ऋतुपर्ण दवे
एक बार फिर दुनिया का बेशकीमती हीरा कोहिनूर जिसे बहुतेरे सामंतक मणी भी कहते हैं, जबरदस्त सुर्खियों में है। शायद यह अकेला ऐसा हीरा है जिसकी अब तक सबसे ज्यादा सुर्खियाँ दिखीं। अभी कोहिनूर ब्रिटेन की हाल ही में परलोक सिधारी महारानी एलिजाबेथ द्वितीय की मौत के बाद फिर चर्चाओं में है। कोहिनूर उनके ताज में सुशोभित है और क्रिस्टल पैलेस में प्रदर्शिनी के लिए रखा हुआ है। इसकी कीमत सुनकर भी सिवाय आश्चर्य के कुछ नहीं होता। अभी अनुमानतः कोहिनूर की कीमत डेढ़ लाख करोड़ रुपये है। हकीकत यह है कि न तो आज तक कभी बेचा गया सो खरीदे जाने का सवाल ही नहीं उठता। हमेशा तोहफे या जीतकर ही तमाम हुक्मरानों के पास आता, जाता रहा। उपलब्ध और ज्ञात तथ्यों से पता चलता है कि कोहिनूर का इतिहास लगभग 5000 वर्ष पुराना है, संभव है कि और भी ज्यादा हो।
मूल रूप से कोहिनूर आंध्र प्रदेश के गोलकोंडा से निकलने के बाद 793 कैरेट का था और दुनिया का सबसे बड़ा हीरा था। ब्रिटेन पहुँचने के बाद और चमक की खातिर तराशा गया जिससे 105.6 कैरेट का रहकर 21.6 ग्राम वजन का है। सबसे पहले 12वीं शताब्दी में काकतीय साम्राज्य के पास था जहां वारंगल के एक मंदिर में हिंदू देवता की आंख के तौर पर मंदिर की शोभा बढ़ाता रहा। हीरे का सबसे पहला जिक्र 1304 के आसपास मिलता है कहते हैं मालवा के राजा महलाक देव के खजाने का हिस्सा था। पहली बार कोहिनूर लूटने में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर का नाम आता है जिसने 1310 में लूटकर खिलजी को भेंट किया। उसके बाद कभी लुटकर तो कभी उपहारों के जरिए हुक्मरानों की शोभा बढ़ाता रहा। इस खूबसूरत और बेशकीमती कोहिनूर को जो भी देखता उसका दिल इसी पर आ जाता। इसी कोहिनूर की वजह से कई शासकों की सल्तनत तहस-नहस हो गई और हत्याएँ भी हुईं। इसलिए इसे श्रापित भी कहा गया यह चर्चा 13वीं सदी से चली आ रही है।
1526 में मुग़ल शासक बाबर ने बाबरनामा में हीरे को खुद का बताते हुए सुल्तान इब्राहिम लोधी की भेंट बताया। बाबर के वंशज, हुमायूँ तथा औरंगजेब ने इस अमूल्य हीरे की सौगात अपने पोते सुल्तान महमद औरंगजेब को दी जो बेहद निडर एवं कुशल शासक था उसने अपनी बहादुरी से कई राज्य हथियाये। 1739 में फारसी शासक नादिर शाह भारत आया और महमद की सल्तनत पर कब्जा कर उसके राज्य की धरोहरों को अपने अधीन किया जिसमें कोहिनूर भी था। कोहिनूर नाम उसी का दिया है। उसके कब्जे में कोहिनूर कई साल रहा। 1747 में उसकी हत्या के बाद हीरा जनरल अहमद शाह दुर्रानी के पास पहुंच 1813 में वापस भारत आ गया। चूँकि राजा रंजीत सिंह ने दुर्रानी को अफगानिस्तान से लड़ने एवं राजगद्दी वापस दिलाने में मदद की थी इसलिए उन्हें हीरा सौंप दिया। रंजीत सिंह ने अपनी वसीयत में कोहिनूर को मृत्यु उपरान्त जगन्नाथपुरी के मंदिर को देने वसीयत लिखी परंतु ईस्ट इंडिया कंपनी नहीं मानी। 29 मार्च 1849 को द्वितीय एंग्लो-सिक्ख युद्ध में ब्रिटिश फोर्स ने राजा रंजीत सिंह को हरा कर उनकी सभी संपत्ति तथा राज्य को कब्जा लिया। ब्रिटिश सरकार ने लाहौर की संधि लागू करते हुए कोहिनूर को ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया को सौंपने की बात कही। इस तरह कोहिनूर लंबी यात्रा करते हुए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने खजाने में रख लिया और अंततः जुलाई 1850 में इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया को सौंप दिया गया तबसे राजपरिवार के अधीन है। अभी हाल ही में दिवंगत रानी की ताज में जड़ा है और लंदन टावर में सुरक्षित रखा है।
आजादी के बाद 1947 से भारत की कोहिनूर वापसी की तमाम नाकाम कोशिशें हुईं। 1953 में महारानी एलीजाबेथ द्वितीय के राजतिलक के वक्त भी कोहिनूर वापसी की माँग को ब्रिटेन हुकूमत ने नकार दिया। इधर 1976 में पाकिस्तान ने भी इस पर दावा जताया, उसे भी ठुकराया दिया। इतिहास की दुहाई दे अफगानिस्तान ने भी दावा किया कि कोहिनूर वहीं से भारत गया फिर ब्रिटेन। इसलिए पहला हक अफगानिस्तान का है। ईरान ने भी कोहिनूर पर दावा किया, लेकिन ब्रिटेन ने ठुकरा दिया। भारत ने तो यहाँ तक कहा कि ब्रिटेन ने अनैतिक रूप से हासिल किया है। सन् 1997 में महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के भारत दौरे के समय भी यह मांग उठी थी। जुलाई 2010 में तो तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड केमरून ने यहां तक कह दिया कि अगर ब्रिटिश सरकार हरेक देश के दावे को सही मान अमूल्य रत्न एवं वस्तुएँ लौटाती रहेगी तो ब्रिटिश संग्रहालय अमूल्य धरोहरों से खाली हो जाएगा। महात्मा गांधी के पोते सहित कई भारतीयों ने भी इसे लौटाने की मांग की। फरवरी 2013 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कैमरून के भारतीय दौरे पर उन्होने कोहिनूर को लौटाने से साफ इंकार कर दिया।
2016 में जबलपुर के रहने वाले स्टेनली जॉन लुईस जो स्टेशन रोड पर ढ़ाबा चलाते हैं का रोचक दावा भी खूब चर्चाओं में रहा। उन्होंने इसे अपने परदादा एलबर्ट लुईस (सन् 1800) की धरोहर बता खानदानी संपत्ति बताया जिसे राजा-महाराजा अपने कब्जा में करने कवायदें करते रहे। लुइस का दावा है कि इसे बेचकर 700 सालों तक सारी दुनिया को खाना खिलाया जा सकता है। ब्लैक बेल्ट और पैराग्लाइडिंग एक्सपर्ट लुइस ने ढ़ाबे कमाई का बड़ा हिस्सा इसी लड़ाई में खर्चा। 2008 में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में रिट पिटीशन दायर की जिसका नंबर 540/2008 है। इसमें भारत व ब्रिटेन के प्रधानमंत्री सहित अन्य को पक्षकार पार्टी बनाया। इधर एक आरटीआई के जवाब में 43 साल पुराने कानून का हवाला देकर केंद्र ने बताया कि भारत कोहिनूर को हासिल नहीं कर सकता।
नियमानुसार उन प्राचीन वस्तुओं को वापस लाने की अनुमति नहीं है, जो आजादी से पहले परदेश जा चुकी हैं। पुरावशेष और बहुमूल्य कलाकृति अधिनियम 1972 के प्रावधानों में भारतीय पुरातत्व विभाग उन्हीं प्राचीन वस्तुओं की वापस प्राप्ति का मुद्दा उठाता है जिन्हें अवैध रूप से निर्यात किया गया। चूँकि कोहिनूर आजादी से पहले जा चुका था इसलिए वो मुद्दे को नहीं उठा सकता। वहीं विदेश मंत्रालय से इस बावत हुए पत्रचार की कॉपी मांगने पर कहा कि मामला संस्कृति मंत्रालय के अधीन आता है।
सुप्रीम कोर्ट ने भी ऑल इंडिया ह्यूमन राइट्स एंड सोशल जस्टिस फ्रंट और हेरिटेज बंगाल की याचिका खारिज करते हुए कहा कि अदालत सरकार के जवाब से संतुष्ट है कि वो हीरा वापसी का प्रयास कर रही है। 21 अप्रेल 2017 को सुधारात्मक याचिका और उससे जुड़े कागजात देख सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने दखल के मामले से इनकार कर याचिका खारिज दी। इससे दो साल पहले भी अदालत ने कहा था कि वह हीरा भारत लाने या विदेशी सरकार को नीलामी रोकने का आदेश नहीं दे सकती क्योंकि भारतीय अदालत दूसरे देश में हो रही घटनाओं पर कैसे आदेश पारित कर सकती है? 2015 में भी भारतीय मूल के ब्रिटिश सांसद कीथ वाज ने तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा से पहले वहाँ संसद में एक भाषण दौरान कोहिनूर भारत को लौटाने की मांग की रखी। अब ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय की मौत के बाद उनके ताज में जड़ा हमारा कोहिनूर सोशल मीडिया में हैश टैग के साथ फिर सुर्खियों में है। कोई गंभीर है तो कोई ब्रिटेन को शाही चोर कह रहा है तो कोई मीम के जरिए अपनी बातें कह रहा है। कुछ भी हो हजारों साल पुराने कोहिनूर से हमारा खास लगाव ही है जो अब भी आस लगाए बैठे हैं। लगाएँ भी क्यों न जब लंबी लड़ाई से आक्रान्ताओं और गोरों को खदेड़ सकते हैं तो क्या कोहिनूर को पाने खातिर ईमानदार कोशिशों से पीछे क्यों रहें? जैसे स्वतंत्रता की जंग से अँग्रेजों को पछाड़ा ठीक वैसे कोहिनूर के लिए नई जंग से भला परहेज कैसा?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।)