ज्ञान प्रकाश यादव ‘ज्ञानार्थी
देश के प्रधानमंत्री एवं भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख प्रचारक नेता श्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी उन राज्यों की चुनावी सभाओं में अपने आप को बार-बार पिछड़ा बताते हैं जहाँ पिछड़ों की आबादी सर्वाधिक है। ऐसा वे इसलिए करते हैं ताकि उन्हें पिछड़ों का सर्वाधिक वोट मिले जिससे वे उन राज्यों में अपनी पार्टी की बहुमत से सरकार बनाने में सफलता पा सके। 2019 के चुनाव से ठीक पहले 15 अगस्त 2018 को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी ने पिछड़ों के सन्दर्भ में जो भाषण दिया था उसे आज याद करना बेहद जरुरी है। उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि, “अभी-अभी लोकसभा और राज्यसभा के सत्र पूरा हुए हैं। एक प्रकार से संसद के ये सत्र पूरी तरह सामाजिक न्याय को समर्पित थे। दलित हो, पीड़ित हो, शोषित हो या वंचित हो, महिलाएं हो उनके हकों की रक्षा के लिए संसद ने संवेदनशीलता के साथ सामाजिक न्याय को और अधिक मजबूत किया। ओबीसी आयोग को सालों से संवैधानिक आयोग के लिए माँग उठ रही थी। इस बार संसद ने ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर पिछड़ों और अति पिछड़ों के हकों की रक्षा करने का प्रयास किया।” यहाँ प्रधानमंत्री मोदी पिछड़ों और अति पिछड़ों के जिस सामाजिक न्याय सम्बन्धी हकों की रक्षा की बात करते हैं क्या उसे उनकी ही पार्टी की राज्य सरकारें पूरा करती हैं? अभी हाल ही में उनकी ही पार्टी की उत्तर प्रदेश सरकार के एक आयोग ने विज्ञापन निकाला है। इसमें ग्राम पंचायत अधिकारी के कुल रिक्त 1468 पदों पर भारत के नागरिकों से ऑनलाइन आवेदन माँगे गए हैं। इस विज्ञापन का विवरण निम्नलिखित सारणी में है:
इस भर्ती में सीटों के आवंटन में सर्वाधिक खिलवाड़ पिछड़े समाज या ओबीसी समाज के साथ किया गया है। उत्तर प्रदेश में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27% आरक्षण की व्यवस्था लागू है। आयोग को 27% ओबीसी आरक्षण के आधार पर ओबीसी के लिए 396 पद निकालने चाहिए थे जबकि वह मात्र 139 पद ही निकाला है। आखिर योगी सरकार के आयोग ने किस शासनादेश के तहत ओबीसी आरक्षण को 27% से घटाकर 9.46% कर दिया है? इस तरह योगी सरकार ने राम मंदिर की आड़ में पिछड़ों के लिए आरक्षित 257 पदों को लील लिया है। यदि योगी सरकार को पिछड़ों की जरा-सी भी सुध है तो उसे इस विज्ञापन को तुरंत निरस्त कर देना चाहिए तथा आयोग के उस अधिकारी पर दंडात्मक कार्रवाई करनी चाहिए जिसकी देखरेख में सामाजिक न्याय का गला घोंटने वाला यह विज्ञापन निकाला गया है। यह प्रधानमंत्री मोदी के लाल किले की प्राचीर से दिए गए सामाजिक न्याय सम्बन्धी भाषण की सरेआम अवहेलना है। क्या अपने को पिछड़ा बताने वाले प्रधानमंत्री मोदी अपनी ही पार्टी की उत्तर प्रदेश सरकार को इस मसले पर कटघरे में खड़ा करेंगे? यह देखना दिलचस्प होगा कि वे योगी सरकार का विरोध किस शैली में करते हैं?
इस भर्ती में अपना दल (एस) की राष्ट्रीय अध्यक्ष व केन्द्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल ने ओबीसी आरक्षण को लेकर सवाल उठाया है। हालाँकि इससे पहले सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव भी इस भर्ती में ओबीसी आरक्षण पर सवाल उठा चुके हैं। सिर्फ सवाल उठाने से ही सरकार जवाब देने लग जाए तो कब की बहुतेरी समस्याएँ समाप्त हो जाती। लेकिन ऐसा नहीं होता है। इसके लिए ‘सड़कों की खामोशी’ को दूर करना होगा। यह कार्य सरकार में शामिल नेता नहीं कर सकते हैं। इसकी जिम्मेदारी विपक्ष के नेताओं को उठानी होगी। सरकार में शामिल नेता ओबीसी आरक्षण की इस डकैती पर सिर्फ पत्र लिख सकते हैं। इसीलिए अनुप्रिया पटेल ने मुख्यमंत्री योगी को पत्र लिखकर माँग की है कि ‘ग्राम पंचायत अधिकारी मुख्य परीक्षा के लिए संबंधित विभाग की ओर से भेजे गए अधियाचन की जाँच कराकर ओबीसी के लिए आरक्षित पदों की फिर से संशोधित सूची जारी की जाए।’ जबकि उत्तर प्रदेश अधीनस्थ सेवा चयन आयोग के अध्यक्ष प्रवीर कुमार का इस पर टाल-मटोल रुख है कि, “कार्मिक अनुभाग के शासनदेश के तहत आयोग को भेजे जाने वाले विज्ञापन में रिक्तियों की गणना व आरक्षण की पूरी जिम्मेदारी संबंधित विभाग की है। मेरी जानकारी में इसमें कोई कमी नहीं है। यूपी-उत्तराखंड के काडर विभाजन के कारण कुछ कनफ्यूजन हुआ है।” आयोग के अध्यक्ष के बयान से स्पष्ट है कि वे ओबीसी समाज को नौकरियों में 27% आरक्षण नहीं देना चाहते हैं। बिना योगी सरकार की मिली भगत से वे क्या कोई भी किसी भी आयोग का अध्यक्ष ऐसी मंशा नहीं पाल सकता है। अध्यक्ष की एक गलती योगी सरकार पर कितनी भारी पड़ सकती है, क्या इसकी जानकारी सरकार को नहीं है? जिस कार्मिक अनुभाग के शासनादेश की बात प्रवीर कुमार कर रहे हैं उसका भर्ती के विज्ञापन में आरक्षण सम्बन्धी मसौदा इस प्रकार है-
उत्तर प्रदेश अधीनस्थ सेवा चयन आयोग ने पिछड़ों के बाद गरीब सवर्णों यानी आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए मिलने वाले 10% आरक्षण में भी कटौती की है। आयोग को इस भर्ती में 10% आरक्षण के आधार पर गरीब सवर्णों के लिए 146 पद निकालने चाहिए थे जबकि आयोग ने मात्र 117 पद ही निकाला है। इस तरह योगी सरकार आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों की या गरीब सवर्णों की 29 नौकरियाँ डकार गई। जहाँ केंद्र की भाजपा सरकार सवर्ण हितों की साधना के लिए विख्यात है वहीँ राज्य की भाजपा सरकार सवर्ण हितों पर इस तरह कुठाराघात करेगी, इसकी उम्मीद किसी ने नहीं की थी। योगी सरकार के इस विज्ञापन पर चमड़े के ऊपर चमकने वाला जनेऊ थर-थर काँप रहा है। आखिर किस नियमावली के तहत गरीब सवर्णों के 10% आरक्षण को घटाकर 7.97% कर दिया गया है। क्या मुख्यमंत्री योगी को इस विज्ञापन की कोई खबर नहीं है? यदि हाँ तो वह इस पर चुप क्यों हैं? यदि नहीं तो वह इसकी जानकारी लें!
इसके बाद इस विज्ञापन में सत्ता का कहर महिलाओं के क्षैतिज आरक्षण पर गिरा है। जाहिर है कि उत्तर प्रदेश में महिलाओं के लिए 20% क्षैतिज आरक्षण की व्यवस्था लागू है। इस भर्ती में 20% क्षैतिज आरक्षण के आधार पर महिलाओं के लिए पदों की संख्या 293 होती है जबकि आयोग ने इनके लिए मात्र 270 पद ही निकाला है। किस नियमावली या शासनादेश के तहत महिलाओं के लिए लागू 20% क्षैतिज आरक्षण को घटाकर 18.39% कर दिया गया है? 23 महिलाओं का हक डकार कर योगी सरकार को कौन-सी खुशी मिल रही है? यह सरकार का महिला विरोधी रवैया नहीं तो और क्या है? इससे हताश और निराश महिलाओं के लिए प्रभु की भक्ति में लीन होने के अतिरिक्त उनके पास और मार्ग ही क्या है? यह देखना दिलचस्प होगा कि उनकी इस समस्या का समाधान प्रभु की भक्ति से होगा या फिर योगी सरकार की कृपा से।
उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जनजाति या आदिवासियों के लिए 2% आरक्षण की व्यवस्था की गई है और इनकी आबादी भी उत्तर प्रदेश में लगभग इतनी ही है। अधीनस्थ सेवा चयन आयोग को 2% आरक्षण के आधार पर आदिवासियों के लिए 29 पद निकालने चाहिए थे जबकि आयोग ने इनके लिए मात्र 7 पद ही निकाला है। वह सरकार अपनी वर्चस्व स्थापना की मंशा में कितनी क्रूर होगी जो आदिवासियों को महज 2% आरक्षण भी नहीं देना चाह रही है। क्या आदिवासी ऐसी सरकार से अपनी आर्थिक उन्नति, शैक्षिक उन्नति, सामाजिक उन्नति एवं राजनैतिक उन्नति की कल्पना कर सकते हैं? आखिर किस नियमावली के तहत आदिवासी समाज के 2% आरक्षण को घटाकर 0.47% कर दिया गया है? जमीनी धरातल पर देखा जाए तो कहा जा सकता है कि योगी सरकार ने आदिवासियों के विकास में 1.53% कटौती कर दी है। यहाँ तक आते-आते हमें यह ज्ञात होता है कि योगी सरकार पिछड़ों, गरीब सवर्णों, महिलाओं एवं आदिवासियों की नौकरियों में कटौती कर रही है। जब योगी सरकार इन्हें प्राप्त संवैधानिक अधिकारों से इस तरह खिलवाड़ करती है तब उससे इनके हितों के लिए सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन की उम्मीद करना बेमानी होगा।
उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति या दलित समाज के लिए 21% आरक्षण लागू है। इसके तहत आयोग को इस भर्ती में 308 पद निकालने चाहिए थे लेकिन आयोग ने पता नहीं किस प्रेम में 356 पद या 24.25% पद निकाल दिया है। यदि आयोग को पदों की संख्या बढ़ाने का शौक है तो कुल पदों के सापेक्ष सभी आरक्षित श्रेणियों में वृद्धि करे । किसी को खुश और किसी को नाखुश करने का यह कौन-सा तरीका है? मजे की बात यह है कि यहाँ तो योगी सरकार दलित हितैषी साबित हो रही है जबकि इसके ही शासनकाल में दलितों पर हुए अत्याचार किसी से छिपे नहीं हैं।
आयोग ने ग्राम पंचायत अधिकारी के कुल 1468 पदों में 849 पद या 57.83% पद अनारक्षित श्रेणी के लिए निकाला है जबकि आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए या गरीब सवर्णों के लिए 10% आरक्षण लागू किये जाने के बाद इसी आयोग के पहले के विज्ञापनों में इसी अनारक्षित कैटेगरी में 40-41% पद ही निकाले जाते थे। कारण यह है कि गरीब सवर्णों के आरक्षण की वजह से आरक्षण का दायरा 50% से बढ़कर 60% हो गया है। इस बात को पुख्ता करने के लिए आयोग के 19 दिसंबर 2022 के विज्ञापन पर नजर डालना जरुरी है।
जैसाकि उपर्युक्त विज्ञापन से स्पष्ट है कि आयोग ने अपनी गलती में सुधार किया है। इसलिए आयोग को ग्राम पंचायत अधिकारी के वर्तमान विज्ञापन को निरस्त करते हुए संशोधित विज्ञापन निकालना चाहिए। यदि आयोग ऐसा करता है तो वह मुख्यमंत्री योगी की पिछड़ा, गरीब सवर्ण, महिलाएं एवं आदिवासी विरोधी छवि को बचाने में कामयाब हो जायेगा।