दशरथ प्रसाद
भारतेन्दु युग के शैशव काल की खड़ी-बोली , हिन्दी साहित्य से निकल कर आधुनिक भारतीय नवजागरण काल में अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम कर चुकी है। विज्ञान, तकनीक और संचार क्रांति के कारण हमारी सामाजिक जीवन पद्धति में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ है। इसका प्रभाव हिन्दी साहित्य पर भी पड़ा है। इसके कारण हिन्दी पद्य-साहित्य में भी नये-नये प्रयोग प्रारंभ हो गए हैं। इसी कड़ी में विवेक वर्धन की कृति “जीवन की धारा” नामक काव्य-संग्रह पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। इस काव्य-संग्रह में कुल 51 कविताएँ संग्रहित हैं । हमारे सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को स्पर्श करती हुई सरल,सहज और सुरुचिपूर्ण शब्दों की डोर में पिरोई कविताएँ मानव हदय के सूक्ष्म भावनाओं को स्पंदित करती है।
आधुनिक शहरी जीवन के घुटन भरे माहौल से शाँति और सुकून की तलाश में “गाँव का सुवास” स्वच्छ, शीतल और मन्द करने के लिए अपने “पैरों की बेड़ियाँ” तोड़ने के लिए कृत संकल्प प्रतीत होता है। कभी वह अपने लक्ष्य प्राप्त करने में ”बेबसी” पर आँसू बहाता है तो अपने “परिश्रम के बल पर “साहसी वीर” बन कर अभिमन्यु की तरह “ज़िन्दगी की जद्दो जहद” रूपी चक्रव्यूह को भेदना चाहता है। कभी निराशा भाव उभरता है और उसका अंतर्मन कह उठता है “नहीं सुलझा पाता हूँ मैं।”
आधुनिक मशीनी युग में भले ही मानव द्रुत गति से दौड़ रहा है, लेकिन उसके भीतर नाजुक, कोमल और भावना से ओत-प्रोत हृदय भी है , जो जेठ के भीषण ताप की जलन से निजात पाने के लिए “माँ का आँचल” का साया चाहता है, जिसमें मन “चाँदनी रात” में “दो पल की खुशी” की अनुभूति प्राप्त करता है। कहा जाता है कि प्यार एक बेहद खूबसूरत एहसास होता है। दिल यदि चाहत के रंग में सराबोर हो जाए तब दुनिया के सभी रिश्ते फ़ीके पड़ जाते हैं। “छुपे प्रेम की ज्वाला” के आगोश में बह कर वह “घर-आँगन की शहज़ादी” से प्रणय निवेदन करना चाहता है।
“गाँव की बगिया” में सैर करते हुए “चाँद की आवारगी” उसे “अनोखा दृश्य” प्रतीत होता है। “पूनम की चाँदनी” में वह “दो पल की खुशी” तलाशता है। पर्यावरण असंतुलन का भीषण प्रकोप प्राकृतिक-संसाधनों पर पड़ा है। “मानव की क्रूरता” हमें ऐसे मोड़ पर ले आई है जहाँ “अब सावन रास नहीं आता” के नैराश्य का भाव छा जाता है और बरबस अन्तरात्मा पुकार उठती है “क्या ये वही सावन है?”
इस पुस्तक की विशेषताओं में से एक है संग्रहित कविताओं के कथानक की विविधता। एक छोर पर कवि मानवीय संवेदनाओं को “हम सबसे पहले मानव हैं ” द्वारा धरातल पर पाठकों को परिचय करवाता है तो दूसरे छोर पर निराशा के भाव को “थक गई है मेरी कलम” के रूप में व्यक्त करता है। शाँति और सुकून की खोज में “किताबों की गहराई” का अवलोकन करता है। “कलमगार” के शंखनाद से “लिखने की रुमानियत” में अपनी परछाई खोजता है। मानव समुदाय के कल्याण के लिए वह “करुणा के अवतार” और “शिव की आराधना” के माध्यम से अध्यात्म की ओर रुख करता है। जीवन में आशा की किरण कायम रखने के लिए उसे “संगम की प्रतीक्षा” है तो समाज के संघर्षों और तमाम झंझावातों को चीरते हुए वह “लड़ कर जीतना चाहता हूँ” का संदेश देता है। “आगे बढ़ते जाना है” का संकल्प जीवन-यात्रा में साहस प्रदान करता है। आधुनिक जीवन में सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए उसे “संविधान है सबसे ऊपर” में विश्वास और प्रतिबद्धता है। घर-परिवार में स्त्रियों के महत्त्व और योगदान के लिए कवि “सर्वोत्तम हैं स्त्रियाँ ” को रेखांकित करता है।
यह काव्य-संग्रह अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में भाषा और शैली के दृष्टिकोण से कितना परिमार्जित और सुग्राह्य हो सका है, इसका आकलन तो सुधि-पाठक और विद्वान समीक्षक ही करेंगे। समुद्र-मन्थन में तो अमृत और विष दोनों की प्राप्ति हुई थी। यह काव्य-संग्रह भी कुछ त्रुटियों से अछूता नहीं रहा, लेकिन कवि का प्रयास सराहनीय रहा है। आखिर “जीवन की धारा” अपने साथ आशा-निराशा, खुशी और गम, हर्षोल्लास सभी को समाहित करती है तभी तो “बीतें लम्हें याद बनकर बरसती हैं।”
समीक्षक : दशरथ प्रसाद
पुस्तक: जीवन की धारा
लेखक: विवेक वर्धन
प्रकाशन: समदर्शी प्रकाशन, गाज़ियाबाद
मूल्य: 250 रुपये