ललित गर्ग
चुनाव आयोग द्वारा गुरुवार को गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ ही राजनीतिक सरगर्मिया उग्र हो गयी है। किसी भी राष्ट्र एवं प्रांत के जीवन में चुनाव सबसे महत्त्वपूर्ण घटना होती है। यह एक यज्ञ होता है। लोकतंत्र प्रणाली का सबसे मजबूत पैर होता है। राष्ट्र के प्रत्येक वयस्क के संविधान प्रदत्त पवित्र मताधिकार प्रयोग का एक दिन। सत्ता के सिंहासन पर अब कोई राजपुरोहित या राजगुरु नहीं अपितु जनता अपने हाथों से तिलक लगाती है। गुजरात की जनता इन चुनावों में किसकों तिलक करेंगी, यह भविष्य के गर्भ में है। भले ही 1995 से ही भाजपा लगातार मजबूती से चुनाव जीतती रही है, क्या इस बार भी वह यह इतिहास दोहरायेगी? कांग्रेस यहां सफल एवं सक्षम प्रतिद्वंद्वी रही है, पिछली बार सत्ता के करीब पहुंचने में वह एक बार फिर चुकी थी, क्या इस बार वह ऐसा कर पायेगी? आम आदमी पार्टी दिल्ली जैसा कोई चमत्कार घटित कर पायेंगी?
इन सवालों के बीच मुख्य टक्कर तो इस बार भी भाजपा एवं कांग्रेस के बीच है, तीसरे मजबूत दल के अभाव को दूर करते हुए आम आदमी पार्टी ने अपनी उपस्थिति से भाजपा एवं कांग्रेस दोनों को ही कड़ी टक्कर दे रहा है। दोनों ही दलों की इस बार राह कुछ ज्यादा कठिन जान पड़ती है, क्योंकि आप की सफल दस्तक से यहां का चुनावी समीकरण बदलता दिख रहा है, यह चुनाव त्रिकोणात्मक होता दिख रहा है। आप नेता अरविंद केजरीवाल कई महीनों से उग्र प्रचार कर रहे हैं, जिसका असर भी दिखने लगा है। झाड़ू लोगों का भरोसा जीत पाएगी या नहीं, यह कह पाना मुश्किल है। इस बार का चुनाव मजेदार होने के साथ संघर्षपूर्ण होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। चुनावों का नतीजा अभी लोगों के दिमागों में है। मतपेटियां क्या राज खोलेंगी, यह समय के गर्भ में है। पर एक संदेश इस चुनाव से मिलेगा कि अधिकार प्राप्त एक ही व्यक्ति अगर ठान ले तो अनुशासनहीनता एवं भ्रष्टाचार की नकेल डाली जा सकती है। लोगों का विश्वास जीता जा सकता है। सुशासन स्थापित किया जा सकता है।
182 विधानसभा सीटों की यह विधानसभा क्या एक बार फिर भाजपा को सत्ता पर बिठायेगी? यह प्रश्न राजनीतिक गलियारों में सर्वाधिक चर्चा में है। भले ही त्रिकोणात्मक परिदृश्यों में भाजपा की राह भी संघर्षपूर्ण बन गयी है। क्योंकि इस बार के चुनाव नये परिवेश एवं नवीन स्थितियों के बीच त्रिकोणीय होंगे। यहां के पिछले उप-चुनाव भी त्रिकोणीय संघर्ष के संकेत दे रहे हैं। मगर इस संघर्ष में एक तरफ भाजपा है, तो दूसरी तरफ आप और कांग्रेस। मौजूदा स्थिति यही उजागर कर रही है कि यहां भाजपा व दूसरी पार्टियों के बीच सीधा मुकाबला है। यहां के मतदाता भाजपा, विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से प्रभावित हैं। इसीलिए नजर इस बात पर होगी कि गुजरात चुनावों में दूसरे और तीसरे पायदान पर कौन सी पार्टी कब्जा करती है? भले ही स्थानीय निकाय के चुनावों में, खासकर सूरत के इलाकों में आप ने शानदार प्रदर्शन किया है, जिससे उसे नई ऊर्जा मिली है, मगर यह जोश जीत में कितना बदल पाएगा, इस बारे में अभी कुछ भी कहना मुश्किल है।
पिछलेे विधानसभा चुनावों में भाजपा ने ढाई फीसदी वोट प्रतिशत का इजाफा करते हुए 41.4 प्रतिशत वोट के साथ स्पष्ट बहुमत से 7 सीटें अधिक लेकर 99 सीटें हासिल की एवं सरकार बनायी। उस समय भी मोदी के ही जादू ने असर दिखाया, जादू तो इस बार भी मोदी ही दिखायेंगे। लेकिन एक प्रभावी नेतृत्व एवं आपसी फूट के कारण भाजपा की स्थिति जटिल होती जा रही है। गुजरात में आदिवासी मतदाता की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, आदिवासी समुदाय के मुद्दों की उपेक्षा एवं आदिवासी नेताओं की उदासीनता के कारण इस बार भी यह समुदाय नाराज दिख रहा है। सीटों के बटवारे के समय उचित एवं प्रभावी उम्मीदवारों का चयन करके इस नाराजगी को दूर किया जा सकता है। आदिवासी समुदाय ऐसा उम्मीदवार चाहता है जो उनके हितों की रक्षा करें एवं आदिवासी जीवन के उन्नत बनाये। इनदिनों आदिवासी संत गणि राजेन्द्र विजयजी का नाम भी उम्मीदवारों की सूची में होने की चर्चा है। ऐसे ही उम्मीदवारों से आदिवासी समुदाय के वोटों को प्रभावित किया जा सकता है।
गुजरात चुनाव में मुद्दें तो बहुत से हैं। मुख्य मुद्दा तो मोरबी में हुआ पुल हादसा बन सकता है। जाहिर है, विपक्ष इसे चुनावी मुद्दा बनाकर भाजपा पर तीखें वार करेंगी। यहां आम मतदाताओं में सत्तारूढ़ दल के प्रति कुछ असंतोष दिखाई देता है। खासकर पेंशन योजना को लेकर, क्योंकि यहां सरकारी कर्मचारियों की संख्या काफी ज्यादा है, जो चुनाव में तुलनात्मक रूप से कहीं ज्यादा असरकारक होते हैं। यही वजह है कि हर चुनाव में यहां सरकारी कर्मचारियों के मूड को भांपने का प्रयास किया जाता है। नाराज कर्मचारियों एवं उपेक्षित आदिवासी समुदाय- इन दो मुद्दों पर सकारात्मक सोच से भाजपा अपनी कमजोर जड़ों की काट कर सकती है। अब तो चुनावी टिकटों का बंटवारा ही एकमात्र हल है। भाजपा ने इसके खिलाफ भी कमर कस ली है। उसने करीब एक-तिहाई मौजूदा विधायकों का टिकट काट दिया है और नए चेहरों पर भरोसा किया है। एक और प्रभावी कोशिश में उसने करीब एक साल पहले यहां का पूरा मंत्रिमंडल बदल दिया था। यहां तक कि नए मुख्यमंत्री की भी ताजपोशी की गई थी। यह सब इसलिए किया गया, ताकि राज्य सरकार के खिलाफ यदि लोगों में कोई असंतोष है, तो उसको दबाया जा सके। साफ है, यहां भाजपा की कोशिश न सिर्फ चुनाव जीतने, बल्कि बड़े अंतर से मैदान मारने की है।
गुजरात चुनाव में आप की उपस्थिति एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है। भाजपा एवं कांग्रेस में भारी अंतर्कलह है। नतीजतन, कई बागी नेताओं को आप ने टिकट दिये हैं। निश्चित ही ये बागी अपनी पूर्व पार्टी का नुकसान करेंगे। जाहिर है, इससे यहां चुनावी समीकरण नया रूप लेता दिख रहा है, जिससे मुकाबला कांटे का हो सकता है। आप मुकाबले को तिकोना बना रही है। सबकी नजरें इस बात पर हैं कि यह पार्टी भाजपा और कांग्रेस में से किसके कितने वोट काटती है। कांग्रेस का जोर इस बार रैलियों और आम सभाओं के बजाय डोर टु डोर चुनाव अभियान पर है और उसका दावा है कि यह फलित होगा। मगर बीजेपी के पक्ष में सबसे बड़ी चीज है उसकी मजबूत चुनाव मशीनरी, दूसरी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सर्वप्रिय छवि और तीसरा गृहमंत्री अमित शाह का करिश्माई चुनावी प्रबन्धन एवं प्रभाव। कांग्रेस के पास ऐसी स्थितियों का सर्वथा अभाव है। किसी दौर में भले ही कांग्रेस यहां मजबूत दल हुआ करती थी, लेकिन अब वह काफी कमजोर लग रही है। इसलिये आप को जो भी मजबूती मिलेगी, वह कांग्रेस की कमजोर होती स्थितियों से ही मिलेगी। जाहिर है, कांग्रेस के लिए यहां दोतरफा संघर्ष है। एक तरफ उसे भाजपा से लड़ना है, तो दूसरी तरफ, आप से मिल रही चुनौतियों से पार पाना होगा। बावजूद इसके उसकी चाल सुस्त दिख रही है। इसका फायदा भाजपा को मिलेगा। भाजपा के कुछ वोट टूटते भी है तो वे आप एवं कांग्रेस में बंट जायेंगे। त्रिकोणीय चुनावी संघर्ष की स्थिति में असली फायदा भाजपा को ही मिलेगा। यह चुनाव केवल दलों के भाग्य का ही निर्णय नहीं करेगा, बल्कि उद्योग, व्यापार, रोजगार आदि नीतियों तथा प्रदेश की पूरी जीवन शैली व भाईचारे की संस्कृति को प्रभावित करेगा। वैसे तो हर चुनाव में वर्ग जाति का आधार रहता है, पर इस बार वर्ग, जाति, धर्म, रोजगार, आदिवासी समुदाय व व्यापार व्यापक रूप से उभर कर आए है। मोदी ने गुजरात को एक नई पहचान एवं विकास की तीव्र गति दी हैं, इसकी निरन्तरता जरूरी है। ऐसी स्थिति में मतदाता अगर बिना विवेक के आंख मूंदकर मत देगा तो परिणाम उस उक्ति को चरितार्थ करेगा कि ”अगर अंधा अंधे को नेतृत्व देगा तो दोनों खाई में गिरेंगे।“