मुफ्त उपहारों के एलान की राजनीतिक प्रतिस्पर्धा

नरेंद्र तिवारी

भारत देश मे चुनावों से पूर्व मुफ्त उपहारों की पेशकश लगभग सभी प्रदेशों में प्रत्येक राजनीतिक दल द्वारा की जाती रही हैं। मध्यप्रदेश में चुनावी वर्ष होने से सियासी दलों का फोकस प्रदेश के मतदाता है। इन मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए राजनैतिक दलों में मुफ्त सुविधाओं के वितरण की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गयी है। भाजपा, कांग्रेस के मध्य चल रही इस प्रतिस्पर्धा में आप की आमद से भूचाल आ गया है। सत्ता की मंडी में मतदाताओं की बोली लगना शुरू हो गयी है। जिस प्रकार से मुफ्त वितरण में सियासी घमासान चल रहा है, उसे देख लगता है कि आगामी चुनाव से मुफ्त की सुविधाएं की भरमार होने वाली है। जैसे ही प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने लाडली बहना को एक हजार रु देने की घोषणा की तो तत्काल ही राजनीतिक मंच से कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने लाडली बहना को कांग्रेस की सरकार आने पर पन्द्रह सौ रु एवं गैस टँकी 500 रु में दिए जाने घोषणा कर डाली। इसी बीच प्रदेश की राजनीति में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का पदार्पण हुआ जिन्होंने मुफ्त बिजली, चिकित्सा एवं शिक्षा का दिल्लीनुमा लालीपाप दिखा कर जनता को आकर्षित करने की कवायद शुरू कर दी है। मुफ्त सुविधाओं की इस प्रतिस्पर्धा में यह समझ पाना बहुत कठिन है कि कौनसा दल विश्व का सबसे बड़ा दल है, कौनसा देश का सबसे पुराना दल है और कौनसा जन आंदोलन से उपजा नवीन राजनैतिक सिंद्धान्तों की प्रतिस्थापना के साथ राष्ट्र उत्थान की बात करने वाला दल है। सब एक जैसी मुफ्त उपहारों की घोषणा करतें हुए जनता को यह एहसास करा रहे है कि हम सबसे ज्यादा मुफ्त सुविधाएं ओर उपहार बांटने की काबलियत रखते है। मुफ्त उपहारों की घोषणाओं की यह अंतहीन प्रतिस्पर्धा के मध्य एक आम भारतीय जो खुद के परिश्रम और कढ़ी मेहनत से अपना जीवन यापन करता है, सोच रहा है मुफ्त के उपहारों की यह घोषणाएं क्यो ? आखिर सरकारी खजाने को लुटाने का यह अधिकार इन सियासी दलों को किसने दिया है ? जिस प्रकार से भारत मे चुनावों के दौरान तमाम राजनीतिक पार्टियों द्वारा मुफ्त उपहारों के वितरण की पेशकश की जाती है। ऐसा लगता है कि संगठन, सिद्धांत और विचारधारा का कोई महत्व नहीं रह गया है। राजनैतिक दलों के सिद्धांत दिखाने के कुछ और व्यवहार में कुछ और नजर आतें है। चुनाव जीतना पहली प्राथमिकता है। येनकेन प्रकारेण चुनाव में विजयी होना ही मुख्य लक्ष्य बन गया है। इस लक्ष्य को साधने के लिए राजनीतिक दल नई-नई घोषणाएं कर रहें है। आजादी से अब तक केंद्र सरकार और विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा जनकल्याणकारी राज्य की भूमिका में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग सहित आरक्षित वर्ग हेतु शिक्षा, चिकित्सा, आवास ओर अनाज वितरण की मुफ्त या कम कीमत पर सुविधाएं उपलब्ध करा रखी है। मध्यप्रदेश राज्य में कहा जाता है की आरक्षित ओर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को जन्म से लेकर मृत्यु तक कि व्यवस्था राज्य सरकार द्वारा की जाती है। मध्यप्रदेश राज्य में महिलाओं को प्रसूति सहायता योजना, जननी सुरक्षा योजना का लाभ प्रसूति के दौरान दिया जाता है। बच्चे के जन्म से लगाकर उसकी मुफ्त शिक्षा, स्वास्थ्य, राशन की सुविधाएं राज्य सरकार द्वारा दी जा रही है। इसी प्रकार आवास की सुविधाएं , स्वास्थ्य सुविधाएं भी केंद्र और राज्य की विभिन्न योजनाओं के माध्यम से आमजन को उपलब्ध हैं। एक आम भारतीय अवधारणा है कि तीर्थ यात्रा बेहद निजी विषय है, जिसका व्यय व्यक्ति स्वयं या परिवार के सदस्यों द्वारा ही किया जाता है। तभी तीर्थ यात्रा का पुण्यलाभ मिल पाता है। किंतु मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना के माध्यम से तीर्थ यात्राएं भी कराई जाती रही है। दरअसल जनकल्याण राज्य एवं केंद्र सरकार का आवश्यक दायित्व भी है। इसकी पूर्णरूपेण अवहेलना नहीं कि जा सकती है। आर्थिक रूप से कमजोर, शोषित, पीड़ित वर्ग की प्रगति कार्यक्रम चलाए ही इसलिए जाते है, ताकि यह वर्ग आत्मनिर्भर बन सकें। केंद्र एवं राज्य द्वारा दी जा रही यह सुविधाएं व्यक्ति, परिवार, समाज और देश को आत्मनिर्भर बनाए जाने के लिए उपलब्ध कराई जाती है। किंतु क्या जमीनी स्तर पर आजादी के 75 बरसों के उपरांत जनकल्याणकारी योजनाओं से वास्तविक जनकल्याण होता नजर आ रहा है ? क्या जनकल्याण के नाम पर राजनीतिक दलों द्वारा नागरिकों को पंगु कमजोर और आश्रित तो नही बनाया जा रहा है। मुफ्त उपहार की यह योजना राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाने के स्थान पर मुफ्त सुविधाओं पर आश्रित कमजोर नागरिकों के निर्माण की योजनाए तो नहीं बन गयी है। यह बेहद विचारणीय विषय है। जनकल्याणकारी राज्य का आशय नागरिकों को सक्षम और आत्मनिर्भर बनाने से है। कर्मठ ओर परिश्रमी नागरिक राष्ट्र उत्थान की प्रथम आवश्यकता है। क्या मुफ्त उपहार की यह राजनीतिक पेशकश वास्तविक राष्ट्र उत्थान में सहायक है। सम्भवत निष्पक्ष मत यही होगा कि मुफ्त सुविधाओं की पेशकश राष्ट्र की प्रगति में सहायक तो कतई नही दिखाई दे रही है। चुनाव में विजय होने के लिए तमाम दल मुफ्त सुविधाओं की घोषणा करते है। मुफ्त के यह उपहार मतदाताओं को भ्रमित करते है। यह निष्पक्ष चुनाव की प्रक्रिया को प्रभावित भी करते है। राज्य और केंद्र सरकार को चाहिए कि नागरिकों में काम करने की प्रवृत्ति का निर्माण करें। मुफ्त के इन उपहारों का सरकार के खजाने पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में राजनीतिक दलों द्वारा दिए जाने वाले उपहारों को विनियमित करने के तरीके पर सिफारिशें देने के लिए एक शीर्ष प्राधिकरण निर्माण की अनुशंसा की है। मुफ्त उपहारों की इन पेशकशों के सम्बंध में चुनाव आयोग को भी सख्त रुख अपनाने की आवश्यकता है। राजनीतिक दल द्वारा मुफ्त उपहारों की इन पेशकशों का आकलन मतदाताओं को भी गम्भीरता से कर लेना चाहिए। मुफ्त सुविधाओं की लालच में अपने वोट का सौदा करने से बचना चाहिए। लोक कल्याणकारी राज्य के लिए जरूरी है कि वह नागरिकों का सामाजिक, आर्थिक, मानसिक विकास करें। नागरिकों में समानता का भाव पैदा करें। परन्तु यह भी विचार करने की जरूरत है कि मुफ्त के उपहारों से नागरिकों में मुफ्त सुविधाओं के प्रति आकर्षण तो नही बढ़ रहा है। नागरिकों ने अपनी कर्मठता तो नहीं खो दी है। अकर्मण्य भीड़ राष्ट्र निर्माण के लिए उपयुक्त नहीं है। यह प्रवृत्ति विश्व में सिरमौर बनने की कोशिश में लगे देश के लिए तो बिल्कुल भी उचित नहीं है। वर्तमान में सभी राजनीतिक दल मुफ्त की सुविधाओं के माध्यम से चुनावी विजय का प्रयास करते है। किन्तु यह जान लेना चाहिए कि मुफ्त के उपहारों से चुनावी विजयी तो प्राप्त की जा सकती है। एक मजबूत राष्ट्र नहीं, जो दुनियाँ की ताकत बन सके। राष्ट्र को चाहिए वह अपने नागरिकों को कर्मठ और आत्मनिर्भर बनाए। मुफ्त के उपहार एक मजबूत राष्ट्र की प्रक्रिया का बाधक तत्व है।