सत्ता समीकरण और नेताओं का वैचारिक प्रवास!

Power equations and ideological migration of leaders!

सोनम लववंशी

भारतीय राजनीति का मौजूदा दृश्य किसी वैचारिक संघर्ष से अधिक एक चलायमान मंडी जैसा प्रतीत होता है, जहाँ नेता अपने-अपने राजनीतिक स्टॉक की कीमत आँकते हुए दल बदल रहे हैं। जिस विचारधारा के नाम पर कभी जेल यात्राएँ हुईं, लाठियाँ खाई गईं, सत्ता से दूरी बरती गई। आज वही विचारधारा सूटकेस में सिमटकर नए राजनीतिक पते पर पहुँच जाती है। यह प्रश्न केवल दल-बदल का नहीं, बल्कि उस गहरे संकट का है जहाँ राजनीति अपने नैतिक आधार से फिसलकर सुविधा, सत्ता और सुरक्षा के त्रिकोण में कैद हो चुकी है। यही परिघटना “विचारधारा का सियासी कारोबार” कहलाती है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में विचारधारा जीवन का अनुशासन हुआ करती थी। गांधी, लोहिया, जयप्रकाश नारायण या दीनदयाल उपाध्याय के लिए विचार सत्ता तक पहुँचने की सीढ़ी नहीं, बल्कि सत्ता को नियंत्रित करने का औज़ार था। आज स्थिति उलट चुकी है। विचारधारा अब चुनावी ब्रांडिंग का हिस्सा बन गई है, जिसे समय और सत्ता की मांग के अनुसार बदला जा सकता है। दल बदलने वाले नेता अपने साथ केवल समर्थक नहीं ले जाते, वे अपने पुराने विचारों को भी सार्वजनिक रूप से त्याग देते हैं, कभी “परिस्थितियों की मजबूरी” बताकर, कभी “जनहित” की दुहाई देकर।

हालिया दशकों में भारतीय राजनीति ने ऐसे असंख्य दृश्य देखे हैं। रामविलास पासवान ने जीवन भर सत्ता के केंद्र के चारों ओर अपनी राजनीति को घुमाया। कांग्रेस, जनता दल, एनडीए, यूपीए हर सत्ता-संरचना में उनकी उपस्थिति यह संकेत देती रही कि विचारधारा से अधिक महत्वपूर्ण सत्ता के निकट रहना है। यही प्रवृत्ति गोवा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक दिखाई देती है, जहाँ चुनी हुई सरकारें रातों-रात अल्पमत में बदल दी जाती हैं और विचारधाराएँ विधानसभा के गलियारों में दम तोड़ देती हैं। महाराष्ट्र का उदाहरण विशेष रूप से विचारणीय है। शिवसेना, जिसने मराठी अस्मिता और हिंदुत्व के मिश्रण से अपनी पहचान बनाई थी, सत्ता की गणित में इस कदर उलझी कि पार्टी दो हिस्सों में बँट गई। एक खेमा वैचारिक विरासत का दावा करता रहा, दूसरा सत्ता की वैधता का। यहाँ प्रश्न यह नहीं रहा कि असली शिवसेना कौन सी है, बल्कि यह बन गया कि सत्ता किसके पास है। विचारधारा अदालतों में हलफनामों का विषय बन गई। कांग्रेस से भाजपा या भाजपा से कांग्रेस में जाने वाले नेताओं की सूची भी लंबी है। जिन नेताओं ने जीवन भर एक-दूसरे को साम्प्रदायिक, फासीवादी या राष्ट्रविरोधी कहा, वही नेता सत्ता समीकरण बदलते ही नए मंच पर साथ खड़े दिखे। मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया का कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाना केवल एक व्यक्ति का निर्णय नहीं था, वह उस राजनीतिक संस्कृति का प्रतिबिंब था जहाँ संगठनात्मक असंतोष और सत्ता की आकांक्षा विचारधारात्मक निष्ठा पर भारी पड़ जाती है। सिंधिया समर्थकों के लिए विचारधारा रातों-रात बदल गई, बिना किसी वैचारिक आत्मसंघर्ष के।

यह स्थिति केवल राष्ट्रीय दलों तक सीमित नहीं। क्षेत्रीय दलों में यह प्रवृत्ति और अधिक तीव्र है। तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल हर जगह “जीतने वाली पार्टी” की ओर प्रवास एक सामान्य राजनीतिक आचरण बन चुका है। तृणमूल कांग्रेस में शामिल होने वाले कई नेता कभी वामपंथ के कट्टर समर्थक थे। सत्ता समीकरण बदला, विचारधारा भी बदली। यहाँ राजनीति सामाजिक परिवर्तन का माध्यम नहीं, व्यक्तिगत सुरक्षा और प्रभाव बनाए रखने का साधन बन जाती है। इस सियासी कारोबार के पीछे कुछ ठोस कारण हैं। पहला कारण राजनीति का अत्यधिक केंद्रीकरण है। आज सत्ता केवल नीतियाँ बनाने का मंच नहीं, बल्कि संसाधनों, जांच एजेंसियों और प्रशासनिक नियंत्रण का स्रोत है। सत्ता से बाहर होना राजनीतिक रूप से हाशिये पर जाना है। दूसरा कारण दलों के भीतर लोकतंत्र का क्षरण है। जब संगठन में संवाद समाप्त हो जाता है, नेतृत्व परिवार या सीमित समूह में सिमट जाता है, तब महत्वाकांक्षी नेता वैचारिक असहमति को दल-परिवर्तन का औचित्य बना लेते हैं। तीसरा और सबसे चिंताजनक कारण मतदाता का विचारधारा के प्रति उदासीन होना है। जब वोट जाति, मुफ्त योजनाओं या चेहरे पर आधारित हो जाए, तब नेता भी जानते हैं कि वैचारिक स्थिरता की कोई कीमत नहीं। वे आश्वस्त रहते हैं कि पार्टी बदलने के बाद भी चुनावी सफलता संभव है। यही कारण है कि दल-बदल विरोधी कानून भी नैतिक अनुशासन स्थापित करने में असफल रहा है। वह केवल संख्या का खेल रोकता है, विचारों की खरीद-फरोख्त को नहीं।

इस पूरी प्रक्रिया में सबसे बड़ा नुकसान लोकतंत्र को होता है। लोकतंत्र केवल चुनाव जीतने का तंत्र नहीं, बल्कि नागरिकों और सत्ता के बीच विश्वास का संबंध है। जब नागरिक यह देखते हैं कि जिन विचारों के नाम पर उनसे वोट लिया गया, वही विचार सत्ता मिलते ही त्याग दिए गए, तब राजनीति से मोहभंग स्वाभाविक हो जाता है। यही मोहभंग सामाजिक कटुता, अविश्वास और राजनीतिक निहिलिज़्म को जन्म देता है। यह भी समझना आवश्यक है कि हर दल-परिवर्तन अवसरवाद नहीं होता। इतिहास में कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं जहाँ नेताओं ने गहरे वैचारिक मतभेदों के चलते दल छोड़ा। जयप्रकाश नारायण का कांग्रेस से अलग होना, आचार्य कृपलानी का सत्ता से दूरी बनाना। ये फैसले सत्ता पाने के लिए नहीं, सत्ता की आलोचना के लिए थे। आज के दल-बदल और तब के वैचारिक विच्छेद में यही मूलभूत अंतर है। आज का नेता सत्ता के बिना खुद को अप्रासंगिक मानता है, कल का नेता सत्ता से बाहर रहकर भी नैतिक केंद्र बना रहता था।

“विचारधारा का सियासी कारोबार” दरअसल राजनीति के बाजारीकरण की परिणति है। यहाँ नेता ब्रांड हैं, पार्टी प्लेटफॉर्म है और विचारधारा पैकेजिंग। यह स्थिति केवल नेताओं की नैतिक कमजोरी का परिणाम नहीं, बल्कि एक ऐसी राजनीतिक संरचना का नतीजा है जहाँ सत्ता सर्वोच्च मूल्य बन चुकी है। जब तक राजनीति में वैचारिक प्रशिक्षण, आंतरिक लोकतंत्र और नागरिक चेतना को पुनर्जीवित नहीं किया जाएगा, तब तक दल-बदल केवल खबर नहीं, एक स्थायी प्रवृत्ति बना रहेगा। अंततः प्रश्न सत्ता सुख से भी आगे जाता है। यह प्रश्न लोकतंत्र की आत्मा का है। यदि विचारधारा केवल अवसरानुकूल वस्त्र बन जाए, तो राजनीति और व्यापार में अंतर मिट जाता है। उस दिन लोकतंत्र चुनाव तो कराएगा, दिशा नहीं देगा। शायद यही समय है जब समाज यह तय करे कि उसे सुविधा-आधारित राजनीति चाहिए या विचार-आधारित नेतृत्व। राजनीति का भविष्य इसी चयन पर निर्भर करता है।