से तय होता है। हिंदी वैश्विक भाषाओं की सूची में तेजी से ऊपर बढ़ रही है। करीब 113 करोड़ के साथ अंग्रेजी पहले स्थान पर है. 111 करोड़ के साथ चीनी दुसरे स्थान पर है,इसके बाद हिन्दी का स्थान आता है। करीब 61.5 करोड़ विश्व में, हिन्दी को बोलने वाल लोगांे की संख्या के आधार पर तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा का स्थान प्राप्त है। हिंदी का प्रभाव विश्व में बढ़ रहा है और यह सोशल मीडिया व संचार माध्यमों में भी लगातार उपयोग हो रही है। दुनिया भर के 175 से अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा पढ़ाई जा रही है। देवनागरी लिपि को दुनिया की सबसे वैज्ञानिक लिपियों में से एक माना जाता है। भारत सरकार की पहल के बाद से, संयुक्त राष्ट्र ने भी साप्ताहिक हिंदी समाचार बुलेटिन शुरू किया है। अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, मोरिशस, दक्षिण अफ्रीका, खाड़ी देशों और यूरोप में हिंदी सीखने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। विश्व के कई विश्वविद्यालयों में हिंदी साहित्य, भाषाविज्ञान और अनुवाद अध्ययन का विस्तार हुआ है। हिंदी फिल्में, वेब प्लेटफॉर्म और मीडिया विश्व संस्कृति पर गहरा प्रभाव छोड़ रहे हैं। यह वह समय है जब हिंदी वैश्विक मंच पर उभर रही है, लेकिन अपने ही देश में उसे राजनीति और संकीर्णताओं का शिकार होना पड़ रहा है। यही वह असंगति है जिसे न्यायमूर्ति सूर्यकांत की शपथ ने बड़े सौम्य किंतु तीव्र संदेश के साथ उजागर किया है कि जब दुनिया हिंदी को सम्मान दे रही है तो भारत में उसकी उपेक्षा किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं हो सकती।
राष्ट्रीय प्रतीक केवल वस्तुएँ नहीं होते, वे राष्ट्र की चेतना के वाहक होते हैं। राष्ट्रध्वज केवल कपड़े का टुकड़ा नहीं, करोड़ों लोगों के स्वाभिमान और बलिदान का प्रतीक है। राष्ट्रगान केवल धुन नहीं, बल्कि भारत की समष्टिगत भावना का सूत्र है। उसी प्रकार राष्ट्र की भाषा-चाहे उसे हम राजभाषा कहें या राष्ट्रभाषा भारतीय पहचान और राष्ट्रीय एकता का अदृश्य धागा है। नए भारत का निर्माण तभी संभव है जब हम इन प्रतीकों का सम्मान केवल संविधान की धाराओं में नहीं, बल्कि हृदय में करें। हिंदी को लेकर जो संकोच, झिझक और कृत्रिम विरोध दशकों से बना हुआ था, वह राष्ट्रीय आत्मविश्वास के लिए बाधक था। हिंदी में शपथ लेकर न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने इस मानसिक दरार को पाटने में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल में हिंदी को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित करने का साहसिक कार्य किया है। संयुक्त राष्ट्र महासभा से लेकर ब्रिक्स, जी-20 और अनेक अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उन्होंने हिंदी में संबोधन देकर दुनिया को यह संदेश दिया कि भारत अपनी भाषा को लेकर हिचकता नहीं, बल्कि गर्व करता है। इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने भी संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण देकर ऐतिहासिक परंपरा की शुरुआत की थी। उनकी वाणी में हिंदी केवल शब्द नहीं थी, बल्कि भारत की आत्मा की ध्वनि थी। नरेंद्र मोदी ने इस परंपरा को राष्ट्रीयता, आधुनिकता, आत्मविश्वास और वैश्विक उपस्थिति के साथ आगे बढ़ाया है। उन्हें यह समझ थी कि भाषा राष्ट्रीय चेतना की नींव होती है, और जिस राष्ट्र को विश्व नेतृत्व की आकांक्षा है, उसे अपनी भाषा पर गर्व करना ही होगा। जब राष्ट्र का प्रधानमंत्री अपनी भाषा को वैश्विक मंचों पर प्रतिष्ठा दिलाता है और जब राष्ट्र का प्रधान न्यायाधीश उसी भाषा में शपथ लेता है, तब यह संकेत मिलता है कि नए भारत की भाषा नीति संकोच नहीं, बल्कि स्वाभाविक भारतीयता की पुनर्स्थापना है।
हिंदी केवल भावनात्मक आग्रह नहीं है। यह शासन, न्याय, शिक्षा, प्रशासन, मीडिया और तकनीक की भाषा बनती जा रही है। डिजिटल इंडिया और नई तकनीकी क्रांति में हिंदी की भूमिका तेजी से बढ़ रही है। आज इंटरनेट पर सबसे तेजी से बढ़ने वाली भाषाओं में हिंदी शीर्ष पर है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन अनुवाद और डिजिटल पत्रकारिता में हिंदी का उपयोग बढ़ाना भारत की ज्ञान-आर्थिक उन्नति के लिए अनिवार्य है। किसी भी राष्ट्र की प्रगति उसकी भाषाई आत्मनिर्भरता पर भी निर्भर करती है। जितनी अपनी भाषा मजबूत होगी, उतना ही विचार-निर्माण, नवाचार और जनसक्रियता मजबूत होगी। इस दृष्टि से हिंदी के प्रति उपेक्षा केवल सांस्कृतिक अपराध नहीं, बल्कि राष्ट्रीय विकास को बाधित करने वाला संकीर्ण एवं राष्ट्र-विरोधी दृष्टिकोण भी है।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत की हिंदी में शपथ वास्तव में एक वैचारिक उद्घोष है। यह घोषणा है कि भाषा को लेकर चलने वाला हमारा पुराना आत्मद्वंद्व समाप्त होना चाहिए। राष्ट्रभाषा का सम्मान किसी क्षेत्र या समुदाय पर थोपा हुआ बोझ नहीं, बल्कि वह प्राकृतिक बंधन है जो विविधता को सामूहिकता में बदलता है। यह वह बंधन है जो भारत को भारत बनाता है। यह वह अदृश्य शक्ति है जो उत्तर से दक्षिण, पश्चिम से पूर्व और ग्रामीण से महानगरीय भारत को एक सांस्कृतिक सूत्र में पिरोती है, व्यापार एवं विकास को गति देता है। हिंदी किसी पर थोपी जाने वाली भाषा नहीं, वह तो स्वयंस्फूर्त रूप से जनमानस की भाषा बन चुकी है। उसका विरोध अब एक राजनीतिक नाटक भर रह गया है जिसका वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं। नए भारत ने अपने संकोचों को त्यागना शुरू कर दिया है। अपनी परंपराओं, अपने प्रतीकों और अपनी भाषा पर गर्व करना नया मानसिक स्वरूप बनता जा रहा है। न्यायपालिका से लेकर कार्यपालिका तक और वैश्विक मंचों से लेकर डिजिटल मंचों तक-हिंदी का सम्मान बढ़ रहा है। यह सम्मान न किसी के आदेश से आया है, न किसी दवाब से; यह सम्मान राष्ट्र की आत्मा से उठा है।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत की हिंदी में शपथ नए भारत की सांस्कृतिक स्वाधीनता का प्रतीक बन गई है। यह उस स्वाभिमान का उद्घोष है कि भारत अब अपनी भाषा से संकोच नहीं करेगा। यह वह क्षण है जिसने भाषा के प्रश्न को संवैधानिक गरिमा और राष्ट्रीय चेतना के सर्वाेच्च स्तर पर स्थापित कर दिया है। इस कदम ने यह सिद्ध कर दिया है कि हिंदी केवल भाषा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आत्मा का प्रकाश है, एक ऐसा प्रकाश जो आत्मविश्वास, सांस्कृतिक प्रतिष्ठा और राष्ट्रीय एकता की नई राहें रोशन कर रहा है। यही वह दिशा है जिसमें नया भारत आगे बढ़ रहा है-अपनी भाषा में, अपने स्वभाव में और अपनी अस्मिता में आत्मविश्वास से भरपूर।





