ऑपरेशन सिंदूर: भारत की ताकत और विपक्ष की राजनीति का नया द्वंद्व

Operation Sindoor: A new conflict between India's power and the politics of the opposition

अजय कुमार

ऑपरेशन सिंदूर केवल एक सैन्य कार्रवाई नहीं, बल्कि भारत की आतंकवाद के खिलाफ जीरो टॉलरेंस नीति का एक सशक्त प्रतीक बन चुका है। इस ऑपरेशन ने न केवल सीमाओं पर बैठे दुश्मनों को सीधा संदेश दिया है, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी भारत की स्थिति को मजबूत किया है। देशभर में इस ऑपरेशन की सराहना हो रही है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से लेकर कई बड़े देशों ने भारत के इस साहसी कदम की प्रशंसा की है। लेकिन देश के भीतर एक अजीब सा राजनीतिक संघर्ष भी शुरू हो गया है। जिस समय जनता एकजुट होकर सेना के पराक्रम पर गर्व कर रही है, उसी समय प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस इस ऑपरेशन पर सवाल उठाकर खुद को कठघरे में खड़ा कर रही है।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जिस तरह सरकार से यह पूछा कि कितने फाइटर प्लेन गिरे, यह सवाल वाजिब होते हुए भी एक गलत समय पर उठाया गया। जब देश युद्ध की स्थिति में होता है, तब जवाबदेही का मतलब समर्थन होता है, न कि सवालों की बौछार। राहुल गांधी का यह बयान कि “सच जानना हमारा हक है” अपने आप में सही है, लेकिन यह भी उतना ही जरूरी है कि सेना के मनोबल को ऐसे समय में ठेस न पहुंचे। एयर मार्शल एके भारती ने साफ कहा है कि हम युद्ध की स्थिति में हैं और इसमें नुकसान भी होता है, लेकिन क्या हमने अपने लक्ष्य हासिल किए? जवाब है हां। तो जब सेना खुद कह रही है कि उन्होंने मिशन को सफलता से पूरा किया है, तो सवाल पूछने की टाइमिंग पर बहस तो होगी ही।

विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर को ‘मुखबिर’ कहने का आरोप और भी गंभीर है। कांग्रेस नेताओं राहुल गांधी और पवन खेड़ा ने यह दावा किया कि जयशंकर ने ऑपरेशन से पहले पाकिस्तान को सूचना दे दी, जिससे आतंकवादी बच निकले। इस दावे के पीछे जयशंकर का वह बयान है जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत ने पाकिस्तान को स्पष्ट किया कि हमला आतंकवादियों पर होगा, न कि पाकिस्तानी सेना पर। यह बयान युद्ध को टालने और अंतरराष्ट्रीय समुदाय का समर्थन जुटाने की कूटनीतिक कोशिश थी, लेकिन विपक्ष ने इसे एक तरह से देशद्रोह करार दे दिया। क्या यह उचित है कि एक वैश्विक कूटनीति को इस तरह राजनीति का विषय बना दिया जाए?

राहुल गांधी की यह बात कि अगर पाकिस्तान को पहले से जानकारी थी तो मसूद अजहर के घर के दस से ज्यादा लोग मारे कैसे गए? अपने आप में कांग्रेस के आरोपों को खारिज करने के लिए काफी है। यह साफ संकेत है कि भारत ने एक तरफ आतंकियों को मार गिराया, वहीं पाकिस्तान की सेना से सीधी भिड़ंत से बचकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को मजबूत किया। इस रणनीति को कोई समझे या न समझे, पर इसे मुखबिरी कहना न केवल बचकाना है बल्कि खतरनाक भी।

इस पूरे ऑपरेशन पर जो राजनीतिक विवाद खड़ा हुआ है, वह अब बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों का मुख्य मुद्दा बनता जा रहा है। BJP इस ऑपरेशन को राष्ट्रवादी अभियान के रूप में पेश कर रही है, तो वहीं कांग्रेस इसे बीजेपी द्वारा राष्ट्रवाद के नाम पर ‘राजनीतिक सौदा’ बता रही है। कांग्रेस द्वारा ‘सिंदूर का सौदागर’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल यह बताता है कि राजनीति का स्तर किस दिशा में जा रहा है। क्या यह वही पार्टी है जिसने सर्वदलीय बैठक में सरकार को पूरा समर्थन देने का वादा किया था? 8 मई 2025 को रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में हुई सर्वदलीय बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने साफ कहा था कि इस संकट की घड़ी में हम सरकार के साथ हैं। लेकिन ठीक एक हफ्ते बाद कांग्रेस नेताओं के सुर बदल गए। अब सवाल उठ रहा है कि कांग्रेस की उस प्रतिबद्धता का क्या हुआ?

दरअसल, कांग्रेस की रणनीति अब जय हिंद सभाओं के जरिए BJP पर हमला करने की है। 20 से 30 मई के बीच देशभर में कांग्रेस ऐसी सभाएं आयोजित कर रही है जिसमें यह बताया जाएगा कि कैसे बीजेपी राष्ट्रीय सुरक्षा का राजनीतिकरण कर रही है। लेकिन जनता यह सवाल भी पूछ रही है कि क्या यह सभाएं सेना के मनोबल के खिलाफ नहीं जा रही हैं? क्या इन सभाओं का मकसद राष्ट्रवाद की भावना को चोट पहुंचाना नहीं है?

भारत में विपक्ष की भूमिका बहुत अहम होती है। लोकतंत्र में यह विपक्ष की जिम्मेदारी होती है कि वह सरकार को जवाबदेह बनाए, गलतियों की ओर ध्यान दिलाए। लेकिन जब देश युद्ध की स्थिति में होता है, तब आलोचना और समर्थन के बीच की रेखा बहुत महीन हो जाती है। यही वजह है कि 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 की बालाकोट एयरस्ट्राइक के समय कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों ने आरंभिक रूप से सरकार का समर्थन किया था, लेकिन जैसे ही चुनावी राजनीति आई, उन्होंने मोर्चा बदल लिया। इस बार भी कुछ वैसा ही हो रहा है।

राहुल गांधी द्वारा उठाए गए सवालों में यह भी शामिल था कि भारत के कितने फाइटर प्लेन गिरे। तकनीकी रूप से देखा जाए तो यह सवाल उचित हो सकता है, लेकिन इस सवाल का समय और मंच गलत है। युद्ध के समय इस तरह के सवालों से दुश्मन देश को ही लाभ होता है। पाकिस्तान की संसद में बिलावल भुट्टो ने कहा कि भारत ने रात के अंधेरे में हमला किया और इसे कायरता करार दिया। जब पाकिस्तान की सरकार भारत को कायर बता रही है और भारत का विपक्ष कह रहा है कि भारत ने हमला बताकर किया, तो क्या इससे भारत की छवि को नुकसान नहीं होता?

सेना के लिए सबसे बड़ा हथियार होता है जनता का समर्थन। अगर देश की जनता एकजुट होकर अपने जवानों के पीछे खड़ी हो तो सेना का मनोबल ऊँचा रहता है। लेकिन जब देश के भीतर से ही विपक्ष इस तरह के सवाल उठाकर सेना की नीतियों पर संदेह करता है, तो यह सवाल जरूर उठता है कि क्या यह आलोचना है या राजनीतिक हथियार?

कांग्रेस नेताओं ने जिस तरह सिंदूर का सौदागर जैसे शब्दों का प्रयोग किया है, वह भारतीय राजनीति की भाषा के स्तर को गिराता है। यह वही कांग्रेस है जिसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कभी मौत का सौदागर कहा था। अब सिंदूर का सौदागर कहकर बीजेपी को यह जताया जा रहा है कि वह देशभक्ति को बेचना चाहती है। लेकिन सवाल यह है कि अगर बीजेपी राष्ट्रवाद को बेच रही है, तो उसे खरीद कौन रहा है? क्या जनता इतनी भोली है कि वह राष्ट्रवाद के नाम पर सब कुछ भूल जाती है?

आज जब ऑपरेशन सिंदूर जैसे सैन्य अभियानों के जरिए भारत अपनी सीमाओं को सुरक्षित कर रहा है, आतंकवाद के खिलाफ खुलकर मोर्चा ले रहा है, तो क्या विपक्ष की जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह इन प्रयासों का समर्थन करे? आलोचना जरूर होनी चाहिए लेकिन समय देखकर, मंच देखकर और शब्दों को मापकर। आज भारत का आम नागरिक यह पूछ रहा है कि जब देश युद्ध के मुहाने पर खड़ा हो, तब विपक्ष क्यों एकजुट नहीं हो सकता? क्या राजनीति इतनी जरूरी हो गई है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा से भी ऊपर हो जाए?

भारत एक लोकतांत्रिक देश है और यहां सवाल पूछने की आजादी सबको है। लेकिन सवाल वही पूछे जाते हैं जो जरूरी हों, और समय वही चुना जाता है जो उचित हो। ऑपरेशन सिंदूर को लेकर कांग्रेस की बदली हुई रणनीति और तीखे आरोप न केवल उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर रहे हैं, बल्कि देश की एकता और अखंडता के लिए भी खतरे की घंटी हैं। जनता सब देख रही है, और आने वाले चुनावों में इसका जवाब जरूर देगी।