भ्रष्टाचार पर हाहाकार । सब लाचार । जनता का अमिट इंतजार ।

सीता राम शर्मा ” चेतन “

मुगलो और अंग्रेजों की गुलामी के बाद स्वतंत्र हुए भारत की सबसे बड़ी त्रासदी रहा है भ्रष्टाचार । भ्रष्टाचार के जन्म और विस्तार का मुख्य और बड़ा कारण राजनीतिक भ्रष्टाचार है या प्रशासनिक ? इस सवाल का सही उत्तर खोजने की बजाय फिलहाल इस सवाल का उत्तर खोजने की आवश्यकता ज्यादा है कि यह खत्म कैसे होगा ? गौरतलब है कि सत्ता ( राजनीति ) के भ्रष्ट हुए बिना शासन ( प्रशासन ) का भ्रष्ट होना या बने रहना बेहद मुश्किल है । भारतीय सत्ता अर्थात राजनीतिक व्यवस्था की त्रासद स्थिति यह रही है कि इसे चलाने वाले अधिकांश लोग अर्थात राजनीतिज्ञ अनपढ़, कम पढ़े लिखे, अपराधी प्रवृति वाले और अयोग्य लोग रहे हैं, जिन्हें पढ़े लिखे चतुर और तेज तर्रार अधिकारी अपने स्वार्थ और सुविधा के अनुसार चलाते, हांकते रहे हैं । यह स्वाभाविक और सिद्ध सत्य है कि जब व्यवस्था का कोई चयनित जिम्मेवार नेता अपने समुचित अधिकार, कर्म और कार्य क्षेत्र की जानकारी से अनभिज्ञ होगा तो अपने कार्य के लिए अपने अधीनस्थ उस जानकार अधिकारी पर आश्रित रहेगा, जिसे उसके आज्ञानुसार काम करना होता है ! अब जबकि वह अपनी अज्ञानता, अयोग्यता, असमर्थता के कारण उसी अधिकारी के अनुसार कार्य करेगा तो उसकी नीति और नीयत सही होने के बावजूद गलत और भ्रष्टाचार होने की गुंजाइश शत-प्रतिशत बनी रहेगी । राजनीतिक भ्रष्टाचार को लेकर एक सर्वाधिक चिंतनीय बात यह है कि वर्तमान भारतीय सत्ता और राजनीतिक व्यवस्था में चुनाव की जो अत्यंत खर्चीली, मत खरीद-फरोख्त और मतदाता को प्रलोभन देने वाली जगजाहिर कुव्यवस्था है, उसमें अनैतिक धन की जरूरत और अनिवार्यता लगभग जरूरी हो गई है । उम्मीदवार बनाए जाने और चुनाव जीतने के लिए उम्मीदवार में ईमानदारी, परोपकार और कर्मठता की योग्यता भले ना हो पर उसमें साम दाम दंड भेद की नीति के साथ धनबल का होना आवश्यक है । कुल मिलाकर सारांश यह है कि वर्तमान भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में विधायक और सांसद जैसे राज्य तथा देश के बेहद महत्वपूर्ण पद पर आसीन होने के जो संवैधानिक नियम और कानून हैं, विधायक और सांसद बनने की योग्यता संबधी खामियां है, राजनीतिक दलों की नीतियां हैं और इसकी त्रुटिपूर्ण चुनावी प्रक्रिया है, उसके रहते भारतीय राजनीतिक व्यवस्था से भ्रष्टाचार का खत्म होना असंभव है । अयोग्य, असमर्थ और भ्रष्ट राजनीतिज्ञों की वर्चस्व अथवा अधिकता वाली सत्ता और राजनीतिक जमात के द्वारा राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार को खत्म करने की बात सरासर बेईमानी है । जो लगातार की जा रही है ।

अब इस संदर्भ में बात उत्तर प्रदेश चुनावी नतीजे के बाद प्रधानमंत्री के द्वारा देश भर में भ्रष्टाचार के विरुद्ध निर्णायक जंग छेड़ने और भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति तथा भ्रष्टाचार मुक्त भारत की ओर आगे बढ़ने की, तो प्रथम दृष्टया उनकी वह बात अच्छी लग सकती है और पिछले कुछ दिनों से देश भर में कई राजनीतिज्ञों और प्रशासनिक अधिकारियों पर होती कार्रवाईयों से खुश भी हुआ जा सकता है, पर क्या यह अच्छी लगती, दिखती कार्रवाईयां सचमुच अच्छी हैं ? अच्छी सिद्ध होगी ? क्या सचमुच इनसे आम जनता को खुश होना चाहिए ? मुझे लगता है, बिल्कुल नहीं । क्यों ? आइए इसके लिए सबसे पहले पिछले दो-तीन दशकों में ही भ्रष्टाचार पर हुई बातों, बहसों के साथ कुछ राजनीतिक दलों के द्वारा किए गए बड़े-बड़े वादों, दावों, सामने आए और लाए गए भ्रष्टाचार के मामलों और फिर उनके दोषियों पर हुई न्यायिक कार्रवाईयों पर एक सरसरी दृष्टि डालते हैं । यह जानने का मैराथन प्रयास करते हैं कि पिछ्ले कुछ दशकों में ही सामने आए बड़े और बहुचर्चित घोटालों और उनके संभावित गुनाहगारों का हस्र क्या हुआ ? हम सबको खूूब याद है कि 2004 से 2014 तक के युपीए शासन काल में आज की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी आए दिन मनमोहन सरकार पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लगाती रहती थी । उन दिनों आए दिन भाजपा के हर बड़े-छोटे नेता, कार्यकर्ता और प्रवक्ताओं की जेब में तब की युपीए सरकार के हजारों करोड़ के घोटालों की लंबी लिस्ट पाई जाती थी । सच्चाई तो यही है कि 2014 लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत और युपीए की हार का बड़ा और महत्वपूर्ण कारण मोदी का चेहरा या उनके गुजरात विकास का माॅडल कम, युपीए सरकार के बेतहाशा भ्रष्टाचार का शोर ज्यादा था, जिसे मोदी ने भी चुनाव प्रचार का मुख्य मुद्दा बनाया था । अब भ्रष्टाचार की बात करते हुए सबसे बड़ा और जरुरी सवाल यह है कि यदि सचमुच तब की युपीए सरकार ने उतने घोटाले किए थे, भ्रष्टाचार हुआ था तो फिर पिछले आठ वर्षों में केंद्र सरकार के रुप में मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने कितने भ्रष्टाचारियों को सजा दिलवाई ? भ्रष्टाचार के कितने मामलों का पूरी तरह पर्दाफाश हुआ ? राजनीतिक भ्रष्टाचार को समाप्त करने के इस सरकार ने कौन से भागीरथ और बड़े प्रयास किए ? कौन से सख्त कदम उठाए गए ? अब भ्रष्टाचार ना हो पाए, इसके लिए कौन से पर्याप्त सुधार किए गए ?

सच मानिए, इन सवालों का जवाब तो दूर पूरी ईमानदारी से भ्रष्टाचार की इस समस्या पर अब तक मोदी सरकार ने गंभीर चिंतन भी नहीं किया है ! वह करना भी नहीं चाहती क्योंकि यदि वह ऐसा चाहती तो अब तक सांसद, विधायक बनने की योग्यता, चुनाव सुधार और राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदों के लिए बड़े, प्रभावी, कठोर और पूर्ण पारदर्शी नियम कानून बना चुकी होती या फिर इसके लिए संवैधानिक लड़ाई लड़ रही होती । इस संदर्भ में पूरी ईमानदारी से यह तर्क दिया जा सकता है और समझा भी जा सकता है कि सौ में नब्बे चोर की स्थिति में ऐसा करना आत्मघाती सिद्ध होगा । भ्रष्टाचार के कोढ से मुक्ति का यह काम एक दीर्घकालीन प्रक्रिया के तहत धीरे-धीरे ही संभव है । तब भी भ्रष्टाचार को लेकर भाजपा की ईमानदारी संदिग्ध ही दिखाई देती है । फिलहाल राजनीतिक भ्रष्टाचार को लेकर जिस तरह झारखंड में ईडी और इन्कम टैक्स की एकतरफा कार्रवाई हो रही है और कार्रवाई होते मामलों पर ही भूतपूर्व भाजपाई सरकार के संदिग्ध नेताओं, मंत्रियों को दूर रखकर अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें क्लीन चिट देने का काम किया जा रहा है, उससे ना सिर्फ झारखंड के सत्ता पक्ष की यह बात सत्य और तर्क संगत दिखाई देती है कि उन्हें एक षड्यंत्र के तहत बदनाम या परेशान किया जा रहा है बल्कि यह भी सिद्ध होता है कि भ्रष्टाचार को लेकर भाजपाई केंद्र सरकार पक्षपात पूर्ण रवैया अपना रही है । यदि मोदी सरकार इन बातों, तथ्यों या आरोपों से असहमत है तो उसे सबसे पहले झारखंड के अपने एक भूतपूर्व भाजपाई मंत्री, जिनकी छवि सचमुच एक ईमानदार नेता की है, उन सरयू राय की बातों और सवालों पर सोचना और जवाब देना चाहिए । यह शत-प्रतिशत सच है कि वर्तमान मोदी सरकार स्वतंत्र भारत की सबसे अच्छी और सफल सरकार है, जिसका अगले कुछ वर्षों तक रहना, देश में बने रहना बेहद जरूरी है । बावजूद इसके इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि राजनीतिक भ्रष्टाचार को लेकर इसकी नीति और नीयत में बड़ा खोट है । जिसे किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं किया जा सकता ।