राष्ट्रपति चुनाव : अब विपक्ष के साझा उम्मीदवार सिन्हा नहीं द्रौपदी मुर्मू है

सुशील दीक्षित विचित्र

राष्ट्रपति के चुनाव से पहले ही जीत हार तय हो चुकी है | मोदी के एक ही दांव से चित्त हुए विपक्ष के कई सूरमाओं ने पाला बदल लिया | विपक्ष के साझा उम्मीदवार यशवंत सिन्हा अब साझा नहीं रहे बल्कि विपक्ष ने एनडीए के उम्मीदवार द्रोपदी मुर्मू को ही अपना उम्मीदवार मान लिया | विपक्षी एकता की सारी कोशिशें कांग्रेस को उल्टी पड़ी और हालात यह हैं कि मुर्मू को ले कर उनके ही दल के लोग खानों में बटे हुए हैं | यदि राहुल गांधी का कहना ठीक है कि यशवंत सिन्हा का समर्थन विचार धारा की लड़ाई है तो निश्चित जानिये की कांग्रेस यह लड़ाई हार चुकी है और उनके उम्मीदवार की पराजय की घोषणा होना बस थोड़े से वक्त की बात है |

चुनाव अकस्मात न लड़े जाते हैं और न ही अकस्मात उनकी रणनीति बनाई जा सकती है | इसके लिए बहुत पहले से नीति निर्धारण किया जाने लगता है | संभावित मोर्चों पर चर्चा करके उन्हें सर करने के लिए समर्थ लोगों को उन मोर्चों पर लगाया जाता है | कांग्रेस के पास ऐसे किसी भी चिंतन का अभाव है | कांग्रेस को दरकिनार कर के ममता बनर्जी , शरद पवार, तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर , समाजवादी पार्टी समेत विपक्ष के एक गुट ने काफी तलाश के बाद यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति का प्रत्याशी घोषित किया | कांग्रेस के नेता यशवंत सिन्हा को लेकर बहुत उत्साहित थे | उनके नामांकन के समय राहुल गांधी और पवार के अलावा सपा के अखिलेश यादव समेत विपक्ष के कई दिग्गज नेता मौजूद थे | इस बीच एनडीए ने आदिवासी पृष्ठभूमि की द्रोपदी मुर्मू को अपना प्रत्याशी बनाया | मुर्मू के मैदान में उतरते ही विपक्षी खेमें में सन्नाटा फ़ैल गया | सबसे पहले इस का सीधा असर झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पर पड़ा | कल तक जो यशवंत सिन्हा के समर्थन में ख़म ठोंक रहे थे वे सहसा घर में बैठ गये | यशवंत सिन्हा के समर्थक विपक्षी दलों में सेंध लगने की शुरुआत हो गयी | आगे चल कर अन्य दल भी यशवंत सिन्हा से छिटक कर अलग खड़े हो गए क्योंकि कोई भी दल अपने ऊपर आदिवासी और महिला विरोधी का ठप्पा लगवाना नहीं चाहता |

धीरे -धीरे परिदृश्य बदलने लगा | अब यशवंत सिन्हा विपक्ष के कई दलों को खटकने लगे | जिन ममता बनर्जी ने विपक्ष का साझा उम्मीदवार तलाश करने में जमीन आसमान एक कर दिया था | खुद यशवंत सिन्हा को तलाशा और विपक्ष के कई दलों को उनके पक्ष में लामबंद करने के लिए मीटिंग की | उन्होंने भी न केवल यशवंत सिन्हा से पल्ला झाड़ लिया बल्कि यह कह कर एक तरह से मुर्मू के पक्ष में समर्पण कर दिया कि उन्हें मुर्मू के बारे में पहले बताया होता तो वह सिन्हा को प्रत्याशी नहीं बनातीं | | अभी -अभी पार्टी की वगावत से जूझ कर पद और आँख खोने वाले शिवसेना सुप्रीमों उद्धव ठाकरे ने अपने सांसदों को टूटने से बचाने और पार्टी बनाये रखने के लिए मजबूरी में मुर्मू को समर्थन देने की घोषणा की | राजनीतिक गलियारे में चर्चा है कि अगर ठाकरे इस समय बुद्धिमानी से काम न लेते तो सांसद भी खोते और पार्टी भी खोते | महा विकास अघाड़ी दल में वे अभी भी हैं लेकिन रांकपा और कांग्रेस से अलग हट कर उन्हें इसीलिये भाजपा समर्थक रुख लेना पड़ा क्योंकि पार्टी के सांसदों ने इसके लिए साफ़- साफ़ कह दिया था और जिसकों नजरंदाज करने का नतीजा स्वयं ठाकरे के लिए घातक हो सकता था |

हालांकि एमवीए का कोई भविष्य दिखाई नहीं पड़ रहा है फिर भी गठबंधन का नाम ले कर कांग्रेस उद्धव ठाकरे के प्रति गुस्सा प्रकट कर रही है लेकिन इसके कोई मायने नहीं क्योंकि कोई भी दल या उसका नेता इतना भी आत्मघाती कदम उठाने वाला नहीं होगा जैसे राहुल गाँधी उठा रहे हैं | मुर्मू के खिलाफ उनके स्वर शुरू भी हो गए हैं | कांग्रेस नेता यह प्रचारित करने में लगे हैं कि यहाँ आदिवासी और गैर आदिवासी का सवाल नहीं है बल्कि यह लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए चल रहा संघर्ष है | राहुल गांधी और उनके सहयोगियों का तकिया कलाम है कि वे लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं जबकि असलियत यह है कि कांग्रेस खुद से लड़ रही है और हर आने वाले दिन कमजोर होती जा रही है | क्योंकि कांग्रेस की कोई स्पष्ट विचारधारा नहीं रह गयी है | पिछले आठ वर्षों में उसकी एक ही विचारधारा सामने आयी और वह है मोदी का अँधा विरोध | इस अंधविरोध के चलते पार्टी अँधेरे में टक्कर खाती घूम रही है | जिस शिव सेना कि विचारधारा उसकी विचारधारा से हमेशा विपरीत रही उससे वह किस साझा विचारधारा की बात कर रही है यह तो कांग्रेस ही जाने लेकिन मुर्मू का विरोध करके कांग्रेस आदिवासियों में बची अपनी जमीन भी खो देगी |

कांग्रेस के कुछ नेता इस बात को समझ भी रहे है | उन्हें भी आदिवासी मतों को खोने का डर अभी से पैदा हो गया है | कुछ ने इशारों में कहा भी लेकिन दरबारी संस्कृति में उनकी आवाज विरोध या विद्रोह न मान लिया जाए इसलिए कोई खुल कर नहीं कह पा रहा है | उन्हें यह भी अभी से लगने लगा है कि जैसे पिछले दर्जनों चुनावों में हार के बाद कांग्रेस उसका फैलाव और भी संकुचित होता चला गया वैसे ही इस बार भी हो सकता है | कांग्रेस की कुछ और जमीन खिसक सकती है |

हर चुनाव की तरह राष्ट्रपति के महत्वपूर्ण चुनाव का भी एजेंडा नरेंद्र मोदी / अमितशाह की जोड़ी ने सेट किया और कुल विपक्ष को उसी एजेंडे के तहत अपना चुनाव लड़ने पर मजबूर होना पड़ा | हालाँकि मुर्मू की जीत उनके नाम की घोषणा के साथ ही तय हो गयी थी क्योंकि राजग और उसके ओडिसा समेत कुछ राज्यों में सत्तारूढ़ दलों के मतों को मिला कर विपक्ष से कहीं अधिक मत होते हैं लेकिन भाजपा के थिंक टैंक ने ऐसी रणनीति अपनायी कि कांग्रेस आदि को बैकफुट पर धकेल दिया और मुर्मू की जीत का रास्ता साफ़ कर दिया | यही नहीं , मोदी ने विपक्षी एकता को बिखेर कर कांग्रेस को आईना दिखाया और बता दिया कि उसका कोई भी गठबंधन उसके सामने टिकने वाला नहीं |