अमित कुमार अम्बष्ट ‘आमिली’
जब भी किसी राज्य में कोई क्षेत्रीय दल भाजपा या भाजपा गठबंधन एनडीए को विधानसभा चुनाव में पराजित करने या चुनौती देने में सफल रहा है , उस खास क्षेत्रीय दल के साथ -साथ दूसरे राज्यों के क्षेत्रीए दलों ने उस कोशिश या जीत पर , विपक्षी एकता का ऐसा डंका पीटा है कि आमजन भी यह सोचने पर मजबूर हो गए है कि शायद इस बार सभी क्षेत्रीय दल अपना निजी स्वार्थ छोड़कर एक मंच पर आ जाएंगे और केन्द्र में सत्तारूढ़ एनडीए सरकार का मुकाबला करने में सक्षम होंगे । चाहे कर्नाटक की बात हो , बिहार उपचुनाव की बात हो , उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की बात हो या फिर पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव और तृणमूल कांग्रेस की प्रचंड जीत की ही बात क्यों न हो , इन सारे प्रदेशों के विधानसभा चुनाव के वक्त या चुनावी नतीजों के बाद विपक्षी एकता का भोपू विपक्षी दलों ने इतनी जोर से बजाया है कि अनायास उनकी एकता का भ्रम होना लाजिमी है । आज भी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की कोशिशों में यह सपना स्पष्ट परिलक्षित होता है कि तृणमूल कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बनकर उभरे और सभी विपक्षी दल ममता बनर्जी को विपक्ष का नेता मान लें । यही कारण रहा है कि ममता बनर्जी विधानसभा चुनाव में प्रचंड जीत के बाद राष्ट्रीय राजनीति में बेहद सक्रिय होने की कोशिश करती दिखती हैं, इसकी एक बानगी तब भी दिखी थी जब सभी दल राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार हेतु चिंतन में लगे थे । शुरूआत में एनडीए बिल्कुल शांत होकर मंथन में लगा था ,लेकिन ममता बनर्जी तब भी अति सक्रिय थी , उन्होंने सबसे पहले फारूक़ अब्दुल्ला और शरद पवार का नाम आगे किया , लेकिन दोनों ही नेताओं ने अपनी उम्मीदवारी से इंकार कर दिया , तत्पश्चात ममता बनर्जी के द्वारा ही सबसे पहले 22 विपक्षी दलों में से 17 दलों को इस विषय पर निर्णय लेने हेतु संयुक्त बैठक का आयोजन किया गया , जिसमें कुछ एक दल को छोड़ बाकी सभी उपस्थित भी रहे और अंत में बाजपेयी सरकार में वित्त मंत्री रहे यशवंत सिन्हा के नाम पर मुहर लगी , जो अब तृणमूल कांग्रेस के सदस्य हैं , यशवंत सिन्हा ने उम्मीदवार बनना स्वीकार भी लिया , लेकिन चुनाव प्रक्रिया के दौरान ऐसा हमेशा ही महसूस होता रहा कि विपक्ष का यह निर्णय बिल्कुल अदूरदर्शी है , निर्णय लेते वक्त विपक्ष की शायद यही सोच रही होगी कि बीजेपी के पुराने कद्दावर नेता होने के कारण उन्हें कुछ बीजेपी का वोट भी मिल जाएगा लेकिन विपक्ष यह भूल गया कि यशवंत सिन्हा सवर्ण जाति से आते हैं और उनकी छवि कभी भी तोड़मोड़ कर समीकरण साध पाने वाले नेताओं में नहीं रही है और अगर बिहार , उत्तर प्रदेश की बात करें तो दलित, आदिवासी और मुस्लिम मतों के दम पर अपनी सियासी दांव खेलने वाले विपक्षी दलों के लिए यशवंत सिन्हा का समर्थन करना मुश्किल होगा । हालांकि मतों की दृष्टि से एनडीए एवं विपक्ष के स्थिति को देखने पर ऐसा स्पष्ट परिलक्षित हो रहा था कि एनडीए सरकार के पास इतने पर्याप्त मत नहीं हैं कि वो अपने उम्मीदवार को आसानी से जीत दिलवा सके, क्योंकि राष्ट्रपति के चुनाव के लिए लोकसभा सांसद, राज्यसभा सांसद और सभी राज्यों के विधायक वोट करते हैं , हर वोट की वैल्यू अलग-अलग होती है , जो वैल्यू हर राज्य की जनसंख्या के आधार पर निकाली जाती है , जिस राज्य की जनसंख्या अधिक होती है वहाँ के वोटर की वोट वैल्यू अधिक होती है । इस आधार पर देश में कुल विधायकों की संख्या 4120 है एवं सांसदों की संख्या 776 है । अगर कुल वोट वैल्यू की बात करे तो यह 1079206 थी जबकि राष्ट्रपति चुनाव में जीत हेतु उम्मीदवार को 549442 वोट वैल्यू की जरूरत थी , अगर एनडीए गठबंधन की बात करें तो एनडीए के पास कुल 526420 वोट वैल्यू ही था, जबकि यूपीए के पास 259892 वोट वैल्यू था , अन्य दलों का वोट वैल्यू 292894 था , ऐसे में स्पष्ट है कि एनडीए अपने दम पर जीत हासिल करने से दूर थी और शायद यही अंतर विपक्षी दलों की उम्मीद थी कि वे सत्तारूढ़ एनडीए को राष्ट्रपति चुनाव में पटखनी दे सकते है , क्योंकि जहाँ एनडीए 22992 वोट वैल्यू से पिछड़ रही थी वहीं अगर तमाम विपक्षी दल साथ आ जाते तो उनकी वोट वैल्यू 552786 हो जाती, ऐसे में विपक्ष के उम्मीदवार की जीत भी असंभव नहीं थी । लेकिन सत्तारूढ़ एनडीए ने द्रौपदी मुर्मू का नाम राष्ट्रपति के उम्मीदवार हेतु आगे करके ऐसी चुनौती पेश की , कि विपक्षी एकता तार – तार हो गयी । द्रौपदी मुर्मू के व्यक्तित्व के सामने न सिर्फ विपक्षी दल असहज दिखे अपितु यशवंत सिन्हा के नाम पर मुहर लगाने वाली ममता बनर्जी भी चुनाव के पहले ही यह कहने से खुद को नहीं रोक सकी कि अगर एनडीए ने पहले नाम का खुलासा किया होता तो वो भी द्रोपदी मुर्मू का ही समर्थन करती ।
अब जब चुनाव के नतीजे सामने आ गए है , प्रथम आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू देश की राष्टपति चुन ली गयी हैं, चुनाव के नतीजे से इतर अगर दोनों उम्मीदवार को मिलें मतों पर एक नजर डालें तो विपक्षी असहज़ता और बिखराव स्पष्ट दिखाई देता है । एक तरफ जहाँ यशवंत सिन्हा को 1877 मत प्राप्त हुए जिसकी वोट वैल्यू 380177 है , वहीं द्रोपदी मुर्मू को 2824 मत प्राप्त हुए , जिसकी वोट वैल्यू 876803 था , अगर प्रतिशत में देखें तो द्रोपदी मुर्मू को 64 फीसदी मत प्राप्त हुए, अर्थात स्पष्ट है कि द्रोपदी मुर्मू को एनडीए का वोट तो प्राप्त हुआ ही साथ ही साथ कुछ विपक्षी दलों का साथ मिला , इतना ही नहीं कुछ विपक्षी दल जो अंत तक द्रोपदी मुर्मू के खिलाफ रहें उनके कई सांसदों और विधायकों ने भी अपने दल के विचार से अलग हटकर क्राॅस वोटिंग किया , उपलब्ध आंकड़े के अनुसार एनडीए और द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करने वाले विपक्षी दलों के अलावा भी 17 सांसद और 125 विधायकों ने द्रोपदी मुर्मू के पक्ष में क्राॅस वोटिंग किया है , क्राॅस वोटिंग करने वाले राज्यों में हिमाचल प्रदेश के 2 , हरियाणा के 1, गुजरात के 10 , महाराष्ट्र के 16 , गोवा के 4 ,झारखंड के 10, मेघालय के 7 , बिहार के 6 , अरुणाचल प्रदेश के 1 , आसाम के 22 , मध्यप्रदेश के 18 सहित कुछ और विधायक भी शामिल रहे । इतना ही नहीं पश्चिम बंगाल से भी 2 सांसद और 1 विधायक क्राॅस वोटिंग में शामिल रहे।
कहने में कोई संदेह नहीं कि एनडीए ने राष्टपति चुनाव में न सिर्फ विपक्षी एकता को ध्वस्त कर दिया अपितु 2024 में आने वाले लोकसभा चुनाव के लिए भी अपनी मजबूत दावेदारी अभी से पेश कर दिया है ,खासकर तब जब तमाम विपक्षी दल 2024 के लोकसभा चुनाव का इंतजार इस आस से कर रहें हैं कि शायद विपक्ष एकजुट हो और वे एनडीए की सरकार को पदच्युत कर सकें। लेकिन राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे ने जिस तरह से विपक्षी एकता को आईना दिखाया है , इससे यह साफ हो गया है कि विपक्ष आज की तारीख में एनडीए को चुनौती देने में असक्षम है , अगर विपक्ष वास्तव में कोई चुनौती पेश करना चाहता है तो उसे स्वार्थरहित होकर एकजुट होना होगा और अपनी रणनीति पर पुनः विचार करना होगा , अन्यथा केन्द्र की सत्ता पर एक बार फिर एनडीए सत्तारूढ़ हो जाए तो कोई चौंकाने वाली बात नहीं होगी ।