
नृपेन्द्र अभिषेक नृप
भारत की विदेश नीति लंबे समय तक एक संतुलित और संयमित स्वरूप में ढली रही, जिसमें सहिष्णुता, संवाद और बहुपक्षीय साझेदारी को प्राथमिकता दी जाती रही। किंतु बदलते वैश्विक परिदृश्य, सीमा-पार से हो रहे निरंतर हमले, और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों की बारंबार विश्वासघातपूर्ण प्रवृत्तियों ने भारत को अपनी कूटनीतिक सोच और रणनीतिक रवैये में आमूलचूल परिवर्तन करने के लिए विवश कर दिया। ऑपरेशन सिंदूर, जो भारत की सैन्य क्षमता, राजनीतिक इच्छाशक्ति और तकनीकी दक्षता का प्रत्यक्ष प्रमाण बना, केवल एक सैन्य प्रतिक्रिया नहीं थी, वह एक निर्णायक संदेश था, जिसे भारत ने दुनिया को सुनाया।इस अभियान के बाद भारत ने न केवल अपनी सीमाओं की सुरक्षा सुनिश्चित की, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी अपनी भूमिका को पुनः परिभाषित किया।
ऑपरेशन सिंदूर के बाद जम्मू-कश्मीर और सीमावर्ती पाकिस्तानी क्षेत्रों में धूल थोड़ी बहुत बैठ चुकी है, लेकिन यह मान लेना कि भारत का अशांत पड़ोसी देश अब सुधर जाएगा, नासमझी होगी। दशकों के अनुभव ने हमें यह सिखाया है कि पाकिस्तान बार-बार अपने कट्टरपंथ और छल-कपट की ओर लौटता है, और कूटनीति की भाषा उसके लिए केवल मंचीय प्रदर्शन मात्र है। ऑपरेशन सिंदूर में जो सैन्य और मनोवैज्ञानिक आघात पाकिस्तान को मिला, वह शायद कुछ समय तक उसकी गतिविधियों को सीमित रखे, लेकिन यह कोई स्थायी समाधान नहीं है। ऐसे में, प्रश्न यह नहीं है कि पाकिस्तान ने क्या सीखा, बल्कि यह है कि भारत ने इस संघर्ष और उसके पश्चात की घटनाओं से क्या सीखा, विशेषकर अपनी विदेश नीति के परिप्रेक्ष्य में।
भारत को अपनी सतर्कता में किसी भी प्रकार की ढील नहीं देनी चाहिए। पाकिस्तान ने एक बार फिर यह प्रमाणित किया है कि वह एक अविश्वसनीय, गैर-जिम्मेदार और विश्व मंच पर नाटकीयता का प्रदर्शन करने वाला राज्य है। जो सबक इस संघर्ष से मिले हैं, वे न केवल सैन्य स्तर पर महत्वपूर्ण हैं, बल्कि राजनयिक और राजनीतिक नेतृत्व के लिए भी अत्यंत आवश्यक हैं।
सबसे पहली बात यह समझने की है कि पाकिस्तान अब भी अपनी आतंकवादी नीति, छद्म युद्ध और धार्मिक उन्माद की विचारधारा से पीछे हटने को तैयार नहीं है। वह आज भी आतंकवाद को एक नीति के रूप में अपनाए हुए है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि उसने हमेशा सुधार की संभावना को नकारा है। ऐसे में भारत को भी अब यह समझ लेना चाहिए कि पाकिस्तान से शांति की अपेक्षा करना आत्मवंचना है। भारत को अपनी कूटनीति और रणनीति को इस यथार्थ के आलोक में पुनः परिभाषित करना होगा।
इस पूरे प्रकरण के बाद यह भी स्पष्ट हो गया है कि मुस्लिम जगत के बड़े हिस्से ने पाकिस्तान की ‘धार्मिक पीड़ितता’ की कहानी को नकार दिया है। सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र और अन्य अरब देशों ने भारत के साथ सहयोग और मैत्री का रुख अपनाया है। लेकिन इसके विपरीत, कुछ यूरोपीय देशों और अमेरिका के कुछ राजनीतिक वर्गों ने, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहां मुस्लिम आबादी का प्रभाव है, पाकिस्तान के झूठे आख्यानों को समर्थन देने का प्रयास किया। टर्की इस समर्थन का सबसे स्पष्ट उदाहरण है। राष्ट्रपति एर्दोआन ने सीरिया और आर्मीनिया में अपने संघर्षों को धार्मिक चश्मे से देखने के बाद अब पाकिस्तान के साथ स्पष्ट गठबंधन कर लिया है। उन्होंने भारत-विरोधी रुख अपनाकर तुर्की समाज में कट्टरपंथी समर्थन हासिल करने की कोशिश की है।
भारत को इस परिस्थिति में द्विस्तरीय रणनीति अपनानी चाहिए। एक ओर तो उसे तुर्की की वर्तमान नेतृत्व की नीतियों का जवाब कूटनीतिक सख्ती और रणनीतिक गठबंधनों के माध्यम से देना होगा, वहीं दूसरी ओर तुर्की समाज के उस हिस्से से भी जुड़ाव बनाना होगा जो उदारवादी और प्रगतिशील विचार रखता है। एक लोकतांत्रिक और बहु-सांस्कृतिक भारत की छवि को वहाँ के युवाओं और बौद्धिक वर्ग के समक्ष सशक्त रूप में प्रस्तुत करना होगा ताकि भावी तुर्की नेतृत्व के साथ संबंधों की संभावनाएं बनी रहें।
बांग्लादेश की स्थिति भी कम चिंताजनक नहीं है। वहां की सेना और राजनैतिक वर्ग में पाकिस्तान-प्रेरित धार्मिक और सैन्य उग्रवाद की ओर झुकाव स्पष्ट होता जा रहा है। भारत को बांग्लादेश के साथ आर्थिक और सामरिक सहयोग को बनाए रखते हुए, वहाँ की कट्टर शक्तियों को आर्थिक और वैचारिक समर्थन देने वाले वैश्विक वित्तीय संस्थानों के साथ भी संवाद स्थापित करना चाहिए। IMF, विश्व बैंक जैसी संस्थाओं के माध्यम से पाकिस्तान और बांग्लादेश में इस्लामवादी और सैन्य ताकतों को मिलने वाली सहायता पर अंकुश आवश्यक है। यह केवल भारत के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया की स्थिरता के लिए आवश्यक है।
इस पूरे परिदृश्य में चीन की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऑपरेशन सिंदूर में चीन निर्मित वायु रक्षा प्रणाली की असफलता ने चीन को एक स्पष्ट संदेश दे दिया है—भारत अब तकनीकी और रणनीतिक रूप से पिछला नहीं रहा। भारत की सैन्य क्षमताएं केवल आक्रामक ही नहीं, बल्कि चौंकाने वाली भी हैं। इस घटनाक्रम के बाद भारतीय कूटनीति को चाहिए कि वह चीन के साथ संवाद में इस तथ्य को रेखांकित करे कि पाकिस्तान जैसा देश जो परमाणु ब्लैकमेलिंग और आतंकवाद का सहारा लेता है, एक विश्वसनीय साझेदार नहीं हो सकता। चीन को यह समझाना होगा कि भारत के साथ स्थिर और सकारात्मक संबंध न केवल क्षेत्रीय शांति के लिए, बल्कि उसके आर्थिक हितों के लिए भी अनिवार्य हैं।
यूरोप और ब्रिटेन का रवैया, इस पूरे मामले में सबसे निराशाजनक रहा। किसी एक भी प्रमुख राष्ट्र, मीडिया संगठन या राजनेता ने न तो मानवीय आधार पर पीड़ितों के प्रति संवेदना व्यक्त की और न ही पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद को प्रश्रय देने की निंदा की। इसका एक बड़ा कारण यूरोप की आंतरिक राजनीति है, जहाँ मुस्लिम वोट बैंक का महत्व बढ़ता जा रहा है। वामपंथी पार्टियां और उनके नेता, चुनावी गणित के चलते, इस्लामिक कट्टरवाद की आलोचना करने से कतराते हैं। यह प्रवृत्ति न केवल यूरोप की सुरक्षा के लिए घातक है, बल्कि विश्व स्तर पर आतंकवाद के विरुद्ध एकजुट प्रतिक्रिया की संभावनाओं को भी क्षीण करती है।
भारत को अब पश्चिमी एशिया के देशों से मिले समर्थन को और भी गहरा करना होगा। सऊदी अरब, UAE, मिस्र और ओमान जैसे देशों के साथ रक्षा, ऊर्जा, और सांस्कृतिक सहयोग के नए द्वार खुल रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सऊदी अरब यात्रा, जो पहले पलगाम हमले के कारण स्थगित हो गई थी, अब और भी महत्वपूर्ण हो गई है। यह अवसर भारत को पश्चिम एशिया में एक स्थायी और विश्वसनीय शक्ति के रूप में स्थापित कर सकता है।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारत और पाकिस्तान के बीच शांति बहाल करने का दावा, न केवल बेतुका था, बल्कि भारतीय संवेदनाओं को आहत करने वाला भी था। हालांकि ट्रंप के ऐसे कथन अक्सर घरेलू राजनीति की दृष्टि से होते हैं और उन्हें गंभीरता से लेना आवश्यक नहीं, लेकिन यह तथ्य बना रहता है कि भारत और अमेरिका के बीच संबंध पहले से कहीं अधिक मजबूत हैं। नरेंद्र मोदी और ट्रंप के व्यक्तिगत संबंधों की गर्मजोशी ने दोनों देशों के बीच सहयोग को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया है, और ऐसे में इस प्रकार की तात्कालिक टिप्पणियों को भारत को अपने दीर्घकालीन संबंधों की कसौटी नहीं बनाना चाहिए।
इस समूचे घटनाक्रम का सबसे बड़ा सबक यह है कि भारत अब ‘स्वीकृति की तलाश’ में रहने वाला देश नहीं रहा। भारत अब केवल यह नहीं चाहता कि उसे अंतरराष्ट्रीय मंचों से सराहा जाए, बल्कि वह आत्मनिर्भरता और आत्मबल पर आधारित एक ठोस विदेश नीति अपनाने को तैयार है। ऑपरेशन सिंदूर ने यह प्रमाणित कर दिया है कि भारत निर्णय लेने की क्षमता, तकनीकी श्रेष्ठता और राष्ट्रीय एकता के आधार पर अब वह राष्ट्र बन चुका है जो वैश्विक व्यवस्था में अपनी जगह खुद बना सकता है।
यह वह क्षण है जब भारत को यह समझना होगा कि ‘एकला चलो रे’ का मंत्र ही उसकी विदेश नीति की दिशा तय करेगा। वह राष्ट्र जो अपने लक्ष्य को लेकर स्पष्ट और आत्मविश्वास से परिपूर्ण होता है, उसे हर निर्णय के लिए बाहरी स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होती। भारत को अब साझेदारियों के लिए अवश्य तैयार रहना चाहिए, लेकिन उसे अपने हितों की कीमत पर समझौता नहीं करना चाहिए। पुराने साम्राज्यवादी देशों से समर्थन की अपेक्षा छोड़कर, भारत को अपनी कूटनीति, रणनीति और सुरक्षा नीतियों को आत्मनिर्भरता के सिद्धांत पर आधारित करना चाहिए।
आगे का रास्ता कठिन अवश्य है, लेकिन स्पष्ट भी है। भारत को अब ‘युद्ध और शांति’ की इस सदी में केवल एक प्रतिक्रियाशील राष्ट्र के रूप में नहीं, बल्कि एक निर्णायक शक्ति के रूप में खड़ा होना होगा। चाहे वह आतंकवाद से निपटने की रणनीति हो, वैश्विक मंचों पर पाकिस्तान की कूटनीतिक घेराबंदी हो, या चीन और पश्चिम एशिया के साथ संबंधों का पुनर्निर्माण—हर क्षेत्र में भारत को ‘नवभारत’ की छवि प्रस्तुत करनी होगी। एक ऐसा भारत जो न केवल अपनी रक्षा करता है, बल्कि विश्व को यह विश्वास भी दिलाता है कि वह एक स्थिर, सशक्त और विवेकशील शक्ति है।