
अजेश कुमार
भारतीय लोकतंत्र की शक्ति उसकी बहस, विचार और सहमति-असहमति की संस्कृति में निहित है। संसद इस लोकतांत्रिक संस्कृति की सबसे पवित्र संस्था है, जहां विविध विषयों पर व्यापक बहस के माध्यम से नीति निर्माण और जनप्रतिनिधित्व का उद्देश्य पूरा होता है, लेकिन जब संसद की कार्यवाही केवल सत्ता और विपक्ष के टकराव का अखाड़ा बन जाए, और जब महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा के स्थान पर स्थगन और बहिर्गमन हावी हो जाए, तो लोकतंत्र की आत्मा आहत होती है। बिहार में चल रही स्पेशल इंटेंशिप रिविजन (एसआईआर) प्रक्रिया को लेकर हालिया संसदीय गतिरोध इसी असंतुलन का एक ज्वलंत उदाहरण बन गया है।
बिहार में मतदाता सूचियों के स्पेशल इंटेंशिप रिविजन (एसआईआर) को लेकर उठे विवाद ने एक बार फिर देश में निर्वाचन प्रक्रिया की पारदर्शिता, निष्पक्षता और विश्वसनीयता पर बहस को जन्म दिया है। विशेष रूप से तब, जब विपक्षी नेताओं का आरोप है कि यह प्रक्रिया एक निश्चित राजनीतिक लाभ के उद्देश्य से की जा रही है, और इसके ज़रिए मतदाता सूची में मनमाने ढंग से फेरबदल की कोशिश हो रही है। विपक्ष का दावा है कि यह प्रक्रिया न केवल संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि इससे करोड़ों मतदाताओं के बीच भय और संदेह की स्थिति उत्पन्न हो रही है।
राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खरगे ने इस मुद्दे को उठाते हुए सभापति की पिछली टिप्पणियों का हवाला दिया, जिनमें उन्होंने कहा था कि संसद में किसी भी विषय पर चर्चा हो सकती है, सिवाय न्यायपालिका के आचरण के, जब तक वह महाभियोग के दायरे में न हो। इसका आशय यह है कि यदि कोई विषय न्यायिक प्रक्रिया में है भी, तो उसकी लोकतांत्रिक समीक्षा या विमर्श संसद में संभव है, बशर्ते वह न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप न करे।
इस मुद्दे पर केंद्र सरकार का रुख अपेक्षाकृत रक्षात्मक दिखाई दे रहा है। कानून मंत्री किरण रिजिजू ने लोकसभा में कहा कि एसआईआर मामला न्यायालय के अधीन है, इसलिए इस पर संसद में चर्चा नहीं की जा सकती। यह तर्क तकनीकी दृष्टि से सही प्रतीत हो सकता है, लेकिन लोकतांत्रिक दृष्टिकोण से यह संदिग्ध है, क्योंकि एक ओर जहां सरकार सुप्रीम कोर्ट के अधीनस्थ विषयों पर चर्चा से बचना चाहती है, वहीं विपक्ष का कहना है कि संसद में न्यायिक प्रक्रिया से अलग राजनीतिक और प्रशासनिक प्रक्रियाओं की समीक्षा होनी चाहिए। विपक्ष का तर्क है कि एसआईआर प्रक्रिया केवल कानूनी मामला नहीं, बल्कि एक राजनीतिक और लोकतांत्रिक चिंता का विषय है। मतदाता सूची में किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ न केवल चुनावों की निष्पक्षता को प्रभावित कर सकती है, बल्कि यह देश की चुनावी साख को भी गहरा आघात पहुंचा सकती है।
राज्यसभा में जब उपसभापति हरिवंश ने एसआईआर पर चर्चा के लिए आए 35 नोटिसों को खारिज कर दिया, तो विपक्षी सांसदों ने भारी विरोध जताया। आप सांसद संजय सिंह समेत कई नेताओं ने यह सवाल उठाया कि यदि संविधान में संसद को सर्वोच्च मंच माना गया है, तो फिर वहां जनता से जुड़ी इतनी महत्वपूर्ण प्रक्रिया पर विमर्श से परहेज क्यों किया जा रहा है? यह विरोध केवल संसदीय बहस की मांग नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र के उस बुनियादी सिद्धांत की पुनर्पुष्टि है जिसमें कहा गया है कि असहमति ही लोकतंत्र का आधार है। अगर संसद में विपक्ष को अपनी आवाज़ उठाने और सरकार से जवाबदेही मांगने का अवसर नहीं दिया जाएगा, तो फिर लोकतंत्र की बुनियादी परिभाषा ही कमजोर हो जाएगी।
उपसभापति हरिवंश का यह कथन कि विपक्षी सांसद सदन नहीं चलने देना चाहते, अपने-आप में चिंता का विषय है। विपक्ष यदि किसी विषय पर चर्चा की मांग कर रहा है, और उसके लिए नियम 267 के अंतर्गत नोटिस दे रहा है, तो यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है, न कि अराजकता। ऐसे में, नोटिसों को तर्कहीन रूप से खारिज करना न केवल सदन की गरिमा के विपरीत है, बल्कि यह जनमत का भी अपमान है।
यह विडंबना ही है कि सत्ता पक्ष और सभापति अक्सर विपक्ष के व्यवधानों को सदन को बंधक बनाने की संज्ञा देते हैं, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि ये व्यवधान उन्हीं विषयों पर चर्चा की मांग के चलते पैदा होते हैं, जिन्हें सत्ता पक्ष टालना चाहता है। बिहार की एसआईआर प्रक्रिया एक राज्य विशेष का मामला प्रतीत हो सकता है, लेकिन इसका प्रभाव राष्ट्रीय स्तर पर पड़ेगा। विपक्षी नेताओं के अनुसार यह प्रक्रिया अन्य राज्यों जैसे पश्चिम बंगाल और असम में भी लागू की जा सकती है। इससे मतदाता सूची की शुचिता और चुनावी प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर संदेह उत्पन्न होता है।
अगर, संसद इस विषय पर चुप्पी साधे रहती है, तो यह संदेश जाएगा कि देश में चुनावी पारदर्शिता पर बहस की कोई आवश्यकता नहीं है। इससे जनमत में लोकतंत्र के प्रति विश्वास टूटेगा, और यह लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ चुनाव प्रणाली को कमजोर कर सकता है। यह तथ्य भुलाया नहीं जाना चाहिए कि भारतीय संसद की परंपरा रही है कि वह देश की संवेदनशील और जटिल समस्याओं पर खुली बहस की अनुमति देती रही है, फिर चाहे वह आपातकाल हो, मंडल आयोग हो या राम जन्मभूमि विवाद हो, तब अगर आज के युग में विपक्ष चर्चा की मांग करता है और सरकार इसे ठुकरा देती है, तो यह न केवल संवैधानिक मूल्यों के ह्रास की ओर संकेत करता है, बल्कि यह इस बात का भी संकेत है कि संसद अब सत्ता का उपकरण मात्र बनती जा रही है।
कुल मिलाकर, बिहार का एसआईआर विवाद अब एक प्रशासनिक प्रक्रिया से कहीं आगे निकलकर लोकतांत्रिक विमर्श, जवाबदेही और पारदर्शिता की कसौटी बन चुका है। विपक्ष की यह मांग कि इस विषय पर संसद में विस्तृत चर्चा हो, न केवल जायज़ है, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा के अनुरूप भी है। यह जिम्मेदारी केवल विपक्ष की नहीं, बल्कि सरकार की भी है कि वह विमर्श के लिए स्थान बनाए और चर्चा से न भागे। यदि, सत्ता पक्ष हर असहमति को अड़चन मानेगा और हर बहस को विरोध की साजिश करार देगा, तो संसद की सार्थकता खो जाएगी। और जब संसद की सार्थकता खोती है, तो लोकतंत्र की नींव हिलने लगती है। अतः यह समय है कि सत्ता और विपक्ष दोनों संसद को संघर्ष का मंच नहीं, संवाद का मंच बनाएं, ताकि लोकतंत्र केवल एक प्रक्रिया न रहे, बल्कि जीवंत अनुभूति भी बना रहे।