संसद अपनाये जवाबदेही के प्रभावी टूल किट

Parliament should adopt effective tool kit of accountability

अधि. देवेन्द्र सिंह असवाल

संसद केवल ईंटों और गारे की संरचना मात्र नहीं है। भारतीय संविधान के तहत, संसद राष्ट्र की सर्वोच्च विधायी और प्रतिनिधि संस्था है। भारतीय संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के बीच शक्ति का कोई पृथक्करण नहीं है क्योंकि मंत्रिपरिषद विधायिका से ली गई है और उनका अस्तित्व संसदीय समर्थन पर निर्भर है। वुड्रो विल्सन, जो बाद में अमेरिकी राष्ट्रपति बने, संसदीय प्रणाली से प्रभावित थे, जहां ‘मंत्री सदनों को निर्देशित किए बिना उनका नेतृत्व करते हैं, और मंत्री खुद को गलत समझे बिना नियंत्रित होते हैं’। लेकिन जब व्यवस्थापिका कार्यपालिका द्वारा नियंत्रित और निर्देशित होती है, तो संसद की जवाबदेही शक्ति क्षीण और शिथिल हो जाती है।

भारतीय गणतंत्र के संस्थापकों ने सरकार की स्थिरता की अपेक्षा विधायिका के प्रति कार्यपालिका की जवाबदेही को प्राथमिकता दी। व्यवस्थापिका के प्रति कार्यपालिका की जवाबदेही भारतीय संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली की धुरी है। जवाबदेही का उद्देश्य जिम्मेदारी, पारदर्शिता और सुशासन है जो संसदीय प्रणाली का मूल मन्त्र है।

परन्तु संसद अपने दायित्व निर्वहन में कितनी सक्षम है, यह गहन चर्चा और चिन्ता का विषय है। संसद की बैठकों की संख्या में चिंताजनक रूप से कमी आई है, बैठकों की औसत अवधि भी कम हो गई है। 17वीं लोकसभा की, औसतन, एक वर्ष में 55 बैठकें हुईं, आंशिक रूप से महामारी के कारण। लेकिन वर्ष 13वीं लोकसभा के बाद से संसद की औसत बैठकों और बैठकों की अवधि में बड़ी तेज़ी से गिरावट आई है। यहां तक कि अंग्रेजों के अधीन केंद्रीय विधान सभा की भी 1921 से 1947 के बीच एक वर्ष में औसतन 74 बैठके होती थी। दुनिया की कुछ अग्रणी संसदों की बैठकों से तुलना करें तो यह बेहद चिंताजनक है। वर्ष 2003 से 2012 के बीच, इंगलैण्ड के हाउस कॉमन्स की औसतन 140, अमेरिका कांग्रेस की 136, कनाडा की 110 बैठके एक साल में हुई, जबकि इसी अवधि के दौरान लोकसभा की औसतन सालाना बैठके 69 दिन ही हुई।

एक चिंता का कारण यह है कि संसद की कार्यवाही अचानक और समय से पहले अनिश्चित काल के लिए स्थगित कई बार कर दी जाती है। यह एक अस्वस्थ प्रवृत्ति है, जब व्यापक सार्वजनिक सरोकार के महत्वपूर्ण मुद्दे चर्चा के लिए प्रतीक्षा कर रहे हों। इससे विपक्ष को सरकार की आलोचना करने का एक अनावश्यक अवसर मिल जाता है।

एक अप्रिय दृश्य सदस्यों और पीठासीन अधिकारियों के बीच बीच-बीच में होने वाली रस्साकस्सी है। पीठासीन अधिकारी किसी भी पक्ष का गोलकीपर नहीं बल्कि संसदीय विमर्श का अम्पायर होता है। वह किसी का नहीं या सभी का होता है। अध्यक्ष से पूरी तरह तटस्थ रहने, कटु पक्षपात से रहित होने और अपने निर्णय देने में पर्याप्त साहसी होने की अपेक्षा की जाती है। 1642 में, जब इंग्लैंड के राजा चार्ल्स-I ने पांच सांसदों को गिरफ्तार करने के लिए हाउस ऑफ कॉमन्स पर धावा बोला, तो स्पीकर लेंथॉल ने असाधारण साहस का परिचय देते हुए, उनके ठिकाने का खुलासा करने से इनकार कर दिया और प्रसिद्ध शब्द कहे, “महाराज, इस स्थान पर मेरे पास देखने के लिए न तो आंखें हैं और न ही बोलने के लिए जीभ, लेकिन सदन जो मुझे निर्देश देना चाहता है, मैं यहां सदन का सेवक हूं”।

सदन में विधेयकों पर चर्चा के लिए समय बहुत कम हो गया है। पिछली लोकसभा में एक घंटे से भी कम समय में 36% विधेयक पारित हुए थे। समितियों को उत्तरोत्तर कम विधेयक भेज जा रहे है। 17वीं लोकसभा में 16% विधेयक, जबकि 16वीं लोकसभा में 25% और 15वीं लोकसभा में 71% विधेयक समितियों को भेजे गए । लॉर्ड हेलशम ने ब्रिटिश संसद को ‘कार्यविधायिका ( एक्जिक्यूटेचर) के रूप में परिभाषित किया है – कार्यपालिका के नियंत्रण में एक व्यवस्थापिका। जब संसद में बिना चर्चा या पर्याप्त चर्चा के विधेयक पारित हो जाते हैं, तो संसद कार्यपालिका की रबर स्टैंप बन जाती है। गहरी बेचैनी का एक और मामला यह है कि समितियों को बहुत कम विधेयक भेजे जा रहे हैं। सांसद संविधान के प्रति सच्ची आस्था और निष्ठा रखने की शपथ लेते हैं, लेकिन 17वीं लोकसभा में कोई उपसभापति नहीं था, जबकि संविधान में अनुच्छेद 93 में यह प्रावधान है कि लोकसभा जल्द से जल्द दो सदस्यों को क्रमशः अध्यक्ष और उपसभापति के रूप में चुनेगी।

कहा जाता है कि किल्ला जब भी ध्वस्त होता है तों आन्तरिक कलह से । एक मजबूत समिति प्रणाली के लिए यह आवश्यक है कि समिति के सदस्य स्वेच्छा से दलगत राजनीति से ऊपर उठकर, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष होकर सुचिंतित एकमत अनुशंसा दें। समिति में ध्रुवीकरण, समिति प्रणाली के लिए घातक है। ध्रुवीकरण समिति प्रणाली के लिए मृत्यु नाद है। ध्रुवीकरण के कुछ उदाहरण उल्लेखनीय हैं। 15वीं लोकसभा के दौरान, लोक लेखा समिति, स्पेक्ट्रम आवंटन पर अपनी रिपोर्ट को नहीं अपना सकी, क्योंकि समिति अंत में ध्रुवीकृत हो गई। लोक लेखा समिति के स्वर्णिम इतिहास में इस तरह का यह पहला उदाहरण था। 16वीं लोकसभा के दौरान प्राक्कलन समिति सरकारी सदस्यों के कड़े विरोध के कारण विकास को मापने के मापदंडों पर अपना प्रतिवेदन नहीं दे सकी। 17वीं लोकसभा के दौरान आचार समिति की विभाजित रिपोर्ट के आधार पर एक सदस्य को निष्कासित करना एक और गंभीर उदाहरण है। सदस्यों को निलंबित करने के बाद कानून पारित करना किसी भी प्रतिनिधि लोकतंत्र की संरचना के लिए बहुत बड़ा खतरा है।

संसद और उसकी समितियों के कामकाज में परंपराओं की बहुत बड़ी भूमिका होती है।वुड्रो विल्सन ने बहुत सुन्दर कहा कि संसद का अधिवेशन मतलब संसद की नुमाइश, और संसद की समितियों की बैठकें, मतलब संसद काम कर रही है । 1967 से लोक लेखा समिति की अध्यक्षता मुख्य विपक्ष के पास जाती रही है। यह परंपरा संतोषजनक रूप से अब भी कायम है। लेकिन वित्त समिति और विदेश मामलों की समिति के अध्यक्ष विपक्ष के पास जाने की परंपरा को दरकिनार कर दिया गया है। कई सांसदों और वरिष्ठ पत्रकारों को इस बात पर भी अफसोस है कि नए संसद भवन में केंद्रीय कक्ष का घोर अभाव है, जहां दोनों सदनों के सदस्य वैचारिक मतभेदों को दरकिनार करते हुए अनौपचारिक माहौल में आपसी विश्वास के साथ मिलते और विचार-विमर्श करते थे।

संसद सशक्त हो, आवश्यक है कि संसद की साल में कम से कम 80 से 100 बैठके हों और संसद में विमर्श हो। संसद की न्यूनतम वार्षिक बैठकें हो यह सुनिश्चित करने के लिए अनुच्छेद 85 में संशोधन की आवश्यकता है। विनियोग विधेयक, वित्त विधेयक और छोटे संशोधन विधेयकों को छोड़कर सभी विधेयक समितियों को भेजे जाने चाहिए। ब्रिटेन और राष्ट्रमंडल देशों की तरह प्रधानमंत्री के प्रश्नकाल की शुरुआत करने की आवश्यकता है। यह वास्तव में एक साहसिक व ऐतिहासिक नई शुरुआत होगी। निजी सदस्यों के विधेयकों और संकल्पों को समुचित समय मिलना चाहिए। सांसद जो भी विषय या विधेयक सदन में लाते हैं वह निजी नहीं बल्कि सार्वजनिक और राष्ट्रीय महत्व के होते हैं। सभी सदस्य विधि निर्माता हैं और इसलिए विधायी प्रस्ताव शुरू करने का उनका अंतर्निहित अधिकार है। वास्तव में, 1951 से 1970 के बीच, मंत्रियों के अलावा अन्य सदस्यों द्वारा चौदह विधेयक पारित और अधिनियमित किए गए थे। इसके अलावा, विपक्ष द्वारा उठाए जाने वाले तत्काल मुद्दों के लिए सप्ताह में कम से कम एक दिन निर्धारित किया जाना चाहिए। संसद को बुलाने और कम से कम एक तिहाई सांसदों की मांग पर कानून पेश करने और विचार करने के लिए प्रक्रिया के नियम में संशोधन की आवश्यकता है। इससे सदन की सामान्य कार्यवाही में व्यवधान को कम करने में मदद मिलेगी जैसे कि प्रश्नकाल चलाना और स्थगन प्रस्ताव लाने की प्रवृत्ति को भी काफी हद तक स्वतः अंकुश लगेगा। । ये सभी उपाय पारदर्शिता व सुशासन स्थापित करने में बहुत कारगर सिद्ध होंगे और हमारे संसदीय लोकतंत्र को और सुदृढ़ करेंगे। जवाबदेही की चुनौतियां लोकतंत्र की चुनौतियां हैं और इसलिए यह जरूरी है कि संसद जबाबदेही के प्रभावी टूल किट से सुसज्जित हो ताकि कार्यपालिका व्यवस्थापिका के प्रति जवाब देह बनी रहे।
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लेखक दिल्ली स्थित अधिवक्ता और लोकसभा के पूर्व अपर सचिव हैं। व्यक्त किए गए विचार निजी हैं।