
(MIS डेटा, ट्रांसफर नीति और कैबिनेट बैठकों की चर्चाएँ केवल लटकाने की औपचारिकता)
शिक्षकों के बीच यह धारणा गहराती जा रही है कि MIS डेटा, ट्रांसफर नीति और कैबिनेट बैठकों की चर्चाएँ केवल औपचारिकता बनकर रह गई हैं। कई बार इन्हें निर्णयों को टालने या प्रक्रिया में पारदर्शिता के भ्रम को बनाए रखने के साधन के रूप में देखा जाता है। शिक्षक स्थानांतरण प्रक्रिया अब पारदर्शिता और निष्पक्षता की कसौटी पर खरी नहीं उतर रही है। MIS पोर्टल, नीति और मीटिंग अब बहाने लगने लगे हैं। संगठन मौन हैं और शिक्षकों में असंतोष गहराता जा रहा है। शिक्षा विभाग को चाहिए कि वह नीति को स्पष्ट, तिथि को निश्चित और प्रक्रिया को जवाबदेह बनाए। वरना यह असंतोष आंदोलन में बदल सकता है। शिक्षक सम्मान के साथ कार्य करें, यह तभी संभव है जब उन्हें उनके अधिकार बिना अपील के प्राप्त हों।
डॉ. सत्यवान सौरभ
(कवि, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार)
हरियाणा में शिक्षक ट्रांसफर ड्राइव अब एक सामान्य प्रशासनिक प्रक्रिया न रहकर, एक गंभीर शैक्षिक और सामाजिक मुद्दा बन चुका है। हर साल शिक्षक समुदाय इस प्रक्रिया से जुड़ी पारदर्शिता, समयबद्धता और न्यायसंगत व्यवहार की उम्मीद करता है, लेकिन हर बार उन्हें निराशा ही हाथ लगती है। हाल ही में सोशल मीडिया पर एक फूलों की माला वाली तस्वीर वायरल हुई, जिसमें लिखा था: “आज की मीटिंग के बाद ट्रांसफर ड्राइव।” यह व्यंग्य मात्र नहीं, बल्कि शिक्षक समाज की वेदना का प्रतीक बन गया।
ट्रांसफर प्रक्रिया आज भी एक कठिन पहेली बनी हुई है, जहाँ शिक्षक की मेहनत, समर्पण और सेवा से अधिक महत्व तकनीकी पेचिदगियों और प्रक्रियात्मक अस्पष्टताओं को दिया जा रहा है। MIS पोर्टल की शुरुआत पारदर्शिता के उद्देश्य से की गई थी, लेकिन व्यवहार में यह कई बार शिक्षकों के लिए भ्रम और हताशा का कारण बना है।
MIS पोर्टल पर शिक्षकों से उम्मीद की जाती है कि वे अपनी वरीयताएँ भरें, उपलब्ध स्कूलों के विकल्प चुनें और एक निष्पक्ष प्रक्रिया के तहत स्थानांतरण प्राप्त करें। लेकिन प्रक्रिया की गति, स्पष्टता और परिणामों को लेकर निरंतर संशय बना रहता है।
कई बार ट्रांसफर ड्राइव शुरू होने की तिथि तय नहीं होती, बार-बार प्रक्रिया स्थगित होती है, और शिक्षकों को यह जानकारी नहीं मिलती कि सूची कब जारी होगी, किस आधार पर स्थानांतरण किया जाएगा, या यदि उनका ट्रांसफर नहीं हुआ तो उसके कारण क्या हैं। यह सब शिक्षक समुदाय में विश्वास की कमी और प्रशासनिक पारदर्शिता पर सवाल खड़े करता है।
शिक्षक संगठनों की जिम्मेदारी है कि वे शिक्षकों की समस्याओं को सामने लाएँ, उन पर संवाद करें और समाधान की दिशा में दबाव बनाएँ। लेकिन जब शिक्षक सोशल मीडिया पर यह पूछने लगें—“हसला चुप क्यों है?”—तो यह केवल एक सवाल नहीं, बल्कि एक गहरी पीड़ा का संकेत है।
शिक्षकों की अपेक्षा है कि संगठन उनकी आवाज़ बने, लेकिन यदि वे केवल बयानबाज़ी तक सीमित रहें या जमीनी स्तर पर निष्क्रिय दिखें, तो उनका भरोसा डगमगाने लगता है। संगठनों को यह आत्ममंथन करना होगा कि वे शिक्षकों की आकांक्षाओं पर कितना खरा उतर पा रहे हैं।
हालिया ट्रांसफर ड्राइव से पहले हरियाणा के मॉडल स्कूल के लिए चयन परीक्षा का आयोजन किया गया, जिसमें हज़ारों शिक्षकों ने भाग लिया। यह परीक्षा बताई गई आगामी ट्रांसफर नीति का आधार होनी थी, लेकिन आज तक उस नीति को अंतिम रूप नहीं दिया गया है। जब तक कोई स्पष्ट नियमावली नहीं होती, तब तक किसी भी चयन प्रक्रिया का कोई औचित्य नहीं बचता।
यह स्थिति शिक्षकों के मन में भ्रम उत्पन्न करती है और उनकी मेहनत को व्यर्थ साबित करती है। नीति पहले बने, फिर परीक्षा हो—यह एक बुनियादी प्रशासनिक सिद्धांत है, जिसका पालन आवश्यक है।
शिक्षकों के बीच यह धारणा गहराती जा रही है कि MIS डेटा, ट्रांसफर नीति और कैबिनेट बैठकों की चर्चाएँ केवल औपचारिकता बनकर रह गई हैं। कई बार इन्हें निर्णयों को टालने या प्रक्रिया में पारदर्शिता के भ्रम को बनाए रखने के साधन के रूप में देखा जाता है।
जब ठोस परिणाम सामने नहीं आते, तो यह संदेह स्वाभाविक है कि पूरी प्रक्रिया कहीं न कहीं किसी रणनीति से प्रेरित हो रही है। इस प्रकार की सोच प्रशासन और शिक्षक समुदाय के बीच विश्वास की खाई को और गहरा कर देती है, जो कि किसी भी स्वस्थ शिक्षा व्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।
शिक्षक आज केवल पढ़ाने तक सीमित नहीं हैं। वे डाटा एंट्री, दीवार लेखन, विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण, वोटर सूची निर्माण, मिड-डे मील की निगरानी, आपदा प्रबंधन जैसे कई दायित्वों में लगाए जाते हैं। लेकिन जब वे अपने स्थानांतरण की बात करते हैं—परिवार के पास जाने की, स्वास्थ्य कारणों से पास के स्थान पर नियुक्ति की, तो उन्हें केवल प्रक्रिया, मीटिंग और पोर्टल की बाधाओं में उलझा दिया जाता है।
यह व्यवस्था केवल असंतोष नहीं, बल्कि शिक्षकों की कार्यक्षमता और मनोबल को भी प्रभावित करती है।
यदि ट्रांसफर ड्राइव एक नीतिगत प्रक्रिया है, तो उसके सभी चरणों की स्पष्टता ज़रूरी है। हाल में हुए चयन परीक्षाएँ और उनके परिणामों को लेकर कोई स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं है। न तो वरीयता सूची जारी हुई, न ही यह बताया गया कि इनका ट्रांसफर प्रक्रिया में क्या स्थान होगा।
शिक्षकों को हर स्तर पर यह जानकारी दी जानी चाहिए कि कौन सी प्रक्रिया कब और क्यों हो रही है। पारदर्शिता केवल डिजिटल प्रणाली से नहीं आती, बल्कि सटीक जानकारी और संवाद से आती है।
स्थानांतरण नीति को शीघ्र और स्पष्ट रूप से अधिसूचित किया जाए, जिसमें प्रक्रिया, समयसीमा, अपील प्रणाली, और वरीयता निर्धारण के स्पष्ट बिंदु शामिल हों। MIS पोर्टल की कार्यप्रणाली की स्वतंत्र समीक्षा की जाए, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि कोई भेदभाव नहीं हो रहा। सभी चयन परीक्षाओं की नियमावली और उद्देश्य स्पष्ट हों, ताकि शिक्षक भ्रमित न हों। शिक्षक संगठनों की जवाबदेही तय की जाए, और उनसे अपेक्षा हो कि वे समय पर शिक्षकों के पक्ष में प्रभावी रूप से आवाज़ उठाएँ। स्थानांतरण प्रक्रिया को RTI के तहत पूरी पारदर्शिता में लाना भी उपयोगी होगा।
शिक्षक समाज का शिल्पकार होता है। यदि उसे स्थानांतरण जैसी मूलभूत सुविधा के लिए भी संघर्ष करना पड़े, तो यह केवल एक व्यक्ति का अपमान नहीं, बल्कि पूरे शिक्षा तंत्र की विफलता है। हमें यह समझना होगा कि शिक्षकों को केवल कर्तव्यों से नहीं, बल्कि अधिकारों से भी सशक्त बनाया जाना चाहिए। संस्थान, नीति और प्रशासन का दायित्व है कि वे शिक्षक की गरिमा को बनाए रखें। प्रक्रिया को जटिल नहीं, सरल और पारदर्शी बनाना होगा। शिक्षक से अपेक्षा तभी की जाए जब उन्हें उनका हक बिना माँगे मिले।