सुशील दीक्षित विचित्र
रामलला की भव्य नव्य और दिव्य मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा से पहले चल रही राजनीति प्राण प्रतिष्ठा के बाद बंद नहीं हुई बल्कि और तेज हो गयी। विपक्षी दल भाजपा को प्राण प्रतिष्ठा का राजनीतिक लाभ ले रही है। धर्मनिरपेक्षता की दुहाई दे कर धर्म और राजनीति अलग थलग रखने के उपदेश दिए जा रहे हैं। एक वर्ग शंकराचार्यों के विरोध को भी प्राण प्रतिष्ठा के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। यह देखना तो बहुत ही दयनीय है कि जनता के हित में काम करने का दम्भ भरने वाले राजनीतिज्ञ और उनके दल जनता की नब्ज नहीं पहचान पा रहे हैं। न समझ पा रहे हैं कि राम मंदिर का विरोध करके वे अपना जितना नुकसान कर चुके हैं 2024 के चुनाव में उन्हें इससे भी अधिक क्षति हो सकती है।
असल में विपक्ष मोदी के नेतृत्व में 2014 की पराजय के बाद भ्रमित हो गया । समूचे विपक्ष की सबसे बड़ी गलती यह थी कि उसने मोदी की लोकप्रियता को कम कर के आंका । राहुल गांधी और उनके सिपहसालारों ने तो मोदी को कुछ समझा ही नहीं । नतीजा यह हुआ कि विपक्ष भाजपा को रोकने के चक्कर में खुद सिमट गया । कांग्रेस का तो अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया । पिछले दस वर्षों में मोदी ने सात दशकों से चली आ रही राजनीति के मानदंडों को बदल दिया । धर्मनिरपेक्षता की आड़ में चल रहे कुचक्र को समाप्त कर विकास और जन सहयोग को राजनीति का आधार बनाया । यह कई तरह के बदलाव का दशक था । इस दौरान हुए कई विधानसभा चुनाव में पुरानी राजनीति पर मतदाताओं ने भरोसा नहीं दिखाया । आश्चर्य तो इस बात की है कि बारबार की हार से भी विपक्षी दलों ने कोई सबक नहीं सीखा और लगातार वही गलती दोहराते जिससे मोदी और भाजपा फायदा उठाती रही। जहाँ तक प्राण प्रतिष्ठा का चुनावी लाभ लेने का सवाल है तो यह काम भाजपा छुपा कर नहीं कर रही है । राम मंदिर भाजपा ने लम्बी लड़ाई लड़ी । एक लम्बे समय से राम मंदिर का निर्माण उसके हर चुनावी एजेंडे में रहा है । मंदिर निर्माण की अनिश्चितता को ले कर विपक्षी नेता तंज करते थे कि मंदिर वहीँ बनायेंगे लेकिन तारीख नहीं बतायेंगे । 2019 के लोकसभा चुनाव में भी यह मुद्दा उसके एजेंडे में था । अब जब मोदी ने अपने चुनावी एजेंडे का एक और बड़ा वादा निभा कर दिखा दिया तो भाजपा अपने धुवीकरण आशा करे या ऐसा करे तो इसमें गलत क्या है ? यदि रामलला की प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन यदि राजनीति है तो उसका विरोध भी तो राजनीति है । यदि भाजपा इस महती कार्य से अपने पक्ष में बहुसंख्यकों को लामबंद करना चाहती है विपक्षी नेता भी तो विरोध की राजनीति करके अपने पक्ष में अल्पसंख्यकों का ध्रुवीकरण करने की ही कोशिश कर रहे हैं ।
एक लम्बे समय से भाजपा का डर दिखाने का भी मतलब भी तो यही है कि मजहब के नाम पर एक समूह उनके पक्ष में ध्रुवीकृत हो। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री इस्टालिन ने प्राणप्रतिष्ठा के सजीव प्रसारण को देखने पर प्रतिबंध क्यों लगाया ? क्या यह धर्म की राजनीति नहीं है ? मंदिरों के लिए ऐसा आदेश जारी कर वहां लगे उपकरणों की तोड़फोड़ क्या धर्मनिरपेक्षता है ? धर्मनिरपेक्षता तो तब होती जब जनता पर छोड़ा जाता कि वह प्रसारण देखे या नहीं देखे । विपक्ष की धर्मनिरपेक्षता अल्पसंख्यकों को खुश करने नीति है । सवाल यह है कि जब विपक्षी ध्रुवीकरण की राजनीति करते हैं तो भाजपा ऐसा करके क्या गलत करती है ? सीताराम येचुरी को अचानक याद आ गया कि धर्म व्यक्तिगत पसंद का मामला है जिसका राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।
येचुरी यह कहते समय यह भूल गए कि पश्चिम बंगाल में उन्होंने फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की पार्टी के साथ गठबंधन कर राजनीति और धर्म का मिक्सचर बनाया था । कांग्रेस भी इस गठबंधन में शामिल थी । इससे पहले ममता बनर्जी वोटों के लिए फुरफुरा शरीफ के दरबार में नियमित हाजिरी भरती रहीं । तब किसी को धर्म के व्यक्तिगत मामला होने की याद नहीं आयी । सिर पर परात रख कर दरगाहों में चढ़ावा ले जाते राहुल समेत कितने की नेताओं की तस्वीर जब तब छपती रहीं । तब क्या उनके धर्मनिरपेक्ष नियम इस पर लागू नहीं होते थे । यह हाथी के दांत वाली राजनीति अपने उन्हीं दोषों को कुतर्कों की आड़ में ढकती है जिसके लिए भाजपा पर दोष मढ़ती है । विपक्ष की दोहरी विचारधारा वाली जो राजनीति दशकों के चल रही थी उसके सभी मानदंड एक पक्ष की साम्प्रदायिकता को सहलाने और दूसरे को गलियाने वाले रहे हैं ।
रामलला की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करने का विरोध करके विपक्ष ने मुसलमानों को खुश कर पाया या नहीं यह भले ही रहस्यमय हो लेकिन इसमें कोई रहस्य नहीं कि ऐसा करके बहुसंख्यकों के एक वर्ग को न केवल नाराज कर दिया बल्कि भाजपा को मौका दे दिया कि वह उनके विरोध के हथियार से उन्हीं पर प्रहार करे। लालू पुत्र तेज प्रताप यादव जब कहते हैं कि राम नहीं चुनाव आ रहे हैं तो इसे बचकानी राजनीति का बयान ही माना जा रहा है । भाजपा इसे बेहतर जानती है और उसका थिंक टैंक चुनाव के समय ही नहीं,बल्कि हर समय चुनाव के मूड में रहता है । उसके नीति नियंता जानते हैं कि कब कौन सा काम करना चाहिए। चुनाव से ठीक पहले राम को अयोध्या में पुनर्स्थापित कर भाजपा ने लोकसभा चुनाव ही तो साधा है।
राजनीतिक दलों का काम ही मोदी के हर कदम का अंध विरोध करना रहा है । पिछले दस वर्षों से वह ऐसा करता भी आ रहा है लेकिन यह आश्चर्यजनक था कि प्राण प्रतिष्ठा के विरोध में पूज्य शंकराचार्य भी वही भाषा बोल रहे थे जो सनातन विरोधी बोल रहे हैं । वैसे बाद में उन्होंने अपनी गलती सुधारने की कोशिश भी की लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और मंदिर विरोधी उन्हें अपना आइकॉन बना चुके थे । ऐसा नहीं होना चाहिए था जबकि यही गलती 2019 में शंकराचार्य स्वरूपानंद ने भी की थी । तब उन्होंने राम मंदिर निर्माण के भूमि पूजन के मुहूर्त का विरोध किया था । इस विरोध को कांग्रेस प्रायोजित माना गया था । उस कांग्रेस का जो धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए प्राण प्रतिष्ठा में शामिल नहीं होती लेकिन शंकराचार्यों का इस्तेमाल करने से नहीं चूकती ।
हमेशा की तरह क्या कांग्रेस और क्या आईएनडीआईए के घटक दल , एक बार फिर जनता की नब्ज पहचानने में भूल कर गए । यह कहा जाये तो भी गलत नहीं होगा की हमेशा की तरह ही यह भूल भी उन्होंने जानबूझ कर की है। यह उसी राजनीति का नतीजा है जिसका न नवीनीकरण वे कर पाए और न ही नयी राजनीतिक फिजा में खुद को ढाल पाये। उनके पास एक पक्षीय राजनीतिक फार्मूला है जो जातिवाद और तुष्टीकरण पर आधारित है। इसका ज़माना लद चुका है । अब विकास की राजनीति का युग है जिसमें भाजपा ने धर्म का तड़का भी लगा दिया। इस नयी राजनीति की उपेक्षा करना खतरे से पहले भी खाली नहीं रहा है और आगे भी खतरनाक ही साबित हो सकता है। प्राण प्रतिष्ठा करके मोदी ने बढ़त बना ली है और इस बढ़त की कोई काट विपक्षी दलों के किसी चाणक्य के पास नहीं है।