यौन दुष्कर्म पर छलका राष्ट्रपति का दर्द

President's pain over sexual rape spilled over

‘संयुक्त परिवार के टूटने और छोटे परिवारों में मां-बाप और बच्चों के बीच बढ़ती दूरी और संवादहीनता ने टीनएजर्स के बीच सोशल मीड़िया के रुप में संवाद का एक नया नेटीजन पीयर ग्रुप पैदा कर दिया है। ध्यान रहे यह नेटीजन समूह ही उनके हर तरीके के सुख-दुख और अच्छे बुरे में पूरी तरह हमसाज है। मां-बाप को इस सच्चाई को समझने की फुर्सत ही नहीं है कि पोर्न उनके बच्चों के बेडरुम तक पहुंच गया है। उल्टे वे इस सच्चाई से दूर भाग रहे हैं। सच तो यह है कि पोर्न का प्रभाव ही यौन सबंधों के ढांचे को नई यौन प्रयोगशाला में रुपान्तरित कर रहा है।‘

डॉ. विशेष गुप्ता

कोलकाता के आरजी कर मेड़िकल कॉलेज की महिला डॉक्टर की अस्पताल में दुष्कर्म के बाद हत्या पर राष्ट्रपति की पीड़ा ध्यान देने योग्य है। उन्होंने बहुत दर्द भरे शब्दों में कहा कि मैं निराश और भयभीत हूं। कहना न होगा कि नौ अगस्त को कोलकाता में घटित इस दर्दनाक घटना के बाद उनका यह पहला बयान है। उन्होंने स्पष्ट लिखा कि कोई भी सभ्य समाज बेटियों और बहनों पर इस तरह के अत्याचार की अनुमति नहीं देता। देश के साथ-साथ उन्हंोंने भी आक्रोशित होते हुए कहा कि जिस समय छात्र, डॉक्टर और नागरिक कोलकाता में प्रदर्शन कर रहे थे, ऐसे समय में भी यौन पिपासु लोग अन्यत्र शिकार की तलाश में घात लगाए हुए थे। उन्होंने दिसम्बर 2012 में दिल्ली में निर्भया के साथ हुए दुष्कर्म और हत्या की चर्चा करते हुए कहा कि कुछ बच्चों ने मुझसे बड़ी मासूमियत से इस घटना के बारे में पूछा, मगर क्या उन्हें ऐसी घटना आगे घटित न होने का भरोसा दिया जा सकता है। निश्चित ही इस समय महिला उत्पीड़न से जुड़े मुद्दों पर समाज को ईमानदार और निष्पक्ष रहकर आत्ममूल्यांकन करने की महती आवश्यकता है।

राष्ट्रपति महोदया के बयान के आलोक में यदि महिला उत्पीड़न से जुड़ी हालिया घटनाओं का मूल्यांकन करें तो ज्ञात होता है कि अभी हाल ही में कोलकाता में डॉक्टर के साथ किए गए यौन व्यभिचार से देश भर में फैले आक्रोश और प्रदर्शनों के बीच विधायिका की एक बदरंग तस्वीर भी सामने आयी है। एसोसिएशन फॅार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स, एडीआर की ओर से जारी हालिया रिपोर्ट में 16 वर्तमान सांसदों और 135 विधायकों पर महिलाओं के विरुद्ध अपराध में मुकदमें दर्ज हैं। केवल इतना ही नहीं बल्कि दो सांसदों और 14 विधायकों पर दुष्कर्म के मामले चल रहे हैं। खास बात यह है कि बंगाल के जनप्रतिनिधि ऐसे मामलों का सबसे अधिक सामना कर रहे हैं। उधर हेमा रिपोर्ट के बाद केरल के फिल्म उद्योग में महिला कलाकारों के शोषण का मामला आजकल चरम पर है। बदलापुर, महाराष्ट्र में अबोध बच्चियों का त्रासद प्रकरण, असम में 14 साल की बच्ची के साथ सामूहिक दुष्कर्म जैसी घटनाएं तो हमारी आंखों के सामने ही हैं। इनके अलावा प्रतिदिन समाचार पत्रों में यौन उत्पीड़न और बलात्कार जैसी घटनाओं को प्रचुर मात्रा में पढ़कर इन घटनाओं की गंभीरता को आसानी से समझा जा सकता है।

गौरतलब है कि राष्ट्रपति महोदया की महिला उत्पीड़न को लेकर यह पीड़ा अनायास ही नहीं है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की हालिया रिपोर्ट भी बताती है कि यहां 16 मिनट में एक यौन दुष्कर्म घटना होती है। साथ ही प्रत्येक घण्टे महिलाओं के विरुद्ध 50 अपराध घटित होते हैं। इनमें 10 फीसदी से भी अधिक यौन दुष्कर्म की घटनाएं 18 साल से कम उम्र के नाबालिगों के साथ घटित होतीं हैं। कहना न होगा कि आज देश और प्रदेशों के मुख्तलिफ हिस्सों में मासूम लड़कियों और महिलाओं के साथ घटने वाली यौन उत्पीड़न की वारदातों ने देश व समाज को झकझोर कर रख दिया है। लगता है, निर्भया यौन उत्पीड़न की घटना के बाद समाज की सोच में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। यही वजह है कि देश में यौन हिंसा की लगातार बढ़ती घटनाओं को लेकर तरह-तरह की प्रतिक्रियायें भी सामने आ रहीं हैं। केवल इतना ही नहीं ऐसी घटनाओं को रोकने के सभी उपाय भी निष्फल होते दिख रहे हैं। देश-विदेश के स्तर पर जो भी रिपोर्ट सामने आ रही है, उनमें भी यौन हिंसा के बढ़ते ग्राफ को लेकर चिंता साफ झलक रही है। कहना न होगा कि बलात्कार जैसी घिनौनी वारदातों से न केवल देश में, बल्कि विदेशों तक में अपनी साख को बट्टा लग रहा है। देश में ऐसी घटनाओं का लगातार बढ़ना निश्चित ही गंभीर चिंता का विषय है।

यौन उत्पीड़न की अधिकांश घटनाएं आज कानूनविदों और समाजशास्त्रियों को नए सिरे से सोचने को मजबूर कर रहीं हैं। इस संदर्भ से जुड़े कुछ और आंकड़े खुलासा करते हैं कि भारत में यौन उत्पीड़न के मामले में लगभग 93 फीसदी दोषी पीड़िता के ही परिचित होते हैं। इन आंकड़ों की तकलीफ देय तस्वीर यह है कि 31 फीसदी यौन हिंसा और छेड़खानी में पीड़ित लड़कियों की उम्र 14 साल से भी कम रही है। दरअसल मामला चाहे, महिला छेड़छाड़ का हो अथवा यौन हिंसा का, इन सभी घटनाओं को अब किसी एक सामाजिक पैमाने से नहीं मापा जा सकता। आज इसके गहन अध्ययन के लिए एक बहुआयामी वस्तुनिष्ठ मापनियों की जरुरत महसूस की जा रही है। लेकिन फिर भी लगातार बढ़ती यौन हिंसाओं की इन घटनाओं पर कम से कम एक हालिया समाज-मनोवैज्ञानिक दृष्टिपात करना जरुरी हो जाता है।

इसमें कोई शक नहीं कि सूचना तकनीक ने आज की दुनिया में एक खलबली मचा दी है। गांवों से लेकर महानगरों तक मोबाइल और इंटरनेट ने बच्चों, युवाओं और महिलाओं के बीच अपना पूरा दखल बना लिया है। असल स्थिति यह है कि आप सड़क के किनारे तक से सस्ते से सस्ता इंटरनेट सिम खरीदकर पूरी दुनिया की अच्छी-बुरी सैर कर सकते हैं। यहां तक कि प्रचुर मात्रा में पोर्न साहित्य तक भी इन्हीं सिम में कैद है। यहां तक कि कोलकाता से जुड़ी घटना में अभियुक्त भी इस पोर्न का ही आदी पाया गया है। दूसरी ओर संयुक्त परिवार के टूटने और छोटे परिवारों में मां-बाप और बच्चों के बीच बढ़ती दूरी और संवादहीनता ने टीनएजर्स के बीच सोशल मीड़िया के रुप में संवाद का एक नया नेटीजन पीयर ग्रुप पैदा कर दिया है। ध्यान रहे यह नेटीजन समूह ही उनके हर तरीके के सुख-दुख और अच्छे बुरे में पूरी तरह हमसाज है। मां-बाप को इस सच्चाई को समझने की फुर्सत ही नहीं है कि पोर्न उनके बच्चों के बेडरुम तक पहुंच गया है। उल्टे वे इस सच्चाई से दूर भाग रहे हैं। सच तो यह है कि पोर्न का प्रभाव ही यौन सबंधों के ढ़ांचे को नई यौन प्रयोगशाला में रुपान्तरित कर रहा है। बढ़ते यौन आवेग के पीछे कहीं न कहीं इस मुद्दे को भी समाहित करना समीचीन होगा। दूसरी ओर इस संदर्भ में यह भी देखने में आ रहा है कि आज सबसे अधिक हिंसा उन लड़के-लड़कियों पर हो रही है, जो या तो घर से बाहर रह रहे हैं अथवा वे समाज के कमजोर सामाजिक-आर्थिक वर्ग से आते हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 16 दिसम्बर को दिल्ली में हुए निर्भया काण्ड के पश्चात बलात्कार के दोषियों के प्रति कानून की सख्ती हुयी है। मगर इसके बाद भी बालिग के साथ-साथ कहीं-कहीं नाबालिग भी अपराधी तक अब बलात्कार के बाद पीड़िता की हत्या करके सबूत मिटाने पर आमादा हैं। साथ ही साथ सबसे दुखद तो यह है कि यौन उत्पीड़न से जुड़े मामलों में राजनीति और कानून से जुड़े पुरोधाओं के गैर जिम्मेदाराना बयानों ने भी इन व्यभिचारियों के हौसले बुलंद किये हुए हैं।

कड़वा सच यह है कि यौन दुष्कृत्यों से जुड़ी इन सभी घटनाओं के पीछे छिपा वह सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण भी है, जिसे हमने अपनी खुली बाजारु अर्थव्यवस्था तथा जाति-धर्म पर आधारित सामाजिक वैमनस्य और दबंगई राजनीति से तैयार किया है। विचारहीन व्यवहार से जुड़ी इस संक्रमित संस्कृति में आज सामाजिक संवेदना, दूसरे के प्रति सम्मान, करुणा और सहानुभूति जैसे मूल्यों के साथ में बहन-बेटी जैसे रिश्तों के सम्मान की कोई जगह बची ही नहीं है। आज इस बाजारु संस्कृति की आग में मनुष्य का मनुष्यत्व, आदमी की आदमीयत और पुरुष के पुरुषार्थ झुलस रहे हैं। ऐसे में विषैली मानसिकता का प्रस्फुटन होना स्वभाविक ही है। इसलिए हमें समय रहते उन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दशाओं का विश्लेषण भी करना चाहिए, जो लोगों को बलात्कारी बनाती हैं। साथ ही स्त्री और पुरूष देह से जुड़ी उन सामाजिक मान्यताओं और पुलिस कानून की कमजोर व्यवस्थाओं का भी मूल्यांकन करना पड़ेगा, जो आज खुद बलात्कारी की रक्षक बनकर न्याय का गला घोंट रही हैं। यदि असलियत में हमें यह चिन्ता है कि किसी भी महिला अथवा पुरूष पर बलात हिंसा और यौन आक्रमण न हो तो हमें शाब्दिक वाचालता, चपलता और यौन हिंसा की घटनाओं से जुड़ी त्वरित टिप्पणी के खोल से बाहर आकर बलात्कार से जुड़े उन मूल सवालों से टकराना पड़ेगा, जो इस प्रकार की घटनाओं से उभर रहे हैं। साथ ही एक स्वस्थ एवम् स्त्री सशक्तता से जुड़े समाज की पुनर्स्थापना भी करनी पड़ेगी। तभी महिला की देह को सुरक्षा कवच मिल पायेगा। अंत में कहना न होगा कि बलात्कार चाहे कोलकाता में हो या देश व प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में, वे केवल कानून की विफलता के कारण ही नहीं हैं। हम इस सच्चाई को अच्छी तरह जानते हैं कि आज के लगातार हिंसक हो रहे समाज में कानून की सख्ती के बिना जंगल राज होने की पूरी संभावनाएं हैं। परन्तु दूसरी ओर यह भी सच है कि कानून व्यवस्था हम चाहे कितनी भी दुरुस्त क्यों न कर लें, अगर उसे सभ्य समाज की संवेदनशील सामाजिक मूल्यों की संस्कृति का सहयोग और समर्थन नहीं मिलता तो ऐसे में न तो सामान्य अपराधों पर और न ही बढ़ती यौन हिंसा पर रोक लगायी जा सकती है। ऐसे में जरुरी है कि देश और समाज के साथ-साथ परिवारों और स्कूली स्तर पर मनुष्यगत मूल्यों का पूर्ण आन्तरीकरण हो। साथ ही देश में प्रत्येक नारी के सम्मान के साथ-साथ करुणा और दया के भाव से जुड़े मूल्यों को आत्मसात करके और व्यवहार में उनका प्रदर्शन करके ऐसी यौन दुष्प्रवृतियों पर काफी हद तक रोक लगायी जा सकती है, इसीलिए समय रहते हमें राष्ट्रपति महोदया की सामयिक पीड़ा को गंभीरता से लेने की आवश्यकता है।

(लेखक निवर्तमान प्राचार्य और उत्तर प्रदेश बाल अधिकार संरक्षण आयोग के पूर्व अध्यक्ष हैं।)