सुनील कुमार महला
संसद का शीतकालीन सत्र 1 दिसंबर 2025 सोमवार से शुरू किए जाने के प्रस्ताव को मंजूरी मिल गई है। यह सत्र 19 दिसंबर 2025 तक चलेगा।इस सत्र से ठीक पहले रविवार को हुई सर्वदलीय बैठक में विपक्ष ने मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) पर चर्चा नहीं कराने पर विरोध करने का अपना इरादा जाहिर कर दिया है। कांग्रेस ने कहा है कि सत्र के दौरान एसआइआर,वोट चोरी और दिल्ली ब्लास्ट का मुद्दा उठाया जाएगा। यहां तक कि सरकार की विदेश नीति पर भी सवाल उठाए गए हैं।सपा के एक नेता ने यह बात कही है कि एसआइआर के दबाव और तनाव में बीएलओ आत्महत्या कर रहे हैं। देश की सुरक्षा, प्रदूषण और चुनाव आयोग पर भी निशाना साधा गया है। इससे यह संकेत मिल गए है कि सदन की कार्यवाही के दौरान हंगामा हो सकता है। जानकारी के अनुसार सरकार की 14 बिल पेश करने की तैयारी है। इनमें क्रमशः जन विश्वास (प्रावधानों का संशोधन) विधेयक, 2025; दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता (संशोधन) विधेयक, 2025; मणिपुर वस्तु एवं सेवा कर (द्वितीय संशोधन) विधेयक, 2025 (जो एक ऑर्डिनेंस की जगह लेगा); निरस्तीकरण और संशोधन विधेयक, 2025; राष्ट्रीय राजमार्ग (संशोधन) विधेयक, 2025; परमाणु ऊर्जा विधेयक, 2025; कॉर्पोरेट कानून (संशोधन) विधेयक, 2025; प्रतिभूति बाजार संहिता विधेयक (एसएमसी), 2025; बीमा कानून (संशोधन) विधेयक, 2025; मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) विधेयक, 2025; भारतीय उच्च शिक्षा आयोग विधेयक, 2025; केंद्रीय उत्पाद शुल्क (संशोधन) विधेयक, 2025 ; स्वास्थ्य सुरक्षा से राष्ट्रीय सुरक्षा उपकर विधेयक, 2025 तथा वित्तीय कार्य (वर्ष 2025-26 के लिए अनुदानों की अनुपूरक मांगों के प्रथम बैच पर प्रस्तुति, चर्चा और मतदान तथा संबंधित विनियोग विधेयक का पुरःस्थापन, विचार और पारित/वापसी) आदि शामिल हैं। उपलब्ध जानकारी के अनुसार इनमें से कुछ बिलों पर चर्चा भी हो सकती है। इनमें जन विश्वास, भारतीय उच्च शिक्षा आयोग विधेयक और केंद्रीय उत्पाद शुल्क (संशोधन) विधेयक, 2025 भी शामिल हैं। इसके अलावा कुछ आर्थिक सुधारों से जुड़े और मणिपुर में लागू ऑर्डिनेंस को बदलने वाला बिल भी है। इसके लिए सरकार पूरी तरह तैयार है, वहीं विपक्षी गठबंधन भी कमर कस चुका है।कुल मिलाकर सच तो यह है कि संसद के शीतकालीन सत्र पर विपक्ष ने अपने मुद्दे साफ कर दिए हैं। मॉनसून सेशन अगर ऑपरेशन सिंदूर के नाम था, तो इस बार बहस के केंद्र में एसआइआर है। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि संसद सत्र सुचारु रूप से चलना ही लोकतंत्र के हित में है, क्योंकि प्रत्येक सत्र पर देश का कीमती समय और भारी धनराशि खर्च होती है। इसलिए अपेक्षा केवल सरकार से नहीं, बल्कि विपक्ष सहित सभी जनप्रतिनिधियों से है कि वे सदन में अधिक परिपक्वता, संयम और सहयोग दिखाएँ। जब राजनीतिक टकराव की जगह रचनात्मक चर्चा को प्राथमिकता मिलेगी, तभी सत्र अपनी सार्थकता साबित करेगा और देशहित से जुड़े कार्य समय पर पूरे हो सकेंगे। जैसा कि इस आलेख में ऊपर भी चर्चा कर चुका हूं कि शीत सत्र एक से 19 दिसंबर तक चलना है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस शीतकालीन सत्र में लगभग 15 दिन काम होगा। इन दिनों में शिक्षा, सड़क निर्माण और कॉरपोरेट कानून से जुड़े कई जरूरी बिल पेश किए जाएंगे। साथ ही हेल्थ सिक्यॉरिटी एंड नैशनल सिक्यॉरिटी सेस बिल, 2025 भी लाया जा सकता है, जिसका उद्देश्य देश की स्वास्थ्य सुविधाओं और सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत करने के लिए एक नया टैक्स (उपकर) लगाना है। वास्तव में,ये सभी प्रस्ताव बहुत ही अहम और महत्वपूर्ण हैं, इसलिए इन पर संसद में गंभीर और उपयोगी चर्चा होनी चाहिए। विपक्ष की भी अपनी अलग-अलग मांगें व मुद्दे हैं, जिसे सर्वदलीय बैठक में रखा गया था। विपक्ष राष्ट्रीय सुरक्षा, एस आइ आर, वायु प्रदूषण और विदेश नीति पर विस्तृत चर्चा चाहता है। वास्तव में यह बहुत ही अच्छी बात है कि विपक्षी दलों ने इस बारे में पहले ही अवगत करा दिया है और संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू के ही मुताबिक, किसी ने भी यह नहीं कहा कि संसद नहीं चलने दी जाएगी। सरकार और विपक्ष, दोनों का इस पर सहमत होना कि सदन चलनी चाहिए, स्वागत योग्य है। कहना ग़लत नहीं होगा कि संसद की कार्यवाही शुरू होने के बाद राजनीति नहीं होनी चाहिए और संसद को सुचारू रूप से चलने देना चाहिए, क्यों कि पिछला प्रदर्शन कुछ ठीक नहीं रहा है।सरल शब्दों में कहें तो पिछला मानसून सत्र ज्यादा कामकाज वाला नहीं था।लोकसभा और राज्यसभा दोनों में हंगामे के कारण काफी समय बर्बाद हुआ। इस बार भी बाहर की राजनीतिक तनातनी संसद में असर डाल सकती है, क्योंकि 12 राज्यों में चल रही वोटर लिस्ट की विशेष समीक्षा को लेकर विपक्ष कई तरह के सवाल लगातार उठा रहा है, लेकिन सच यह है कि बहस और कामकाज तभी आगे बढ़ेगा, जब दोनों पक्ष शांत रहकर मुद्दों पर बात करेंगे, न कि हंगामा करके। वास्तव में, सदन को प्रभावी और सुचारु रूप से चलाना किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की मूल व मुख्य शर्त है। इसमें सरकार और विपक्ष दोनों की अपनी-अपनी जिम्मेदारियाँ और भूमिकाएँ तय हैं। सरकार का दायित्व है कि वह एजेंडा को आगे बढ़ाए, बहस के लिए माहौल बनाए और प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर दे। वहीं विपक्ष की भूमिका है कि वह सरकार को जवाबदेह बनाए, सरकार का गलतियों की ओर ध्यान दिलाए और नीतियों पर सार्थक चर्चा कराए।लेकिन इन दोनों भूमिकाओं का सार्थक परिणाम तभी निकलता है जब सदन की गरिमा, मर्यादा और समय की अहमियत को समझा जाए। लगातार हंगामा, नारों के बीच बहस का रुक जाना, या विपक्ष-सरकार का एक-दूसरे को सुनने से इंकार कर देना, ये सब हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर ही करते हैं। संसद सिर्फ राजनीतिक संघर्ष का मंच नहीं, बल्कि नीति-निर्माण, सुधार और जनता की आवाज को आगे बढ़ाने का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। यदि हमारे जनप्रतिनिधि बीते सत्र की कमियों से सीख लेते हैं, जैसे कम उत्पादकता, बार-बार बाधित होती कार्यवाही, और जरूरी विधेयकों पर अधूरी चर्चा आदि तो आने वाले सत्र अधिक उपयोगी और परिणामदायी बन सकते हैं। संसद लोकतंत्र का वह मंच है जहाँ देश की नीतियाँ तय होती हैं, कानून बनते हैं और जनता की समस्याओं के समाधान पर गंभीरता से चर्चा की जाती है। यह हंगामा और शोर-शराबा करने की जगह नहीं, बल्कि विचार-विमर्श, तर्क, जवाबदेही और सहमति का केंद्र है। लेकिन दुख की बात है कि आज अक्सर बहस और मुद्दों से ज़्यादा राजनीतिक दिखावा, तकरार और अव्यवस्थित व्यवहार देखने को मिलता है। जब हमारे जन-प्रतिनिधि बात-बात पर हंगामा करते हैं, तो उसका सीधा नुकसान जनता को होता है। मूल्यवान समय बर्बाद होता है, सत्र की उत्पादकता गिरती है और कई महत्वपूर्ण बिल बिना बहस के ही पारित करने पड़ते हैं या लंबित रह जाते हैं। हम सब यह जानते हैं कि संसद का समय करोड़ों रुपये की लागत से चलता है।यह समय देश और समाज के हित में उपयोग होना चाहिए, न कि राजनीतिक और व्यक्तिगत बयानबाज़ी में। संसद में असहमति होना लोकतंत्र का स्वाभाविक हिस्सा है, लेकिन असहमति को अभद्रता, नारेबाज़ी या वॉकआउट में बदल देना उचित नहीं। लोकतंत्र की मजबूती इसी में है कि सरकार और विपक्ष दोनों सीमाओं के भीतर रहकर अपनी बात रखें, तर्कों और तथ्यों से एक-दूसरे को चुनौती दें और समाधान का रास्ता निकालें।यदि हमारे जन-प्रतिनिधि संसद की गरिमा को समझें, उसके महत्व को प्राथमिकता दें और सार्थक बहस को आगे बढ़ाएँ, तो न केवल संसद की कार्यक्षमता बढ़ेगी, बल्कि जनता का विश्वास भी मजबूत होगा। संसद तभी वास्तव में लोकतंत्र का मंदिर बनेगी, जब उसमें शोर नहीं, बल्कि सार्थक संवाद गूँजेगा। अंत में यही कहूंगा कि संसद जितनी प्रभावी तरह से काम करेगी, देश की तरक़्क़ी और लोकतंत्र उतना ही मजबूत होगा।





