सुरेश हिंदुस्तानी
आजकल वर्तमान केंद्र सरकार को सत्ताच्युत करने के सपने देखने की राजनीति गरम है। केंद्र में विपक्ष की राजनीति करने वाली कांग्रेस सहित तमाम क्षेत्रीय दल एक साथ चलने का राग अलाप रहे हैं, लेकिन वर्तमान राजनीतिक शैली को देखते हुए सहज ही यह सवाल देश के वातावरण में अठखेलियाँ कर रहा है कि क्या आज की स्थिति और परिस्थिति को देखते हुए विपक्ष की भूमिका निभाने वाले राजनीतिक दल एक होकर चुनाव लड़ पाएंगे। यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है, क्योंकि सारे दल इस जोर आजमाइश में लगे हैं कि किसको कितनी सीट दी जाएं। इस बारे में कांग्रेस के समक्ष बड़ी विकट स्थिति निर्मित होती जा रही है। क्योंकि जहां एक ओर कांग्रेस के नेता राहुल गांधी कांग्रेस के अस्तित्व को बचाने के लिए एक और राजनीतिक यात्रा पर निकल चुके हैं, वहीं दूसरी ओर क्षेत्रीय दल कांग्रेस को कोई भाव नहीं दे रहे। इसके पीछे का कारण स्वयं कांग्रेस की राजनीति ही है। क्योंकि उसके नेताओं को न तो अपनी वास्तविक स्थिति का ज्ञान है और न ही उसके नेता वैसा आचरण ही कर रहे हैं। इसी कारण आज क्षेत्रीय दल कांग्रेस से ज्यादा प्रभावशाली हैं। वास्तविकता यह है कि कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों के सहारे की तलाश है और कांग्रेस इस सत्य को अभी समझने में पूरी तरह असमर्थ दिखाई दे रही है।
देश में चल रहे राजनीतिक घटनाक्रम के बाद यह लगने लगा है कि केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार पुनः आसीन होने की ओर अग्रसर है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि केंद्र की सरकार ने जो काम किए हैं उनके प्रति भारत की जनता का जुड़ाव दिखाई देता है। इसी कारण भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए जहां देश में विपक्ष के राजनीतिक दल एकता के लिए प्रयास करते दिखाई दे रहे थे, अब उन प्रयासों में बहुत बड़ा पेच सामने आ गया है। यह पेच इसलिए भी स्थापित हुआ है क्योंकि कांग्रेस को सारे क्षेत्रीय दल आंखें दिखाने की अवस्था में दिखाई देने लगे हैं। इसके पीछे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का अस्तित्व बचाने का तर्क दिया जा सकता है, लेकिन सत्य यह भी है कांग्रेस वर्तमान में बहुत कमजोर हो गई है। इसलिए कांग्रेस को मन मुताबिक सीट देने को कोई भी दल तैयार नहीं है। पश्चिम बंगाल में एक तरफ ममता बनर्जी कांग्रेस को उसकी स्थिति के अनुसार सीट देने को तैयार नहीं है। वहीं उत्तरप्रदेश में भी समाजवादी पार्टी कांग्रेस को ज्यादा सीट देने के मूड में नहीं है। इंडी गठबंधन के लिए रही सही कसर पर नीतीश कुमार ने बिहार में कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। इस राजनीतिक घटनाक्रम के बाद स्वाभाविक रूप से विपक्षी एकता के गठबंधन को बहुत बड़ा आघात लगा है। उल्लेखनीय है कि नीतीश कुमार विपक्षी गठबंधन की एकता के एक बड़े नेता के रूप में स्थापित हुए थे, जिन्हें कांग्रेस द्वारा महत्व नहीं दिए जाने के कारण नीतीश कुमार ने अपनी अलग राजनीतिक राह निर्मित कर ली।
वर्तमान में राजनीति रूप से अस्तित्व बचाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे विपक्षी दलों के समक्ष एक बार फिर से अपनी एकता को बनाए रखने के लिए चुनौतियों का पहाड़ स्थापित होता दिखाई दे रहा है। जहां तक विपक्षी एकता की बात है तो आज के हालात को देखते हुए निश्चित ही यह कहा जा सकता है कि जितने मुंह उतनी बातें हो रही हैं। विपक्ष के सारे दल किसी न किसी रूप में अपनी महत्वाकांक्षा को प्रदर्शित कर रहे है। तू डाल डाल, मैं पात पात वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए कांग्रेस सहित क्षेत्रीय दल अपनी पहचान बनाए रखने के लिए एक दूसरे को आंखें दिखा रहे हैं। इससे एक बात पूरी तरह से स्पष्ट हो जाती है कि कांग्रेस के नेतृत्व को कोई भी दल सर्वसम्मति से स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है। लेकिन कांग्रेस का रवैया ऐसा दिखाई दे रहा है, जैसे उनका ही दल सब कुछ है। पश्चिम बंगाल और पंजाब की राजनीतिक स्वरों के निहितार्थ तलाशे जाएं तो यह कहने में कोई अतिरेक नहीं होगा कि कांग्रेस इन राज्यों में अपेक्षाकृत प्रदर्शन नहीं कर पाएगी। ऐसा इसलिए भी संभव है, क्योंकि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का आधार और प्रभाव है और वह किसी भी प्रकार से अपने प्रभाव को कमजोर करने का काम नहीं करेंगी, क्योंकि ममता के पास पश्चिम बंगाल के अलावा कहीं भी राजनीतिक जमीन नहीं है। ऐसा ही पंजाब में आम आदमी पार्टी के बारे में कहा जा सकता है। इन दोनों दलों का व्यापक प्रभाव इन्हीं राज्यों में है, जिसे वह खोना नहीं चाहते।
आज भले ही कांग्रेस की ओर से विपक्षी एकता के प्रयास किए जा रहे हों, लेकिन इन प्रयासों की सफलता तभी संभव है, जब कांग्रेस अन्य राजनीतिक दलों उनकी महत्वाकांक्षाओं के साथ स्वीकार किया जाए, लेकिन कांग्रेस की वर्तमान रवैए को देखते हुए ऐसा संभव नहीं लगता।
एक समय गठबंधन के मुख्य सूत्रधार कहे जाने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के भाजपा की तरफ कदम बढ़ाने की कवायद को विपक्षी एकता के लिए जबरदस्त आघात के रूप में ही देखा जा रहा है। ऐसा करने के पीछे अनुमान यही है कि भारतीय जनता पार्टी ने अपनी स्वीकारोक्ति में वृद्धि की है। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण भले ही न्यायालय के आदेश पर हुआ हो, लेकिन इसके लिए भाजपा के योगदान को आज पूरा देश जानता है। आज बिहार की राजनीति का अध्ययन किया जाए तो यह कहना ठीक ही होगा कि वहां भले ही राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड के बीच बेमेल गठबंधन बनाकर सरकार का संचालन किया जा रहा था, लेकिन इन दोनों दलों के बीच विचारों की एकता नहीं थी। दोनों ही दल अपनी अपनी दाल पकाने में व्यस्त रहे। कहा तो यह भी जा रहा है कि लालू प्रसाद यादव अपने पुत्र को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान करने की राजनीति करने लगे थे।
इसी प्रकार की स्थिति उत्तरप्रदेश की है, जहां कांग्रेस की राजनीतिक जमीन शून्यता की ओर कदम बढ़ा रही है। ऐसे में समाजवादी पार्टी कांग्रेस को उतना महत्व नहीं देगी, जितना वह चाहती है। इस प्रकार की परिस्थिति के बीच कांग्रेस अपने राजनीतिक भविष्य की तस्वीर में किस प्रकार से रंग भरेगी, यह फिलहाल टेडी खीर ही कही जाएगी। कुल मिलाकर यही कहा जाएगा कि विपक्ष की एकता जो प्रयास किए जा रहे हैं, उसके समक्ष एक एक करके बड़े अवरोध भी स्थापित हो रहे हैं। इस अवरोधों का सामना करने की हिम्मत एकता से ही संभव हो सकती थी, जो फिलहाल असंभव सा ही लग रहा है। ऐसा लगने लगा है विपक्षी एकता के प्रयास तार-तार हो रहे हैं। इसके पीछे कांग्रेस की एक बड़ी खामी यह भी है कि वह भगवान श्रीराम की प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में न जाने की आत्मघाती भूल कर चुकी है। भगवान राम से भारत की जनता का सीधा संबंध है, जिसे कोई भी राजनीतिक दल नकारने का साहस नहीं कर सकता। विपक्षी राजनीतिक दलों को भविष्य की राजनीति की ओर कदम बढ़ाना है तो उसे भारत की आस्था को सम्मान देना ही होगा, नहीं तो जो स्थिति पहले हुई, वैसी ही स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए।